बेघर बने अरबपति को सबने दुत्कारा, सिर्फ एक लॉटरी बेचने वाली लड़की ने उसे अपनी रोटी खिलाई।

एक रोटी का कर्ज – राजीव मेहरा और प्रिया की कहानी

अध्याय 1: पतन की शुरुआत

कहते हैं तकदीर को बदलने में वक्त नहीं लगता, पर राजीव मेहरा के लिए वक्त जैसे ठहर गया था। कभी इस शहर की आसमान छूती इमारतों पर सुनहरे अक्षरों में लिखा जाने वाला नाम, 500 करोड़ की सल्तनत का मालिक, जिसकी एक आहट पर मैनेजर्स कांप जाते थे और गाड़ी रुकते ही दरवाजे खोलने वालों की होड़ लग जाती थी – आज वही राजीव बारिश और कीचड़ में सना, फटे कपड़ों में मंदिर की सीढ़ियों पर कांप रहा था।

उसे बेघर हुए तीन महीने हो चुके थे। उसका अपना बेटा विक्रम, जिसे उसने अपने हाथों से व्यापार सिखाया था, उसी ने एक जाली वसीयत और फर्जी घोटालों के कागजात पर दस्तखत करवाकर उसे उसकी ही कंपनी से बाहर फेंक दिया था।
“पापा, अब आपकी उम्र आराम करने की है,” विक्रम ने मुस्कुराते हुए कहा था, जबकि उसकी आंखों में सत्ता की हवस साफ झलक रही थी।
राजीव की पत्नी, जो हमेशा हीरे और शान-शौकत की भूखी थी, उसने भी बेटे का ही साथ दिया। एक ही झटके में अरबपति राजीव सड़क पर आ गया।

कुछ दिन उसे लगा यह कोई बुरा सपना है। वह चीखा-चिल्लाया, पुराने दोस्तों को फोन करने की कोशिश की। लेकिन जिसके पास पैसा नहीं उसकी आवाज कौन सुनता है? उसका घमंड, उसका रुतबा सब उस कीचड़ में मिल गया जिसमें वह आज पड़ा था।

अध्याय 2: मंदिर की सीढ़ियों पर एक रोटी

दो दिन से उसके हलक से पानी की एक बूंद तक नहीं उतरी थी। भूख से पेट में ऐंठन हो रही थी। लोग आते-जाते उसे घिनौना समझकर दुत्कारते, कोई भिखारी कहता तो कोई लात मारने का इशारा करता।
वह आदमी, जो कभी लाखों का दान देता था, आज एक रोटी के लिए तरस रहा था।

तभी उसकी नजर उस पर पड़ी – प्रिया, 18-20 साल की लड़की, जो मंदिर के सामने छोटे से स्टूल पर लॉटरी के टिकट बेच रही थी। बारिश से बचने के लिए उसने अपने सिर पर फटा प्लास्टिक तान रखा था। उसका धंधा भी मंदा था। वह खुद अपनी किस्मत बेच रही थी, जो शायद उसके पास खुद नहीं थी।
राजीव उसे रोज देखता था। वह लड़की खुद भूखी लगती थी, पर मंदिर के बाहर बैठे हर कुत्ते को अपनी आधी रोटी जरूर खिलाती थी।

आज जब बारिश तेज हुई और राजीव भूख से लगभग बेहोश होने लगा, तो प्रिया की नजर उस पर पड़ी। उसने देखा कि यह बाबा दो दिन से एक ही जगह पर है और बुरी तरह कांप रहा है। वह अपनी जगह से उठी, छोटे टिफिन में मां की दी दो सूखी रोटियां और अचार था।
वह राजीव के पास आई। राजीव ने घिन और शक से आंखें उठाई, लगा भगाने आई है।
प्रिया ने टिफिन खोला, एक रोटी निकाली और राजीव के फैले गंदे हाथ पर रख दी।
“यह ले लो बाबा,” उसकी आवाज में दया थी, मजबूरी नहीं।

