समय की घड़ी: इज्जत, पहचान और इंसानियत की कहानी

दोपहर की धूप और एक नई शुरुआत

दोपहर की तेज़ धूप साउथ दिल्ली के एक आलीशान मार्केट की कांच की दीवारों से छनकर फर्श पर चौकोर पैटर्न बना रही थी। ऊँची-ऊँची इमारतें, संगमरमर की सीढ़ियाँ और बीचों-बीच एक चमचमाता वॉच शोरूम। अंदर हल्की सी महक, नरम संगीत और रोशनी में नहाए कांच के काउंटर, जिनमें घड़ियाँ ऐसे सजी थीं, मानो किसी शाही संग्रहालय की नाजुक निशानियाँ हों।

इसी दरवाजे से धीरे-धीरे एक बुजुर्ग ने कदम रखा। उम्र लगभग 75-80 साल, दुबला शरीर, लंबी साँसें लेकिन चाल में ठहराव। धोती-कुर्ता सादा, धुला हुआ मगर पुराना। पैरों में घिसे हुए सैंडल और हाथ में एक छोटा सा कपड़े का थैला जिसमें शायद दवा की पर्ची, एक पुराना चश्मा और एक तय किया हुआ अखबार रखा था। आँखों में चमक थी—जिज्ञासा की, अपनत्व की, जैसे किसी पुराने दोस्त से मिलने आए हों।

कांच के भीतर लगी एक स्टील ग्रेड डायल पर उनकी नजर ठिटक गई। घड़ी की बारीक सुइयाँ, नन्हें-नन्हें इंडेक्स, किनारे की महीन पॉलिश—वह इसे देखकर मुस्कुरा दिए। सुइयाँ जैसे उनके भीतर के किसी भूले अध्याय की ओर इशारा कर रही थीं।

पहला अपमान

उन्होंने काउंटर के पास जाकर धीमे से पूछा, “बेटा, इसे जरा पास से देख सकता हूँ?”
काउंटर पर खड़ा सेल्समैन, लगभग 24-25 साल का, चमकदार जैकेट पहने, पहले तो बुजुर्ग को ऊपर से नीचे तक देखता रहा। फिर होठों पर तिरछी हंसी आई।
“सर, यह रेंज आपके लिए नहीं है। बाहर स्ट्रीट में छोटे स्टॉल हैं, वहीं से देख लीजिएगा। यहाँ की घड़ियाँ काफी ऊपर की चीज़ हैं,” उसने कहा।

पास ही दो ग्राहक खड़े थे—एक युवक और उसकी मित्र। दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा और धीमी हंसी फूट पड़ी। शोरूम के भीतर बैठी एक महिला ने मोबाइल का कैमरा ऑन किया, उसकी आँखों में व्यंग्य साफ था।

बुजुर्ग कुछ पल चुप रहे। उनकी उंगलियाँ काउंटर की चिकनाई पर रुक-रुक कर चलने लगीं। मानो कांच की ठंडक में भी कोई पुरानी गर्मी तलाश रहे हों। उन्होंने बहुत विनम्रता से कहा, “बस करीब से देख लूंगा, बेटा। समय पढ़ने का ढंग बदल गया है क्या?”

सेल्समैन अब खुलकर मुस्कुराया, लेकिन मुस्कान में खारापन था।
“सर, समय पढ़ना सबको आता है, लेकिन इस समय तक पहुँचना हर किसी के बस की बात नहीं।”

सुपरवाइजर का हस्तक्षेप

अंदर केबिन से सुपरवाइजर बाहर आया। सुथरा सूट, चुस्त चाल। उसने सेल्समैन की बात सुनी और बिना किसी संकोच के जोड़ दिया, “प्लीज सर, आप बाहर रेस्ट एरिया में बैठिए। यहाँ भीड़ हो जाएगी।”

उसकी आवाज में औपचारिक विनम्रता थी, मगर शब्दों का चयन अपमान से भी तेज़ चुभ रहा था। बुजुर्ग ने एक क्षण के लिए उस घड़ी को फिर देखा जिसे आँखों में समेट लेना चाहते थे। फिर धीमे से सर हिला दिया, “ठीक है। समय सामने हो और छूने ना दिया जाए, यह भी तो एक तरह का समय ही है।”

वे पलटे, थैला थोड़ा खिसका, कंधा झुक गया। दरवाजे की ओर चलते हुए उनकी पीठ कुछ और झुक गई। जैसे शोरूम की रोशनी के बीच से गुजरते-गुजरते कोई परछाई लंबी हो गई हो।

