सरपंच के लड़के ने गरीब घर की लड़की को गांव के बीच चौराहे पर किया बेइज्जत फिर जो हुआ उसे जरूर देखें
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“इज्जत का मोल”
भूमिका
नरगिसपुर नामक एक सामान्य-सी बस्ती थी, जहाँ मिट्टी के तले खेत थे, छोटे-छोटे घर, और गाँव की चौपाल में बहस होती थी कि किसकी इनायत ज्यादा भारी है। यहाँ लोग दिन भर खेतों में पसीना बहाते, शाम को चौपाल में घुलते और रात को तारे गिनते सोते। पर इस गाँव में एक ऐसी घटना घटी जिसने पूरे इलाके की सोच को कलम-सा झकझोर दिया। यह कहानी है उस गरीब घर की लड़की परी की, जिसे गाँव के सरपंच के लड़के आदित्य ने गाँव के बीच चौराहे पर बेइज्जती से पेश आया था, और फिर जो हुआ, उसने सबको सिखा दिया कि इज्जत बिकाऊ नहीं, क़ानून की माप से तौलने वाली चीज है।
अध्याय 1: गाँव का माहौल और परी का परिवार
नरगिसपुर ग्राम मंडल के अंतर्गत आने वाला एक छोटा सा गाँव था। यहाँ फैली थी अमीरी और गरीबी की दो अलग-अलग चमक। सरपंच का परिवार—बड़ा, ठाठ-बाट, वाह-वाही—वहीं दूसरी ओर गरीब परिवारों की कतार लगी थी, जो रोज़ी-रोटी के लिए खेतों में हाथ बंटाते थे या गाँव के मंडी में मज़ूरी करते।
परी का जन्म इसी गाँव के एक अनाथ आश्रित केंद्र में हुआ था। उसकी माँ का देहांत परी के जन्म के कुछ सप्ताह बाद ही हो गया, और पिता—रवि—एक दिन खेत में काम करते हुए दुर्घटना का शिकार हो कर एक पैर से लंगड़ा हो गया। तब से रवि और परी की ज़िम्मेदारी गाँव के एक दया याचक चक्रव्यूह में उलझ गई थी।

रवि सब्ज़ी बेचने का काम करता था। सुबह तीन बजे उठ कर मंडी से सब्ज़ियाँ लाता, चकड़े पर रखता और सब्ज़ी ठेला लेकर गाँव-आसपास घूमता। परी स्कूल भी पढ़ती थी—उसकी आँखों में शिक्षा का जुनून था। सुबह खेत से लौट कर स्कूल, दोपहर को घर आ कर मदद, शाम को फिर पढ़ाई। इठलाती किशोरी परी पर गाँव के कुछ लोग हँसते—“गरीबों की तो पहचान मिट्टी से है!” पर परी ने कभी न झुके, क्योंकि उस क्षीण-सी मुस्कान में उजास का दीप जलता था।
अध्याय 2: आदित्य—सरपंच का घमंडी बेटा
गाँव का सरपंच, रजत चौहान, क्षेत्र में सबसे ज़्यादा ज़मीनदार था। उसकी बेटी के साथ-साथ एक बेटा भी था—आदित्य। आदित्य पढ़ाई में अच्छा था, पर घमंड ने उसकी प्रतिभा को कुंद कर दिया था। बड़े-बड़े जूतों से खेतों में पैरों तले उँगलियाँ तोल लेता, मोटरसाइकिल से गाँव की गली-गली चक्कर लगाता और जिसको चाहे उसकी इज़्ज़त हवा में उड़ाता।
जिस दिन आदित्य ने सरकारी स्कूल से मैट्रिक पास किया, गाँव में खाने-पीने का आयोजन हुआ। उस रात्रि उसने घोषित किया, “अब मैं सरपंच का बेटा हूँ—जिसके सामने माँ बाप, बापू, बाप कहीं टिकेंगे!” उस रात से आदित्य की आवाज़ गाँव में गूँजने लगी—“मैं वो हूँ जो बना सकता हूँ और बिगाड़ सकता हूँ। गरीबों को बस झुकना आता है।”