राजीव की आंखें फटी रह गईं। जिस बेटे को उसने अरबों दिए, उसने उसे दुत्कारा और यह लड़की, जो खुद दिन के ₹100 नहीं कमाती, उसे अपनी रोटी दे रही थी। दशकों बाद राजीव मेहरा की आंखों से आंसू बह निकले।
वह जानता नहीं था कि यह एक रोटी उसकी जिंदगी का सबसे महंगा और कीमती सबक बनने वाली थी।

अध्याय 3: इंसानियत का स्वाद

राजीव का हाथ कांप रहा था – उस हाथ ने करोड़ों के चेक साइन किए थे, महंगी घड़ियां पहनी थी, दुनिया के बड़े-बड़े लोगों से हाथ मिलाया था। आज वही हाथ एक सूखी रोटी पकड़ने में कांप रहा था। भूख इतनी ज्यादा थी कि वह रोटी पर टूटना चाहता था, लेकिन बचा-खुचा स्वाभिमान रोक रहा था।

प्रिया ने उसकी झिझक देखी। वह वहीं उसके पास बारिश से गीली सीढ़ियों पर बैठ गई। अपने छोटे बैग से पानी की बोतल निकाली और राजीव की तरफ बढ़ा दी।
“पानी पी लो बाबा, अटक जाएगी।”

राजीव ने हैरानी से प्रिया को देखा। यह लड़की उससे घिन नहीं कर रही थी। वह उसके फटे मैले कपड़ों और बढ़ी हुई दाढ़ी के पार देख रही थी। वह उसे एक इंसान के तौर पर देख रही थी।
पिछले तीन महीनों में यह पहली बार हुआ था।

राजीव ने कांपते हाथों से रोटी का एक टुकड़ा तोड़ा। जैसे ही पहला निवाला गले से नीचे उतरा, उसकी आंखें फिर भर आईं। यह सिर्फ अनाज नहीं था, यह किसी की दया, किसी की इंसानियत का सबूत था। वह जानवर की तरह नहीं, बल्कि धीरे-धीरे खाने लगा, हर निवाले का स्वाद लेते हुए।

“तुम्हारा नाम क्या है?”
राजीव की आवाज जो कभी बोर्डरूम में गूंजती थी, आज फटी और दबी हुई थी।
“प्रिया,” उसने सहजता से जवाब दिया।
“और आप? आप तो यहां के नहीं लगते।”
राजीव क्या कहता? “मैं कोई नहीं हूं, बस एक बदनसीब आदमी।”

अध्याय 4: उम्मीद की रोटी

प्रिया ने उसकी बात को टाला नहीं, बस एक गहरी सांस ली।
“बदनसीब तो मैं भी हूं बाबा। दिन भर में ₹100 की लॉटरी बिक जाए तो बड़ी बात है। मेरी मां कहती हैं – किस्मत टिकट में नहीं, कर्म में होती है। आज नहीं तो कल अच्छा वक्त आएगा।”

उसी पल मंदिर के सामने वाली सड़क पर ट्रैफिक सिग्नल पर एक चमचमाती काली Mercedes रुकी। राजीव की नजर उस पर पड़ी – वीआईपी नंबर प्लेट 777, यह उसकी गाड़ी थी। अंदर विक्रम बैठा था, किसी दोस्त के साथ हंस रहा था।
उसने एक पल के लिए भी मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे भिखारियों की तरफ नहीं देखा। सिग्नल हरा हुआ और गाड़ी रफ्तार से आगे बढ़ गई।

राजीव का कलेजा मुंह को आ गया। उसका बेटा, उसका खून, उससे कुछ ही गज की दूरी पर था, लेकिन दोनों के बीच एक पूरी दुनिया का फासला था। एक तरफ वह, जो उसे पहचान भी नहीं सका, और दूसरी तरफ यह अनजान लड़की, जो उसे अपनी रोटी खिला रही थी।