भीड़ के ताने और बुजुर्ग की मुस्कान

ग्लास डोर के पास पहुँचते ही पीछे से फिर एक फुसफुसाहट आई, “आजकल हर कोई अंदर चला आता है। दिवाली में डिस्काउंट पूछने आए होंगे। इन्हें बताओ यह घड़ियाँ ईएमआई पर भी नहीं मिलती।” और फिर कुछ बुझे-बुझे ठहाके।

पर बाहर निकलते वक्त बुजुर्ग के होठों पर वैसी हंसी नहीं थी जो हार कर आती है, बल्कि वैसी जो ठहराव से जन्म लेती है। आँखें जरूर भीग आई थीं, पर नमाज की तरह खामोश।

एक छोटा सा सम्मान

शोरूम के बाहर पोर्टिको के स्तंभों के बीच हवा जरा तेज़ चल रही थी। गमलों में लगे पौधे पत्ते हिला रहे थे। बुजुर्ग ने अपने थैले से रुमाल निकाला, धीरे-धीरे आँखें पछी। पास के सिक्योरिटी बॉय का बच्चा—इंटर्न, लगभग 19-20 का, हिचकते हुए करीब आया। उसने कॉर्नर में खड़ी पानी की बोतल आगे की, “अंकल, पानी?” उसकी आँखों में झक के साथ आदर था।

बुजुर्ग ने कृतज्ञता से देखा, “धन्यवाद, बेटा।”
उन्होंने घूंट लिया। दूर आसमान की तरफ देखा। बादल का हल्का टुकड़ा रोशनी को ढकता-खोलता रहा। जैसे समय की एक पतली परत आँखों के सामने आती जाती हो।

“तुम्हें घड़ियाँ पसंद हैं?” बुजुर्ग ने पूछा।

लड़के ने सिर हिलाया, “बहुत, पर बस देख सकता हूँ।”
बुजुर्ग ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “देखना भी एक शुरुआत है। कभी-कभी देखने का सलीका ही इंसान को बहुत ऊपर पहुँचा देता है।”

शोरूम के भीतर की बातें

भीतर सेल्समैन काउंटर पॉलिश कर रहा था। सुपरवाइजर टैबलेट पर दिन की बिक्री गिन रहा था। दोनों ने नाम लिए बिना घटना को एक मजाक की तरह याद किया, “अजीब लोग हैं।”

लेकिन उनकी बातों के बीच कांच की दीवार पर बुजुर्ग का धुंधला सा प्रतिबिंब फिर भी उभर आता। जैसे रोशनी भी कभी-कभी अपमान को दर्ज कर लेती है।

शाम ढलने लगी। शोरूम में नई खेप आई, घड़ियाँ सजाई जाने लगीं। वही स्टील ग्रेड डायल जिस पर बुजुर्ग की नजर ठिटकी थी, अब केंद्र की ऊँची शेल्फ पर चमक रही थी। और बाहर फुटपाथ पर रखी बेंच पर बैठा वह वृद्ध दोनों हथेलियों से थैले को सहलाते हुए जैसे किसी अदृश्य समय रेखा को छू रहा था।

असली पहचान और समय का खेल

उस रात शोरूम समय पर बंद हुआ। दुकान की लाइटें बारी-बारी से बुझी। सड़क पर ट्रैफिक का शोर गूंजता रहा। लेकिन रोशनी बुझने से पहले अंदर जो आखिरी चीज चमकी, वो थी वही घड़ी। मानो किसी अगले सुबह का संकेत दे रही हो। एक ऐसी सुबह जब समय सिर्फ डायल पर नहीं, चेहरों पर लिखा जाएगा।

बुजुर्ग उठे, थैला कंधे पर डाला और धीरे-धीरे चलते हुए गली के मोड़ पर खो गए। पीछे छूट गया एक सवाल, “क्या समय सच में सबका एक सा होता है?” और एक हल्का सा वादा, “कल फिर मिलेंगे।”

अगली सुबह: असली चेहरा

सुबह की धूप शोरूम के कांच से छनकर भीतर बिखर रही थी। सेल्समैन अपनी टाई ठीक करता हुआ नए कलेक्शन की घड़ियाँ सजा रहा था। सुपरवाइजर बारीकी से लिस्ट देख रहा था। कल की घटना उनके लिए बस एक मजाक भर थी, जैसे किसी ने शोरूम के शाही माहौल को कुछ देर के लिए गंदा कर दिया हो।