लेकिन दिल का कौन मालिकी करता है? परी जैसी मासूम, पर दृढ़ निश्चयी लड़की पर आदित्य की निगाह पड़ी, तो लगा कोई नया शिकार मिल गया।
अध्याय 3: घटना का दिन
एक सर्द सुबह थी। धुंध ने गाँव के खेतों को देख कर उनकी नाज़ुक हँसी छीन ली थी। रवि ने धीरे से चकड़े पर टोकरियाँ रखीं—मटर, गोभी, गाजर, टमाटर—और परी को भेजा, “बेटा, सब्ज़ी बेच आओ, ख़ुद मैं अभी आता हूँ।”
परी अपना सादा लोअर-कमीज़ पहन कर बैंड मिली, हाथ में गल्ले का बैग और चेहरा ज़रा थका हुआ, मगर इरादे अटल। चौक से कुछ कदम दूर खड़ी वह, कब तक बैग सहेजे खड़ी रहे? उसने इधर-उधर देखा और सब्ज़ी बिकाने की मुद्रा अख्तियार की।
इसी बीच गूँजी मोटरसाइकिल की गड्डगड्डाहट—आदित्य आ रहा था। उसने देखा परी को, और झकझोर गया कि गाँव की सियासत की मरम्मत करने वाली कोई मैडम पब्लिक बस नहीं, सब्ज़ी की आढ़त लगा रही है। झै से ब्रेक मारा, मोटरसाइकिल को बीच सड़क रोका और चिल्लाया,
“तू कौन होती है? यहाँ खड़ी क्यों है?”
परी ने नजदीक आकर नम्रता से बोली, “साब्ज़ियाँ बेच रही हूँ, प्याज़ के भाव—₹15 किलो, टमाटर ₹20।”
घमंडी आवाज़ में आदित्य बोला, “मुझसे बात करने की हिम्मत कैसी हुई? मैं सरपंच का बेटा हूँ—यह गाँव मेरा साम्राज्य है!”
परी ने आँखे चौंक कर उससे कहा, “आप सरपंच के बेटे हैं, मालिकों का बेटा—पर कौन आपको दूसरों से ऊपर उठाता है?”
आदित्य का रंग तो गया था—हँसी में तिरस्कार था। उसने विवाद बढ़ाया, जबरन हाथ पकड़ कर कन्धे से धक्का दिया और जोर से कहा, “मैं बता रहा हूँ—यहाँ से भाग, बेइज्जत हूंगी तो समझ जाना!”
परी चुप रही, गर्मी सी उठ रही थी, मगर आँखों ने हिसाब मांगा—“आदित्य, मैं अपने पिता की इज़्ज़त ले कर ही घर जाऊँगी।”
आदित्य को लगा दाँव पर हारने वाला वह है। एक जोरदार धक्का और परी जमीन पर गिर पड़ी। बैग बिखरा, सब्ज़ी चारों तरफ बिखरी।
गाँव की कुछ महिलाएँ देखती रह गईं, चिड़ियाएँ संभल गईं। आदित्य गरजे, “किसी ने कुछ दिखा तो मा’बाप की इज़्ज़त मिट्टी में दिखा दूँगा!”
परी को आंसू नहीं आए, पर धौंस आंखों से झलक रही थी। उसकी जुबान पर एक ईंट कस गई—“आप अमीर हो सकते हैं, पर अमीरपन से इज़्ज़त नहीं बिकती।”
उस क्षण गाँव में दहशत फैल गई—यह कोई मामूली विवाद नहीं, सरपंच के बेटा आम लड़की को सड़क पर बेइज्जती कर रहा है!
अध्याय 4: रवि का गुस्सा और प्राथमिकी की धमक
कुछ ही मिनटों में रवि दौड़ता आया। उसने देखा बेटी जमीन पर, चारों ओर लाल मिर्ची-मिट्टी की तरह बिखरी सब्ज़ियाँ। उसको देख कर मन उचट गया, आँखों में लौटी करुणा गुस्से में बदल गई।
“तूने ये क्या किया, औकात भूल गया?” रवि रोते हुए गुंडागर्दी पर चिल्लाया।
आदित्य ने माना नहीं। उसने रवि को भी चटाई-सा धक्का देकर कहा, “बाप किसी काम का नहीं, सिर्फ रोते-धोते रहता होगा। कोतरो!”