कड़वाहट ने उसके दिल को जकड़ लिया। उसने रोटी का आखिरी टुकड़ा मुंह में डाला। यह अब सिर्फ रोटी नहीं थी, यह एक प्रण बन गई थी।

प्रिया उठी, “चलो बाबा, मेरा जाने का वक्त हो गया। मां राह देख रही होगी।”
राजीव ने उसे देखा, “यह रोटी… तुम्हारा एहसान।”
प्रिया मुस्कुराई, “एहसान कैसा बाबा? भूख किसी को भी लग सकती है। कल अगर मैं भूखी हुई तो क्या पता आप मुझे खिला दें?”

अध्याय 5: नई सुबह – उम्मीद बेचने का हुनर

राजीव मेहरा ने तय कर लिया – वह मरेगा नहीं, इस हाल में नहीं रहेगा। वह वापस लड़ेगा, लेकिन इस बार पैसे के लिए नहीं, बल्कि प्रिया जैसी अच्छाई को यह बताने के लिए कि दुनिया अभी खत्म नहीं हुई है।

अगली सुबह वह प्रिया के आने से पहले ही मंदिर की सीढ़ियों पर पहुंच गया। अब वह भिखारी नहीं, इंतजार करने वाला शख्स बन गया था।
जैसे ही प्रिया ने अपना स्टूल लगाया, राजीव को देखकर मुस्कुराई, “आज यहां हो बाबा, तबीयत ठीक है?”

राजीव ने सिर हिलाया। आज वह कुछ मांगने नहीं आया था, आज वह कुछ देने आया था – हालांकि उसके पास देने को कुछ नहीं था। वह चुपचाप बैठकर प्रिया को काम करते हुए देखने लगा। पूरा दिन वहीं बैठा रहा। उसने देखा कि प्रिया सिर्फ अपने स्टूल पर बैठी रहती थी, लोग आते-जाते, कोई ध्यान नहीं देता था। शाम तक मुश्किल से ₹50 कमाए थे।

शाम को जब प्रिया जाने लगी, राजीव ने आखिरकार अपनी खामोशी तोड़ी, “तुम यह गलत तरीके से कर रही हो।”

प्रिया रुकी, लगा बाबा भीख मांग रहे हैं। उसने बिस्किट का पैकेट निकाला, “ये लो बाबा, आज बिक्री अच्छी नहीं हुई।”
राजीव ने हाथ नहीं बढ़ाया, “मैं भीख नहीं मांग रहा, मैं तुम्हारे काम के बारे में कह रहा था।”

“तुम लॉटरी बेच रही हो, तुम किस्मत नहीं, उम्मीद बेच रही हो। जो आदमी अपनी महंगी गाड़ी में बैठा है, वह भी दुखी हो सकता है। उसे उम्मीद चाहिए। जो बाइक पर जा रहा है, उसे अमीर बनने की उम्मीद चाहिए। तुम कोने में बैठकर उम्मीद कैसे बेच सकती हो?”

प्रिया देखती रह गई। इस आदमी की आंखों में एक अजीब सी चमक थी – भिखारियों वाली लाचारी नहीं, किसी माहिर खिलाड़ी वाली समझ।

“जब सिग्नल लाल हो, तब गाड़ियों के बीच जाओ। स्टूल पर मत बैठो। लोगों की आंखों में देखो। उनसे कहो, ‘क्या पता आज आपकी किस्मत खुल जाए?’ लोगों को सामान नहीं, सपना बेचो।”

यह वही राजीव मेहरा था जिसने जमीन बेचकर लोगों को आसमान के सपने बेचे थे। हर इंसान की कीमत उसकी जरूरत नहीं, उसकी उम्मीद तय करती है।

प्रिया सोचती रही, बाबा की बातों में वजन था। “कल कोशिश करूंगी,” उसने कहा और चली गई।