आजकल तो हर दूसरा आदमी अंदर आ जाता है। सेल्समैन हँसते हुए बोला। सुपरवाइजर ने भी व्यंग्य से जोड़ा, “अच्छा हुआ, हमने उसे जल्दी बाहर निकाल दिया। वरना ग्राहक भाग जाते।”

लेकिन इस बातचीत के बीच उनके चेहरे पर एक हल्की सी बेचैनी थी। क्योंकि जब उन्होंने उस बुजुर्ग को जाते हुए देखा था, उसकी आँखों की खामोशी में कुछ ऐसा था जो अब भी पीछा नहीं छोड़ रही थी।

बुजुर्ग का असली रूप

दूसरी तरफ शहर की सड़कों पर हलचल थी। भीड़, ट्रैफिक और चाय की दुकानों का शोर। उसी भीड़ से अलग वही बुजुर्ग एक साधारण घर के सामने खड़े थे। लोहे का पुराना गेट, बाहर रखी मोटरसाइकिल पर धूल और आँगन में केले, तुलसी के पौधे। वे अंदर गए और दरवाजा बंद होते ही कमरे की खामोशी में उनकी असली पहचान झलक उठी।

थैले से उन्होंने एक डायरी निकाली। मोटे अक्षरों में लिखा था—”वर्मा ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज”। पन्ने पलटते ही बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स, होटल्स और कंपनियों की सूची सामने आई। वही व्यक्ति जिसे कल भिखारी समझकर बाहर निकाला गया था, शहर का सबसे बड़ा उद्योगपति था।

उन्होंने आईने में अपनी शक्ल देखी—धोती, कुर्ता, झुर्रियों से भरा चेहरा और धीरे से मुस्कुराए। “समय बदलता है, लेकिन सबक वही रहता है।”

समय का पलटाव: शोरूम में वापसी

शाम ढल रही थी। शोरूम में ग्राहकों की भीड़ बढ़ रही थी। कुछ विदेशी पर्यटक, कुछ अमीर व्यापारी और कुछ कॉलेज के छात्र सब अपनी-अपनी जेब और शौकत के हिसाब से घड़ियाँ देख रहे थे। सेल्समैन ग्राहकों के बीच गर्व से घूम रहा था।

तभी बाहर से एक तेज गड़गड़ाहट सुनाई दी। आसमान में हेलीकॉप्टर की आवाज गूंजी। लोग रुक कर ऊपर देखने लगे। पास खड़ी महंगी गाड़ियाँ अचानक सरक गईं और एक लंबा काफिला शोरूम के सामने आकर रुका।

भीड़ के कानों में फुसफुसाहट दौड़ गई, “कौन आ रहा है? लगता है कोई बड़ा अधिकारी है।”
दरवाजे की तरफ सबकी नजरें टिक गईं और तभी वही बुजुर्ग, इस बार काले सूट, चमचमाते जूते और नीली टाई में हेलीकॉप्टर से उतरते दिखाई दिए। उनके साथ सुरक्षाकर्मी और एक सहायक था, हाथ में फाइलें और मोबाइल पकड़े हुए।

शोरूम के कर्मचारियों के चेहरे सफेद पड़ गए।
सेल्समैन का मुँह खुला का खुला रह गया।
सुपरवाइजर की टाँगे काँपने लगीं।
कल जिनको उन्होंने गरीब और भिखारी कहकर अपमानित किया था, वही शख्स आज पूरे शहर के सामने एक शाही अंदाज में लौटे थे।

इंसाफ का पल

बुजुर्ग ने दरवाजा पार करते ही चारों तरफ देखा। उनकी निगाह सीधे उस सेल्समैन पर टिकी, जिसने कल उन्हें बाहर धक्का देकर अपमानित किया था। उन्होंने धीमी लेकिन दृढ़ आवाज में कहा, “कल तुमने कहा था यह घड़ियाँ मेरे लिए नहीं हैं। आज मैं देखने नहीं आया, खरीदने आया हूँ।”

कमरे में सन्नाटा छा गया।
उन्होंने अपना हाथ उठाकर कहा, “पूरी कलेक्शन पैक कर दो।”
शोरूम में सन्नाटा गूंज रहा था। कोई हँसी नहीं, कोई आवाज नहीं। बस घड़ियों की हल्की सी टिक-टिक पूरे माहौल में और डर बढ़ा रही थी।

