ढाबे वाले ने उसे मुफ्त में खिलाया खाना फिर पता चला कि ग्राहक कौन था उसके पैरों तले की जमीन खिसक गयी
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जयपुर दिल्ली हाईवे के किनारे एक छोटा सा पुराना ढाबा था, जिसका नाम था हरीदा ढाबा। यह ढाबा तीन की छत और बांस की दीवारों से बना था, जिसमें कुछ पुरानी लकड़ी की बेंचें और मेजें रखी थीं। इन सब पर समय की धूल और तेल के जिद्दी दाग अपनी कहानी कहते थे। यहां काम करता था हरी, एक 35 साल का सीधा-साधा आदमी, जिसके चेहरे पर मेहनत की थकान और धूप की स्याही थी, लेकिन उसकी आंखों में नरमी और होठों पर सच्ची मुस्कान हमेशा रहती थी।
हरी का यह ढाबा उसके पिता ने शुरू किया था। पिता के जाने के बाद यह जिम्मेदारी हरी के कंधों पर आ गई थी, लेकिन यह जिम्मेदारी अब उसके लिए बोझ बन चुकी थी। हाईवे पर नए-नए बड़े और चमचमाते रेस्टोरेंट खुल गए थे, जिनके आगे हरी का यह पुराना ढाबा फीका पड़ गया था। यहां ज्यादातर ट्रक ड्राइवर या गरीब मजदूर ही रुकते थे। कमाई इतनी कम थी कि घर का खर्च चलाना भी मुश्किल था।
हरी के घर में बूढ़ी बीमार मां थी, जिसकी दवाइयों का खर्चा हर महीने बढ़ता जा रहा था। उसकी पत्नी सीता घर संभालती थी और पास के खेतों में मजदूरी भी करती थी ताकि दो पैसे और आ सकें। उनकी आठ साल की बेटी प्रिया पढ़ने में बहुत होशियार थी और डॉक्टर बनने के बड़े सपने देखती थी। हरी अपनी बेटी के सपनों को पूरा करने के लिए अपनी जान तक दे सकता था, लेकिन उसकी खाली जेब हर पल उसकी लाचारी का एहसास कराती थी। ढाबे पर बैंक का कर्ज भी था, जिसकी किश्तें कई महीनों से टूटी हुई थीं।
इन सब मुश्किलों के बावजूद, हरी ने अपने पिता से मिली एक सीख कभी नहीं छोड़ी थी—अगर कोई भूखा गरीब आए तो उसे कभी खाली पेट न जाने देना। वह उसे अपने हिस्से की रोटी दे देता, यह सोचे बिना कि खुद क्या खाएगा। ढाबे पर हरी का एक मददगार था, जो दुनियादारी में माहिर और थोड़ा लालची किस्म का लड़का था। वह हरी की इस आदत से चिढ़ता था और कहता था, “मालिक, तुम यूं ही सबको मुफ्त में खिलाते रहोगे तो एक दिन हम खुद भीख मांगते नजर आएंगे।” लेकिन हरी मुस्कुरा कर कह देता, “अरे किसी भूखे को खिलाने से कमाई कम नहीं होती, बल्कि बरकत होती है।”
एक दिन की बात है, दोपहरी की तेज धूप में सड़कें सुनसान थीं और गर्म हवा के थपेड़े ढाबे की छत को और गर्म कर रहे थे। सुबह से कोई ग्राहक नहीं आया था। हरी चूल्हे के पास बैठा मक्खियां उड़ा रहा था और बेंच पर लेटा सो रहा था। उसकी जेब में मुश्किल से पचास रुपये थे, और शाम को मां की दवाइयां भी लानी थीं। इसी सोच में डूबा था कि उसने देखा एक बुजुर्ग आदमी धीरे-धीरे लड़खड़ाते हुए ढाबे की ओर आ रहा था। वह कोई 70-75 साल का बूढ़ा था, शरीर सूख कर कांटा हो गया था, गाल अंदर धंस गए थे, तन पर मैली और फटी हुई कमीज़ और धोती थी, पैरों में टूटी हुई चप्पल, और हाथ में लकड़ी की छड़ी थी जो कांपते शरीर का सहारा बनी हुई थी। ऐसा लग रहा था जैसे उसने कई दिनों से कुछ नहीं खाया हो और कई मीलों की पैदल यात्रा करके यहां पहुंचा हो।
वह बुजुर्ग ढाबे के सामने आकर एक बेंच पर बैठ गया और हाफने लगा। हरी ने अपनी जगह से उठकर गिलास पानी लेकर उसके पास गया, “बाबा, पानी पी लो, बहुत धूप है।” बुजुर्ग ने कांपते हाथों से गिलास पकड़ा और एक ही सांस में पूरा पानी पी गया। उसकी आंखों में कृतज्ञता थी। पानी पीने के बाद उसने बड़ी उम्मीद भरी नजरों से हरी की ओर देखा, “बेटा, बहुत भूख लगी है, क्या कुछ खाने को मिलेगा?” उसकी आवाज कमजोर और दबी हुई थी।