अध्याय 6: बदलाव की शुरुआत

अगली सुबह प्रिया के मन में बाबा की बातें गूंज रही थीं। उसने मंदिर के कोने में स्टूल नहीं लगाया। सारे लॉटरी टिकट झोले में रखे, पानी की बोतल ली और सिग्नल की ओर चल पड़ी।
पहले 15 मिनट नर्क जैसे थे – गाड़ियों का धुआं, ड्राइवरों की घूरती आंखें, हॉर्न का शोर। वह हर लाल बत्ती पर कांपते हुए आगे बढ़ती।
“टिकट ले लो, साहब,” आवाज धुएं में दब जाती। लोग भगा देते, शीशे चढ़ा लेते।

लगभग हार मानकर वापस मंदिर की सीढ़ियों पर जाने ही वाली थी, तभी बाबा का चेहरा याद आया।

अगली लाल बत्ती पर बड़ी सी Audi रुकी। अंदर बिजनेसमैन जैसा आदमी फोन पर चिल्ला रहा था।
प्रिया हिम्मत करके शीशे के पास गई, हल्के से खटखटाया।
“क्या है? छुट्टे नहीं है, जाओ यहां से।”
प्रिया डरी नहीं, “साहब, छुट्टे नहीं चाहिए, बस यह कहना चाहती हूं – क्या पता आज आपकी किस्मत खुल जाए।”

आदमी एक पल के लिए रुक गया। उसे प्रिया की आंखों में भीख नहीं, पेशकश दिखी।
“हम, कितने का है?”
“₹10 का एक, सब पर आप 100 का बंडल लीजिए। क्या पता?”
“ठीक है, यह लो,” उसने 500 का नोट निकाला, “छुट्टे तुम ही रख लो।”

प्रिया के हाथ कांप गए। ₹500 एक झटके में। सिग्नल हरा हुआ, गाड़ी चली गई। लेकिन प्रिया वहीं खड़ी रह गई – बाबा सही थे।

उस दिन प्रिया रुकी नहीं। उसका डर आत्मविश्वास में बदल गया। अब वह “टिकट ले लो” नहीं, हर शीशे पर जाकर कहती, “आज का दिन आपका हो सकता है, उम्मीद पर दुनिया कायम है।” वह सिर्फ लॉटरी नहीं, 2 मिनट की खुशी, सपना बेच रही थी।

शाम को जब वह मंदिर के पास आई, झोला खाली था। सारे टिकट बिक चुके थे – कमाई ₹800, आठ दिन की कमाई के बराबर। वह भागती हुई बाबा के पास आई, “बाबा, सारे बिक गए! आपने सही कहा था।”

उसने ₹100 का नोट राजीव के हाथ में रखने की कोशिश की, “यह आपका हिस्सा है। आपकी सलाह के बिना यह नहीं होता।”

राजीव मेहरा महीनों बाद हल्के से मुस्कुराए, पैसे लेने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया। “ये तुम्हारी मेहनत है, मेरी सलाह नहीं। अगर सच में मेरी मदद करना चाहती हो तो कल इन पैसों से मेरे लिए एक चीज ला सकती हो – बिजनेस टाइम्स का नया अखबार।”

प्रिया हैरान रह गई। बेघर फटेहाल आदमी, बिजनेस का अखबार क्यों मांग रहा था?

अध्याय 7: सच का खुलासा

अगली सुबह प्रिया जल्दी उठी। बाबा के लिए अखबार, दो वड़ा पाव और चाय लेकर आई।
बस स्टॉप पहुंची, राजीव वहीं बेंच पर बैठे थे। आज उनकी भंगिमा अलग थी – सो नहीं रहे थे, इंतजार कर रहे थे।

“बाबा, ये लो,” प्रिया ने वड़ा पाव और चाय बढ़ाई।
राजीव ने खाना नहीं लिया, नजरें सीधे अखबार पर टिकी थी।
“अखबार,” उन्होंने लगभग आदेश देते हुए कहा।
प्रिया ने बिजनेस टाइम्स थमा दिया। राजीव ने खाना नजरअंदाज कर दिया, अखबार को ऐसे झपट्टा मारकर खोला जैसे भूखा शेर अपने शिकार पर झपटता है।

