अदालत के कटघरे में पिता-पुत्र का मिलन
दिल्ली की 30 हजारी अदालत का वह भारी भरकम कमरा, जहां इंसाफ तराजू में तोला जाता है, उस दिन रिश्तों और इंसानियत की सबसे बड़ी परीक्षा देने वाला था। कटघरे में एक बेहद लाचार, मैला कुचैला बुजुर्ग खड़ा था—रामसेवक। उसकी झुकी कमर, फटी आंखें और कमजोर शरीर में बेगुनाही साबित करने की ताकत भी नहीं बची थी। जज साहब का हथौड़ा उठने ही वाला था कि उसे जेल की अंधेरी कोठरी में भेज दिया जाए, तभी अचानक शहर के सबसे कामयाब और महंगे वकील—आकाश वर्मा अपनी जगह से उठे और चीख पड़े, “जज साहब इन्हें रोकिए! ये मेरे बाप हैं!”
पूरा अदालत कक्ष सन्नाटे में डूब गया। हर कोई हैरान था कि करोड़ों की फीस लेने वाला वकील उस गरीब, फटेहाल बुजुर्ग को अपना पिता बता रहा है।
कहानी फ्लैशबैक में जाती है। उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव बेलारी में रामसेवक एक किसान थे। उनका सपना था—अपने इकलौते बेटे आकाश को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाना। वे खुद फटे कपड़े पहनते, सूखी रोटी खाते, लेकिन आकाश के लिए कभी कोई कमी नहीं रखते। आकाश भी मेहनती था, पढ़ाई में अव्वल आता। रामसेवक ने अपनी पुश्तैनी जमीन गिरवी रखकर आकाश को दिल्ली भेजा। आकाश ने वकालत की पढ़ाई की, बड़ा वकील बना, लेकिन सफलता की दौड़ में पिता से दूर होता चला गया। पहले खत, फिर फोन, लेकिन धीरे-धीरे रिश्ते में दूरी आ गई। शादी के बाद आकाश ने पिता को मेहमानों से दूर रखा, उन्हें अपने जीवन का हिस्सा मानने में शर्म महसूस की। रामसेवक ने चुपचाप सब सह लिया, लेकिन उनका दिल टूट गया।
कई साल बीत गए। रामसेवक की आंखें कमजोर हो गईं, शरीर जवाब देने लगा, लेकिन बेटे से मिलने की आस बाकी थी। आखिरकार, वह दिल्ली आ पहुंचे, लेकिन आकाश का पता बदल चुका था। पैसे खत्म हो गए, रामसेवक सड़कों पर भटकने लगे। एक रात, भूख और ठंड से परेशान होकर वे एक बड़े शोरूम के बाहर पहुंचे, जहां गार्ड ने उन्हें चोरी के आरोप में पकड़ लिया। पुलिस ने केस बना दिया, अदालत में पेश किया।
अदालत में सरकारी वकील ने रामसेवक पर चोरी का आरोप लगाया। मजिस्ट्रेट साहब ने फैसला सुनाने ही वाले थे, तभी आकाश वर्मा ने पूरा कोर्ट हिला दिया। वह कटघरे के पास पहुंचे, पिता के पैरों में गिर पड़े और रोते हुए कहा—“बापू, मुझे माफ कर दो!”
आकाश ने अदालत में अपने गुनाह कबूल किए—“मेरे पिता चोर नहीं हैं, असली चोर तो मैं हूं। मैंने उनके सपनों, उनके विश्वास और प्यार की चोरी की है।”
मजिस्ट्रेट साहब भी भावुक हो गए। उन्होंने रामसेवक को झूठे आरोप से बरी कर दिया, पुलिस और शोरूम के मालिक को फटकार लगाई।
आकाश ने अपने पिता को गले लगाया, उन्हें अपने घर ले गया। पत्नी और बच्चे हैरान थे, लेकिन जब उन्हें पूरी कहानी पता चली, वे भी भावुक हो गए। आकाश ने पिता का इलाज करवाया, उन्हें परिवार का प्यार दिया। रामसेवक अब पोते-पोतियों के साथ खेलते, कहानियां सुनाते, उनके चेहरे पर सालों बाद सच्ची खुशी लौट आई।
आकाश ने अपने पिता के नाम पर “रामसेवक फाउंडेशन” बनाया, जो बेसहारा बुजुर्गों की मदद करता है। अपने गांव में स्कूल और अस्पताल बनवाया ताकि किसी बच्चे को अपने मां-बाप से दूर न जाना पड़े। अब आकाश गरीबों के केस मुफ्त में लड़ता है, सिर्फ एक सफल वकील नहीं, बल्कि एक अच्छा बेटा और इंसान बन गया है।
उसने समझ लिया कि असली सफलता बड़ी गाड़ियों, ऊंची इमारतों में नहीं, बल्कि मां-बाप के आशीर्वाद और उनकी मुस्कान में है।
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