असली इज्जत: शकुंतला देवी की कहानी
सुबह के 11 बजे थे, शहर की हलचल अभी पूरी तरह से शुरू नहीं हुई थी। लेकिन शहर के प्रतिष्ठित “स्टेट बैंक ऑफ इंडिया” की शाखा में, आम दिनों जैसी ही भीड़ उमड़ी हुई थी। अंदर सूट-बूट वाले ग्राहक, चमकीले कपड़ों में काउंटरों के पीछे बैठे कर्मचारी और सबकी निगाहें सिर्फ बार-बार अपने काम पर दौड़ रही थीं। इसी भीड़ के बीच आज एक सफ़ेद साड़ी में लिपटी, पचास-पचपन साल से ऊपर की उम्र की एक महिला, जिनके बाल पूरे सफ़ेद थे, हाथ में छड़ी और एक पुराना कपड़े का थैला लिए बैंक में प्रवेश करती है।
उस महिला का नाम था – शकुंतला देवी। वह धीरे-धीरे चलती हुई, भीड़ से बचती-काटती, काउंटर के पास पहुँची। जैसे ही वह अंदर घुसी, बहुत-सी नजरों ने उसे उलझे हुए, कमतर नजरिए से देखा। उसके कपड़े, साधारण रूप, थैले से झाँकती पुरानी बही-खाता कॉपियां – मानों वह किसी गरीब गाँव से सीधा बैंक में आ गई हो।
काउंटर-1 पर विनय नामक कर्मचारी बैठा था। वह अक्सर अपनी सीट पर बैठते ही ग्राहकों को उनके कपड़ों, बोली और दिखावे के आधार पर आंकता था। शकुंतला देवी ने उसके सामने अपना थैला रखा और बड़े धीमे, विनम्र स्वर में बोली, “बेटा, मेरे अकाउंट में कुछ परेशानी है, जरा देख लो, पिछले महीने से कोई लेन-देन नहीं हो रहा।”
विनय ने बिना पूरा ध्यान दिए कहा, “दादीजी, आप गलत बैंक में आ गए हैं शायद। मुझे नहीं लगता कि यहां आपका खाता है।”
पास खड़े अन्य कर्मचारी व ग्राहक कानाफूसी करने लगे— कोई उन्हें भिखारी तो, कोई बेकार बुजुर्ग समझ कर हँसते- हौले टिप्पणियां करने लगे।
शकुंतला देवी सहजता और धैर्य से बोलीं, “बेटा, एक बार देख लो, नाम शकुंतला देवी होना चाहिए…”
विनय ने थैला ले लिया। “दादी थोड़ा समय लगेगा, बैठ जाइए।” – कहकर विनय अपने मोबाइल में व्यस्त हो गया।
शकुंतला देवी को वेटिंग एरिया में बिठा दिया गया। अंदर-बाहर सबकी गुपचुप बातें जारी थीं, “क्या ज़रूरत थी ऐसे लोगों को बैंक में आने देने की?”
तभी अविनाश नामक एक युवा बैंक कर्मचारी, जो वास्तविकता में अपने ग्राहकों के प्रति विनम्रता रखता था, शाखा में दाखिल हुआ। उसने देखा कि वृद्ध महिला अकेली बैठी हैं, पास ही कुछ लोग उनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं।
अविनाश सीधा उनके पास पहुँचा, “दादी, कोई परेशानी है? मैं आपकी मदद कर सकता हूँ?”
शकुंतला देवी मुस्कराकर बोली, “बेटा, मुझे मैनेजर साहब से कुछ जरूरी बात करनी है, मेरा अकाउंट बंद है शायद…”
अविनाश ने कहा, “ठीक है दादी जी, मैं बात करता हूँ।”
वह सीधा मैनेजर रमेश के कक्ष में गया और बोला – “साहब, बाहर एक वृद्ध महिला आई हैं, कहती हैं उनका अकाउंट बंद है और आपसे मिलना चाहती हैं।”
रमेश ने अविनाश को डांटते हुए कहा, “इतने छोटे मुद्दों के लिए मुझे मत बुलाया करो। उनके कपड़े देखे? लगता है यहां किसी के लिए आई हैं भी नहीं। कह दो, इंतजार करें या घर चली जाएं, मेरे पास वक्त नहीं है।”
अविनाश वापस आया और दादी को कह दिया “दादी, थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा, अंदर मीटिंग है।”
एक घंटा बीत गया, लेकिन कोई सुनवाई नहीं। शकुंतला देवी अब उठीं और सीधे मैनेजर के दफ्तर में चली गईं। रमेश झल्लाते हुए बाहर निकल आया— “हां दादी, बोलिए क्या चाहिए?”
शकुंतला ने कहा, “बेटा, इसमें मेरी बैंक डिटेल्स हैं, बिना देखे कैसे कह सकते हो कि अकाउंट मेरा नहीं है? एक बार मिला लो?”