बाबा की उंगलियां तेजी से पन्नों पर दौड़ रही थी। वह सिर्फ देख नहीं रहे थे, पढ़ रहे थे। उनकी आंखों में आग थी, एक विश्लेषक की पैनी नजर थी।
स्टॉक मार्केट वाले पन्ने पर रुक गए, कुछ देर तक आंकड़ों को घूरते रहे।
“बेवकूफ, फार्मा स्टॉक बेच रहा है। विक्रम, तुमने सब बर्बाद कर दिया। यह डील मैंने 6 महीने की मेहनत से खड़ी की थी और इस गधे ने कौड़ियों के भाव बेच दिया।”

प्रिया कांप गई, “विक्रम को जानते हैं?”
राजीव ने अखबार की मुड़ी तुड़ी गेंद को जमीन पर फेंक दिया।
फिर बोले, “वह गद्दे का बाप मैं हूं। मेरा नाम राजीव मेहरा है।”
प्रिया के पैरों तले जमीन खिसक गई।

राजीव ने जमीन पर पड़ा अखबार उठाया, विक्रम की तस्वीर के नीचे मेहरा ग्रुप के लोगो पर अपनी गंदी उंगली रखी, “यह मैंने बनाया था। अपने हाथों से। मेरे बेटे ने मुझसे सिर्फ कंपनी नहीं छीनी, मेरा नाम छीन लिया। मुझे कोई नहीं बना दिया।”

प्रिया जड़वत खड़ी थी। उसके हाथ से वड़ा पाव का लिफाफा गिर गया। वह किसी भिखारी की नहीं, इस शहर के सबसे बड़े अरबपति की मदद कर रही थी।

अध्याय 8: वापसी की जंग

“मुझे तुम्हारी मदद चाहिए,” राजीव बोले।
“मैं क्या कर सकती हूं?”
“मेहरा ग्रुप की पुरानी फैक्ट्री जो शहर के बाहर है, वहां तुम्हें जाना होगा। वहां तुम्हें एक आदमी मिलेगा – घनश्याम मिश्रा, मेरा पुराना अकाउंटेंट। विक्रम ने उसे फैक्ट्री का इंचार्ज बना दिया।”

राजीव ने फटी जेब से एक छोटा सा मुड़ा-तुड़ा कागज निकाला, जली लकड़ी से एक नंबर लिखा। “यह मिश्रा जी का पुराना नंबर है। अगर काम करे तो कहना – ‘पुराना बाज अभी जख्मी है, पर उसने उड़ना नहीं छोड़ा है।’ अगर फोन ना लगे, फैक्ट्री जाना, किसी भी तरह मिलना। यह कागज देना।”

प्रिया ने वह कागज देखा – सिर्फ कागज नहीं, एक चिंगारी थी। अमीरों का खतरनाक खेल, इसमें उसकी जान भी जा सकती थी।
“मैं करूंगी,” प्रिया ने कहा। उसकी आवाज में डर था, पर उससे ज्यादा सम्मान था।

अध्याय 9: वफादारी की जीत

प्रिया ने अपनी जमा पूंजी फैक्ट्री तक पहुंचने में खर्च कर दी। वीराने में खड़ी इमारत, राजीव के साम्राज्य के पतन की गवाही दे रही थी। डरते-डरते चौकीदार को चकमा देकर अंदर पहुंची।
जैसा राजीव ने बताया था, घनश्याम मिश्रा छोटे केबिन में मिले – बुझे हुए दिए जैसे।
“क्या चाहिए?”
“मैं किसी का पैगाम लाई हूं,” प्रिया ने कोयले से लिखा कागज मेज पर रखा।

मिश्रा ने पढ़ा, “यह क्या मजाक है?”
प्रिया ने राजीव के शब्द दोहराए, “पुराना बाज अभी जख्मी है, पर उसने उड़ना नहीं छोड़ा है।”