रवि संभल कर खड़ा हुआ, अब आँखों में आग! उसने नज़दीक के चाचा-पोता को बुलाया, और गवाह समझा। फिर उठा मोबाइल, पुलिस को फ़ोन मिलाया—शिकायत दर्ज करने की तैयारी।
गाँव वालों ने देखा—गरीबों के पास तो शिकायत का हौसला भी नहीं होता, पर रवि ने हिम्मत दिखाई। पुलिस थाने से इंस्पेक्टर कुलदीप आए, गाँव का माजरा सुना, आदित्य सरपंच का बेटा है यह बात भी जानी।
अखबार लिखे, खबर फैलती गई—“सरपंच का बेटा ने की बेइज्जती, आम लड़की ने दर्ज कराई FIR।”
अध्याय 5: थाने में बहस और दबाव
थाने में धूप-सी अजीब खामोशी थी। इंस्पेक्टर कुलदीप सामने, रवि परी के साथ। दूसरी ओर सरपंच रजत चौहान और बेटा आदित्य बैठे।
रजत चौहान ने तंज कसा, “इंस्पेक्टर साहब, यह सब झूठा आरोप है। मेरा बेटा मज़ाक कर रहा था, कोई बेइज्जती नहीं हुई।”
पुलिसवालों का मन था—सरपंच का नाम सुन कर दाँव कुछ अटक गया। पर रवि ने साहस दिखाया, “ये वही हिम्मत दिखाता है जो मेरी बेटी के साथ किया! आप देखिए कैमरा, गवाह, बैग, सब्ज़ियाँ बिखरी हैं।”
इंस्पेक्टर ने रिपोर्ट ली, धक्के-डक्के का आभास लगा। सरपंच को ठंडा पटा—“हम मामले को सुलझाएंगे, थाने में क्यों उठाएँ?”
रवि ठहरे निर्धन—उसके पास पैसे नहीं, दबाव नहीं, पर प्रेम था बेटी से। उसने कहा, “सुलह नहीं होगी, सच्चाई सामने आएगी। आतंक से डरने वाला नहीं।”
अंततः थाने में प्राथमिकी दर्ज हुई—यौन उत्पीड़न और थर्ड डिग्री हर्जाने की धाराएँ। गाँव चौंका, सरपंच की प्रतिष्ठा डगमगा गई।
अध्याय 6: गाँव में दो धड़ों का बँटवारा
घटना सार्वजनिक होते ही गाँव में दो खेमे बन गए—एक, जो सरपंच और आदित्य को बचाना चाहता था; दूसरा, जो गरीबों के साथ खड़ा था।
कुछ बुज़ुर्ग बोले—“बेटा, जात-पाँत की बात मत करो, जो गलत था, वही गलत।”
कुछ युवा बोले—“सरपंच परिवार का दबदबा है, हमें नहीं भिड़ना।”
स्कूल में टीचर मोहन लाल ने कक्षा में बताया—“कानून सबके लिए बराबर है। आप में से किसी ने देखा हो, बताओ।”
छात्र-छात्राओं ने प्रोत्साहन पाकर ग्राम पंचायत भवन पहुंचे और अपनी दलीलें पेश कीं। महिलाओं के दल ने फिर से जमा होकर बेटी की पीठ थपथपाई और कहा, “परी, हम सब तेरे साथ हैं।”
सरपंच का समर्थन घटता गया, दबाव बढ़ता गया। गाँव की इज्जत की चादर पर अब धब्बे दिखने लगे—“क्या हुआ, सरपंच घर में?”