हरी ने नरमी से कहा, “हां बाबा, क्यों नहीं, रोटी सब्जी है, दाल भी है, बताओ क्या खाओगे?” बुजुर्ग की आंखें एक पल के लिए चमकीं, पर फिर बुझ गईं। उसने नजरें झुका लीं, “पर बेटा, मेरे पास पैसे नहीं हैं, एक भी पैसा नहीं।” यह सुनकर हरी का मददगार जो पास में सो रहा था उठकर बैठ गया और हरी के कान में कहा, “आ गया एक और मुफ्तखोर, इसे भगा दो, ये सब नाटक होते हैं।” लेकिन हरी ने उसकी बात अनसुना कर दिया।
हरी ने पल भर अपनी खाली जेब, मां की दवाइयां और बेटी की स्कूल की फीस के बारे में सोचा। दिमाग कह रहा था कि मना कर दे, पर दिल उस भूखे लाचार चेहरे को देखकर पिघल गया। उसने कहा, “कोई बात नहीं बाबा, पैसे की चिंता मत करो, आप हमारे मेहमान हो आज। मेहमान से कोई पैसे लेता है क्या? चलो, हाथ-मुंह धो लो, मैं तुम्हारे लिए गरमागरम खाना लगाता हूं।” बुजुर्ग की आंखों में आंसू आ गए। वह कुछ कहने लगा पर शब्द नहीं मिले। वह बस हरी को देखता रहा जैसे वह कोई इंसान नहीं, बल्कि कोई देवता हो।
हरी ने उसे सहारा देकर उठाया और नल के पास ले गया। फिर उसने एक साफ थाली में दो गरमागरम रोटियां, दाल, सब्जी और थोड़ा सा सलाद रखा। उसने खुद अपने हाथों से वह थाली बुजुर्ग के सामने रखी, “लीजिए बाबा, आराम से खाइए।” हरी के मददगार को यह सब देखकर गुस्सा आ रहा था कि मालिक की बेवकूफी का फायदा उठाया जा रहा है।
बुजुर्ग ने धीरे-धीरे एक-एक निवाले का स्वाद लिया, ऐसा लग रहा था जैसे वह खाना नहीं बल्कि अमृत खा रहा हो। हर निवाले के साथ उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। खाना खत्म करने के बाद उसने अपनी फटी हुई जेब में हाथ डाला और एक पुराना, घिसा हुआ, जंग लगा सिक्का निकाला। यह सिक्का शायद किसी पुराने जमाने का था, जिस पर तस्वीर पहचानना मुश्किल था। “बेटा, मेरे पास तुम्हें देने के लिए इसके सिवा और कुछ नहीं है। यह मेरे पुरखों की निशानी है, इसे रख लो, भगवान तुम्हारा भला करेगा।” उसने सिक्का हरी के हाथ में रख दिया।
हरी ने सिक्का लिया और कहा, “बाबा, इसकी क्या जरूरत थी? आपका आशीर्वाद ही मेरे लिए सबसे बड़ी दौलत है।” बुजुर्ग ने हरी के सिर पर हाथ रखा और बिना कुछ कहे अपनी छड़ी के सहारे धीरे-धीरे वापस उसी सड़क पर चल दिया, जहां से आया था। हरी उसे तब तक देखता रहा जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो गया।
हरी का मददगार गुस्से में बोला, “पागल हो गए हो क्या मालिक? एक भिखारी के लिए इतना कुछ? एक खोटा सिक्का?” हरी ने सिक्के को अपनी मुट्ठी में खींच लिया और मुस्कुराते हुए कहा, “कल्लू, इस सिक्के की कीमत शायद कुछ नहीं, पर इसके पीछे की दुआएं अनमोल हैं।”
उस दिन के बाद हरी की मुश्किलें और बढ़ गईं। अगले दो-तीन दिनों तक ढाबे पर काम बिल्कुल मंदा रहा। बैंक वाले आकर कर्ज के लिए धमकी दे गए। मां की तबीयत बिगड़ गई और बेटी के स्कूल से फीस जमा करने का आखिरी नोटिस भी आ गया। हरी पूरी तरह टूट चुका था। उसे पहली बार लगा कि शायद सही था, उसकी भलाई और इंसानियत उसके किसी काम नहीं आ रही थी। वह रात को अपनी झोपड़ी में बैठा उस पुराने सिक्के को देख रहा था और सोच रहा था कि क्या उसने उस दिन बुजुर्ग को खाना खिलाकर कोई गलती कर दी।
उसे नहीं पता था कि उसकी इंसानियत की परीक्षा खत्म हो चुकी थी और परिणाम का दिन आने वाला था—एक ऐसा परिणाम जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी।