रमेश अकड़ में बोला, “दादी, अनुभव से कह रहा हूँ, ऐसे लोग बहुत आते हैं। जल्दी से चली जाएं और दूसरों को काम करने दें।”
शकुंतला देवी एकपल को चुप रहीं, फिर बोलीं, “ठीक है बेटा, लेकिन शायद तुमने सही पहचान नहीं की। देख लेना, परिणाम तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा।” यह कहते हुए वो धैर्यपूर्वक बाहर निकल गईं।
असली पहचान और सच का पलटवार
अविनाश ने उस थैले के दस्तावेज देखे, पुराने ही सही, पर उनमें बैंक के बड़े शेयर्स की डिटेल्स थीं। जब रिकॉर्ड चेक किया तो पता चला, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के 60% शेयर ‘शकुंतला देवी ट्रस्ट’ के हैं! यानी वही वृद्ध महिला असल में इस बैंक की मालिक थी; बैंक की नींव, उसका ट्रस्ट, शेयर्स, बड़े पैमाने की दानदात्री… सारी डिटेल उन्हीं के नाम थी। अविनाश की आँखें चौड़ी हो गईं…
उसने एक रिपोर्ट की कॉपी निकाली और हिदायतन मैनेजर रमेश के पास पहुँची।
रमेश तक रिपोर्ट पहुँची, पर उसने अनदेखा कर दिया, “बेकार का केस है,” कहकर एक अमीर ग्राहक से गपशप में लगा रहा।
अगले दिन…
सुबह वही वृद्ध महिला फिर आईं, इस बार उनके साथ एक सुइटेड-बूटेड व्यक्ति और वकील भी था। बैंक में संपूर्ण सन्नाटा था। इस बार रमेश को खुद बाहर आना पड़ा— “कहिए, दादी जी, आज कैसे आना हुआ?”
शकुंतला देवी ने सख्त लहजे में कहा, “कल मैंने बताया था, अनदेखा करोगे तो परिणाम भुगतना पड़ेगा। मैं इस बैंक की प्रमुख ट्रस्टी और असल मालिक हूँ। आज से अविनाश यहां का नया मैनेजर होगा। तुम्हारा ट्रांसफर हो गया, अब फील्ड वर्क संभालोगे।”
रमेश अवाक हो गया। वह कांपते हुए बोला, “म…मुझे माफ कर दीजिए, गलती हो गई…”
दादी ने साफ़ कहा, “माफी मैं नहीं, नीति देगी। यह बैंक बनाया ही इसलिए था कि लोग कपड़ों-औकात से नहीं, अपने व्यवहार और इंसानियत से आँके जाएं। तुमने सिर्फ मेरे साथ नहीं, ग्राहकों के साथ भी अन्याय किया है।”
सच्चे काम का सच्चा हकदार
फिर उन्होंने अविनाश को मैनेजर नियुक्त करने का आदेश दिया और विनय सहित अन्य कर्मचारियों को फटकार लगाई – “अगर पहली बार की गलतियाँ माफ हो सकती हैं, पर दोबारा न हो। किसी भी ग्राहक को भेषभूषा से मत आंको। बैंक हर वर्ग–गरीब, मध्यम या अमीर–सबका है।”
धीरे-धीरे वहां के कर्मचारी सीखने लगे, चुनौती आई – अच्छे व्यवहार व विनम्रता के साथ काम करो, ताकि बैंक का मूल उद्देश्य बना रहे।
समय के साथ, बैंक की यह कहानी पूरे शहर में फ़ैल गई। लोग कहने लगे – ‘‘मालिक ऐसी हो तो बैंक ईमानदार बन जाता है!’’ अब जो भी व्यक्ति वहां आता, चाहे गरीब किसान हो या बड़ा व्यापारी– सभी को समान सम्मान मिलता, कपड़ों से नहीं– सोच और व्यवहार से आँका जाता।
कहानी का सार
शकुंतला देवी ने बताया, “असली इज्जत दिखावे में नहीं, इंसान के इरादे और किरदार में होती है। कपड़े कभी पहचान नहीं होते, लेकिन मन का साफ होना सबसे बड़ी पहचान है। सेवा, ईमानदारी और सबको एक नजर से देखना – यही बैंक की और जीवन की असली सफलता है।”
शकुंतला देवी की कहानी हमें याद दिलाती है कि बुजुर्ग और सादगी में भी अद्भुत बात छुपी है– असली ताकत, असली प्रतिष्ठा किसी पहनावे में नहीं, बल्कि सोचे, व्यवहार और मानस में होती है। इसलिए जीवन में कभी किसी को कमजोर, बेकार या कमतर मत आंकिए – क्योंकि जिंदगी की असली पहचान इरादों से होती है, नाम से नहीं।
अगर आपको ये कहानी प्रेरक व ज्ञानवर्धक लगी, तो इसे जरूर साझा करें और अपने जीवन में दूसरों की इज्जत करना, हर इंसान को बराबरी से मानना – यह अपनाएँ।
धन्यवाद!
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