अध्याय 7: वकील और कानूनी लड़ाई
रवि के पास वकील तक के पैसे नहीं थे, पर गाँव के एक स्थानीय समाजसेवी अग्नि मिश्रा ने मदद दी। अग्नि ने पैरवी ठोकी—“कानून किसी की गुलामी नहीं करता।”
अग्नि मिश्रा गाँव-गाँव जाकर समर्थन जुटाया। उन्होंने बैंक से लेन-देन करके मुकदमे के खर्चे जमा किए। परीक्षा में टॉप करने वाले यंग एडवोकेट रवीन्द्र साझी ने पैरवी ज़िम्मे उठाई।
मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई—फिर दर-दर अदालतों का सिलसिला: प्रथम श्रेणी न्यायालय, अपीलीय अदालत, सबूत, गवाह बयान। रविन्द्र ने अदालत में गावँ के किसानों-कामगारों के बयान जारी किए, मेडिकल रिपोर्ट पेश की, और आदित्य की हठधर्मिता के वीडियो फुटेज दिखाए।
प्रत्येक सुनवाई में दूसरा पक्ष—सरपंच के वकील—जोर-शोर से तर्क करता, दबाव बनाता, घोटाले की गाथाएँ सुनाता। पर रविन्द्र बाज नहीं आया।
अध्याय 8: समाज का बदलता रूप
मुकदमे के दौरान गाँव के छिपे चेहरे बहार आए। वाहियात टिप्पणियाँ करने वाले कुछ लोग अब धीरे-धीरे अपनी गलती समझ कर सिरे से दूरी बनाने लगे। महिलाएँ ख़ामोशी से पीड़िता के साथ खड़ी रहीं।
स्कूल के बच्चों ने ‘इज्ज़त रक्षा अभियान’ शुरू किया—हर दोपहर फुटपाथ पर पर्चे चिपकाए, “हर लड़की की इज्ज़त हमारी इज्ज़त।”
गाँव से लगे दूसरे गाँवों में से एक युवा संगठन आया—“न्याय रक्सा दल”—उन्होंने संकट में पड़ रही परी के लिए झंडे और नारों से समर्थन जताया।
सरपंच साहब की शोहरत मद्धम होती गई। उनकी रसोई में सिर पकवानों में स्वाद फीका रहा, जब तक अदालत का अंतिम फैसला नहीं आया, दर्द गांव की मिट्टी में चढ़ा रहा।
अध्याय 9: न्याय की घंटी
अदालत ने अन्ततः फैसला सुनाया—आदित्य दोषी, जुर्माना और एक वर्ष की सश्रम कारावास की सजा। साथ ही सरपंच को भी तड़क-भड़क के विरोधाभास के लिए नोटिस, आर्थिक जाँच और चार साल के लिए कार्यालय निष्कासित।

फैसला आने के बाद गाँव में सन्नाटा था—जो खामोशी थी, संतोष की थी, कि सच ने पन्नों में जीत दर्ज की। रवि ने बेटी को गले से लगाया। परी ने आँसू भरी खुशी से कहा, “पापा, हमने सबको दिखा दिया कि गरीब की इज्ज़त भी अमूल्य होती है।”
सरपंच साहब मँडप की बेंच पर बैठे, भयभीत चेहरा, सोचते कि उनका पुत्र ही नहीं, बलात्कार की औरतों का आत्मसम्मान भी गिरा सकता था।
अध्याय 10: नए सवेरे की धूप
सजा का समय घटता गया, गाँव ने बदलाव देखे—कानून के प्रति सम्मान बढ़ा, अमीर-गरीब की दीवार थोड़ी-सी टूटने लगी।
परी ने न सिर्फ न्याय जीता, बल्कि आत्म-विश्वास पाया। उसने स्कूल फतेह कर उच्च शिक्षा के लिए शहर जाने की ठानी। रवि की मेहनत से मिली आर्थिक स्थिति सुधरी, अग्नि मिश्रा सहायता कर गया।
स्कूल में गर्ल्स क्लब का गठन हुआ—‘इज्ज़त के प्रहरी’। जहां बेटी की इज़्ज़त के मोल का पाठ पढ़ाया गया।
गाँव के चौपाल में अब केवल गाँवदारी की बातें नहीं होतीं, वहाँ न्याय, सम्मान, और बराबरी की चर्चा होती है।
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