अगली सुबह जब हरी अपने ढाबे पर उदास बैठा था, उसने देखा कि हाईवे पर धूल का गुब्बार उड़ रहा है। कुछ ही पल बाद चार काली चमचमाती लग्जरी गाड़ियां उसके ढाबे के सामने आकर रुकीं। ऐसी गाड़ियां उस इलाके के लोग फिल्मों में ही देखते थे। गाड़ियों से काले सूट पहने लंबे चौड़े गंभीर चेहरे वाले लोग उतरे, जो किसी बड़े नेता या उद्योगपति के सुरक्षा गार्ड लग रहे थे। पूरा इलाका सहम गया। आसपास के दुकानदार अपनी दुकानों से झांकने लगे।
हरी और उसका मददगार डर के मारे बुरा हाल था। उन्हें लगा कि शायद बैंक वालों ने किसी बड़े आदमी को उनकी जमीन पर कब्जा करने के लिए भेजा है। हरी का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। उसे लगा कि आज उसका जिंदगी का आखिरी दिन है।
तभी सबसे आगे वाली गाड़ी का दरवाजा खुला। बाहर निकला एक शख्स, जिसने महंगा सिल्क का कुर्ता-पायजामा पहना था, आंखों पर सोने की फ्रेम वाला चश्मा था और हाथ में चांदी की मूठ वाली छड़ी। उसके चेहरे पर ऐसा तेज और रब था कि कोई भी उसके सामने नजरें उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता था। वह धीरे-धीरे ढाबे की ओर बढ़ा।
जैसे ही वह करीब आया, हरी और का दिल धड़कने लगा। उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। “यह वही बाबा है,” वे बस इतना ही कह पाए।
यह वही बुजुर्ग था, लेकिन आज उसका रूप पूरी तरह बदल चुका था। वह अब लाचार फटे-हाहाल भिखारी नहीं, बल्कि किसी राजा की तरह लग रहा था। वह था देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों में से एक श्री राजेंद्र सिंह, एक ऐसा नाम जिसके एक फैसले से शेयर बाजार में हलचल मच जाती थी। वह अपनी दौलत के साथ-साथ रहस्यमई और एकांतप्रिय स्वभाव के लिए भी जाना जाता था।
हरी तो जैसे पत्थर का बन गया। उसे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था। जिस आदमी को उसने एक भिखारी समझकर रोटी खिलाई थी, वह असल में देश का इतना बड़ा आदमी था। उसे डर लगा कि कहीं उसने उस दिन कोई गलती तो नहीं कर दी थी, कहीं बाबा उसकी किसी बात से नाराज तो नहीं हो गए थे।
राजेंद्र सिंह हरी के सामने आकर रुके। उनकी आंखों में गुस्सा नहीं, बल्कि गहरी नम आंखों वाली मुस्कान थी। “कैसे हो हरी?” उन्होंने नरम और अपनेपन वाली आवाज में पूछा। हरी का गला सूख गया था। वह कुछ बोल नहीं पा रहा था, बस हाथ जोड़कर खड़ा था।
राजेंद्र सिंह ने उसके कंधे पर हाथ रखा, “डरो मत। मैं यहां तुम्हें डराने नहीं, बल्कि शुक्रिया अदा करने आया हूं।” फिर उन्होंने जो कहानी सुनाई, उसे सुनकर वहां मौजूद हर शख्स दंग रह गया।
उन्होंने बताया, “मैं हर साल कुछ दिनों के लिए अपनी पहचान, दौलत सब कुछ छोड़कर एक आम गरीब इंसान की तरह देश के अलग-अलग कोनों में घूमता हूं। मैं यह देखना चाहता हूं कि क्या इस मतलबी और तेज रफ्तार दुनिया में इंसानियत अभी भी जिंदा है। इस बार मैं कई दिनों तक भटकता रहा। लोगों ने मुझे दुत्कार, धक्का दिया। मुझे चोर और भिखारी समझकर अपने दरवाजे से भगा दिया। मैं भूख और प्यास से तड़प रहा था। मेरा इंसानियत पर से भरोसा लगभग उठ चुका था। मुझे लगा था कि यह दुनिया अब सिर्फ पैसे वालों की है। और फिर मैं तुम्हारे ढाबे पर पहुंचा।”
राजेंद्र सिंह की आंखें भर आईं, “तुमने मुझसे मेरा नाम या जाति नहीं पूछी। तुमने यह नहीं देखा कि मेरे पास पैसे हैं या नहीं। तुमने बस एक भूखे इंसान की भूख देखी और बिना किसी उम्मीद, स्वार्थ के मुझे खाना खिलाया। तुमने सिर्फ खाना नहीं खिलाया, हरी, तुमने मुझे इंसानियत पर मेरा खोया हुआ विश्वास वापस लौटाया है। उस दिन तुमने एक भूखे का नहीं, एक टूट चुके इंसान का पेट भरा था।”