सेल्समैन का चेहरा पीला पड़ चुका था। उसकी आँखों में पछतावा और डर दोनों साफ झलक रहे थे।
सुपरवाइजर ने धीरे से फुसफुसाते हुए कहा, “सर, माफ कर दीजिए, हमें पता नहीं था आप कौन हैं।”
बुजुर्ग ने हल्की मुस्कान दी, लेकिन आँखों की कठोरता वैसे ही रही, “पता नहीं था या जानबूझकर देखा ही नहीं। इंसान की पहचान उसके कपड़ों से नहीं, उसके बर्ताव से होती है। तुम लोगों ने कल सिर्फ मेरी गरीबी देखी, इंसानियत नहीं।”

भीड़ में खड़े लोग शर्मिंदा हो उठे।
कल जो ग्राहक हँसे थे, आज वही मोबाइल निकालकर वीडियो बना रहे थे। लेकिन इस बार मजाक उड़ाने के लिए नहीं, बल्कि इस सच्चाई को दुनिया तक पहुँचाने के लिए।

सच्चाई का उजागर होना

शोरूम मैनेजर घबराते हुए सामने आया। सूट पहने, हाथ में फाइलें लिए मगर पसीने से तर-बतर। उसने काँपते हुए कहा, “सर, यह स्टाफ की गलती थी। आपको जो कष्ट हुआ हम दिल से क्षमा प्रार्थी हैं।”

बुजुर्ग ने धीरे से मेज पर रखी घड़ियों की तरफ इशारा किया और कहा, “मैं यह सब खरीद रहा हूँ ताकि तुम सबको याद रहे—घड़ी सिर्फ समय नहीं दिखाती, यह भी दिखाती है कि किस वक्त किसका असली चेहरा सामने आता है।”

फिर बुजुर्ग ने अपना असली परिचय सबके सामने रखा, “मेरा नाम राजनाथ प्रसाद है। इस शहर में चल रहे कई उद्योग, होटल और व्यापार मैंने खड़े किए हैं। यह शोरूम भी उसी चैन का हिस्सा है। मैं कल यहाँ इसलिए आया था, ताकि देख सकूं कि एक साधारण इंसान को यहाँ कैसा बर्ताव मिलता है।”

अंतिम सबक और इंसानियत की जीत

सेल्समैन अब लगभग रो पड़ा। हाथ जोड़कर बोला, “सर, मुझे माफ कर दीजिए। मुझसे भूल हो गई। मैं शर्मिंदा हूँ।”
राजनाथ प्रसाद ने शांत स्वर में कहा, “गलती इंसान से होती है, लेकिन घमंड वह इंसान को इंसान नहीं रहने देता। तुमने मुझे धक्का देकर बाहर निकाला, मगर याद रखना—धक्का कभी कपड़ों को नहीं लगता, वो दिल को लगता है।”

भीड़ में खड़े एक छोटे बच्चे ने मासूमियत से कहा, “दादाजी, अब वह आपको कभी नहीं निकालेंगे ना?”
राजनाथ प्रसाद ने बच्चे की ओर देखकर हल्की मुस्कान दी, “नहीं बेटा, अब शायद यह लोग समझ गए हैं कि गरीब दिखने वाला हर आदमी गरीब नहीं होता।”

मैनेजर झुकते हुए बोला, “सर, कृपया कोई सजा मत दीजिए। हम सुधार करेंगे।”
राजनाथ प्रसाद ने एक पल सोचा और फिर भीड़ के सामने बोले, “सजा जरूरी है, मगर इंसाफ के साथ। कल जिस सेल्समैन ने मुझे अपमानित किया, उसे आज से यहाँ काम करने का अधिकार नहीं। और जिस युवा ने मुझे सम्मान दिया, वह आगे बढ़ेगा।”

पूरे शोरूम में लोग तालियाँ बजाने लगे। सोशल मीडिया पर लाइव वीडियो अब वायरल हो चुका था।
मैनेजर और सेल्समैन के चेहरों पर शर्म का रंग गहरा हो गया। वहीं राजनाथ प्रसाद के चेहरे पर सुकून झलक रहा था। जैसे समय ने अपने आप सबक सिखा दिया।

कहानी का संदेश

इज्जत और इंसानियत कपड़ों, पैसे या ओहदे से नहीं, बर्ताव से मिलती है।
समय सबका एक सा नहीं होता, लेकिन हर समय एक नया सबक देता है।
अपमान किसी का भी हो, वह लौटकर इंसानियत की जीत में बदल सकता है।
जो दूसरों को छोटा समझते हैं, कभी-कभी उन्हीं से सबसे बड़ा सबक सीखते हैं।