मिश्रा के हाथ वहीं जम गए। ऐनक उतारी, पहली बार प्रिया को घूर कर देखा। उनकी आंखों में अविश्वास, हैरानी, फिर वफादारी की चमक जागी – यह उनका और राजीव साहब का कोड था।

“साहब कहां है?”
“मंदिर की सीढ़ियों पर।”

मिश्रा उठ खड़े हुए, “विक्रम बेवकूफ है। बाज अपने अंडे कभी एक टोकरी में नहीं रखता।”

मिश्रा प्रिया को पुराने सीलबंद कमरे में ले गए, फाइलों का ढेर था।
“साहब ने सबसे बड़ी सब्सिडियरी कंपनी के गोल्डन शेयर्स मेरे नाम पर एक ट्रस्ट में रखे थे। वसीयत जाली हो सकती है, पर ट्रस्ट डीड असली है। अगर कंपनी का मूल हित खतरे में हो, ट्रस्ट सारे वोटिंग अधिकार वापस ले सकता है।”

राजीव का अखबार मांगना अब समझ में आया। विक्रम का फार्मा डील को बेचना – मूल हित खतरे में डालना था।

अध्याय 10: तख्ता पलट

मिश्रा ने प्रिया को सुरक्षित वापस भेजा। रात को राजीव से मिली। दो वफादार, जो सड़क पर थे, अब एक हो गए।
अगले हफ्तों में मेहरा ग्रुप के बोर्डरूम में भूचाल आ गया। मिश्रा ने ट्रस्ट डीड और विक्रम के खिलाफ सबूत पेश किए। राजीव मेहरा साफ कपड़ों में भले ही कमजोर, लेकिन टूटे नहीं।
आखिरी मीटिंग में खुद पेश हुए, बेटे की आंखों में देखा। विक्रम का तख्ता पलट हो गया। कानूनी जांच शुरू हुई, जाली वसीयत का पर्दाफाश हुआ। विक्रम और उसकी मां को कंपनी से बेदखल कर दिया गया।

अध्याय 11: एक रोटी का ब्याज

छह महीने बाद वही मंदिर की सीढ़ियां – नजारा अलग था। एक नई चमकदार गाड़ी आकर रुकी। राजीव मेहरा बाहर निकले – अब अरबपति नहीं, संतुष्ट इंसान लग रहे थे।
प्रिया वहां थी, अब लॉटरी नहीं बेच रही थी। मंदिर के पास “प्रिया की रसोई” नाम का स्टॉल था, जहां हर रोज सैकड़ों गरीबों को मुफ्त खाना मिलता था। यह राजीव मेहरा की तरफ से उस एक रोटी का ब्याज था।

राजीव ने प्रिया के सिर पर हाथ रखा, “तुमने मुझे उस दिन रोटी खिलाकर खरीद लिया था बेटी।”
प्रिया मुस्कुरा दी।

तभी राजीव की नजर सीढ़ियों के कोने पर पड़ी – फटे कपड़ों में चेहरा छिपाए बैठा भीख मांग रहा था, लोग दुत्कार रहे थे। वह विक्रम मेहरा था।

राजीव ने देखा, एक लंबी सांस ली, अपनी जेब से 100 का नोट निकालकर प्रिया को दिया, “जाओ, उसे दे दो। कहो, भूख किसी को भी लग सकती है।”

अंतिम संदेश और सीख

कर्म की चक्की बहुत धीरे चलती है, लेकिन जब पीसती है तो बहुत बारीक पीसती है।

राजीव मेहरा ने सीखा – असली ताकत, असली दौलत इंसानियत है।
प्रिया ने सीखा – उम्मीद बेचने से बड़ी कोई दौलत नहीं।
विक्रम ने सीखा – जिस रोटी को कभी ठुकराया, वही भूख सबसे बड़ी सजा है।

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जय हिंद।