हरी की आंखों से भी आंसू बहने लगे। राजेंद्र सिंह ने अपनी जेब से वही पुराना जंग लगा सिक्का निकाला, “हरी, यह मेरे दादाजी की आखिरी निशानी है, यह मेरे परिवार का गुडलक चार है। मैं इसे सिर्फ उसी को देता हूं जो मेरे दिल को छू जाता है, और तुमने तो मेरी आत्मा को छू लिया।” फिर वह हरी की तरफ मुड़े, “तुम कह रहे थे कि इस सिक्के से क्या होगा? अब देखो इस एक सिक्के की दुआ से क्या होता है।”
राजेंद्र सिंह ने अपने मैनेजर को इशारा किया। मैनेजर बड़ी फाइल लेकर आगे आया। “हरी, मैं तुम्हारा कर्ज कभी नहीं चुका सकता, पर मैं तुम्हारी जिंदगी की सारी मुश्किलें आज खत्म करना चाहता हूं। मैंने तुम्हारे ढाबे पर जो बैंक का कर्ज है, वह चुका दिया है।”
हरी ने हाथ जोड़े, “मालिक, आपने इतना कर दिया, यही बहुत है।”
“नहीं,” राजेंद्र सिंह ने कहा, “यह तो बस शुरुआत है। मैं इस जगह तुम्हारे ढाबे की जगह पर एक शानदार, बड़ा वातानुकूलित रेस्टोरेंट और होटल बनवाऊंगा, जिसका नाम होगा हरीदा ढाबा। और तुम इसके मालिक होगे, मैं तुम्हारा पार्टनर।”
हरी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। वह कुछ कह पाता इससे पहले राजेंद्र सिंह ने कहा, “तुम्हारी बेटी प्रिया आज से मेरी बेटी है। वह देश या दुनिया के किसी भी अच्छे स्कूल या कॉलेज में पढ़ना चाहेगी, उसका सारा खर्चा मेरा ट्रस्ट उठाएगा। वह डॉक्टर बनेगी। और तुम्हारी मां का इलाज दिल्ली के सबसे बड़े अस्पताल में मेरे सबसे अच्छे डॉक्टर करेंगे।”
यह सुनते ही हरी वहीं जमीन पर बैठ गया और बच्चों की तरह रोने लगा। जो यह सब देख रहे थे, शर्म और पश्चाताप से जमीन में गड़े जा रहे थे।
उनमें से एक आगे आया और हरी और राजेंद्र सिंह दोनों के पैरों पर गिर पड़ा, “मुझे माफ कर दो मालिक, मैं समझ नहीं पाया।” राजेंद्र सिंह ने उसे उठाकर कहा, “माफी मुझसे नहीं, अपनी सोच से मांगो। और आज से तुम भी यही काम करोगे, पर एक शर्त पर—तुम्हें हर रोज कम से कम एक भूखे को मुफ्त खाना खिलाना होगा।”
हरी ने रोते-रोते हामी भर दी।
उस दिन के बाद हरी की दुनिया हमेशा के लिए बदल गई। कुछ ही महीनों में उस पुराने टूटे-फूटे ढाबे की जगह एक शानदार रेस्टोरेंट खड़ा हो गया। हरी अब भी वही भोला और दयालु इंसान था, बस उसके पास दूसरों की मदद करने के लिए साधन भी थे।
उसका रेस्टोरेंट सिर्फ अमीरों के लिए नहीं था। उसका एक हिस्सा हमेशा गरीबों और भूखों के लिए खुला रहता था, जहां हर रोज सैकड़ों लोग मुफ्त में पेट भर खाना खाते थे।
प्रिया शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ने लगी और उसकी मां भी अच्छे इलाज के बाद पूरी तरह स्वस्थ हो गई। हरी अक्सर अपने रेस्टोरेंट के कैश काउंटर पर बैठता और अपनी जेब से वह पुराना जंग लगा सिक्का निकालकर उसे देखता और मुस्कुराता।
उसे एहसास हो गया था कि उसके पिता सही कहते थे—इंसानियत और नेकी में ही असली बरकत होती है। एक छोटी सी नेकी, एक थाली मुफ्त का खाना, उसे वह सब कुछ दे गई जो दुनिया की सारी दौलत मिलकर भी नहीं दे सकती थी—सुकून, सम्मान और दूसरों की दुआएं।
हरी की यह कहानी हमें सिखाती है कि इंसानियत का कोई मोल नहीं होता और नेकी कभी बेकार नहीं जाती। आपका एक छोटा सा अच्छा काम किसी की जिंदगी बदल सकता है, और शायद आपकी अपनी भी।
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