इंसानियत की मिसाल – इमरान और जस्टिस वर्मा की कहानी
शाम का ट्रैफिक अपने चरम पर था। सड़कों पर गाड़ियों की भीड़, हॉर्न की आवाज़ें, बसों के पीछे भागते लोग – हर कोई अपनी रफ्तार में था। उसी भीड़ में फुटपाथ पर एक बुज़ुर्ग आदमी औंधे मुंह पड़ा था। उनके कपड़े धूल से सने थे, माथे से हल्का सा खून बह रहा था और दाहिना हाथ काँपते हुए हवा में उठा हुआ था – जैसे किसी अदृश्य सहारे को टटोल रहे हों।
उन्होंने दो-तीन बार बोलने की कोशिश की, मगर आवाज़ गले में ही अटक गई।
लोग उन्हें देखते थे, लेकिन कोई रुकता नहीं था। किसी ने धीरे से कहा – “नशे में होगा।”
एक ने मोबाइल कैमरा ऑन किया, थोड़ा वीडियो बनाया, फिर जेब में डाल लिया – “लेट ऑफिस पहुँचूं पहले।”
दो लड़के कंधे उचकाते हुए निकल गए – “पंगा क्यों लें? पुलिस केस हो जाएगा।”
हर गुजरते मिनट के साथ बुज़ुर्ग की साँसें धीमी होती जा रही थीं।
आँखों का सफेदपन फैल रहा था, हाथ काँपता और फिर गिर पड़ता।
शहर की रफ्तार बेपरवाह थी, जैसे एक आदमी का गिरना रोज़ की भीड़ का मामूली सा हिस्सा हो।
इसी बीच, लाल रंग की पुरानी रिक्शा लेकर एक दुबला-पतला रिक्शा वाला पास से गुजरा।
उम्र लगभग 30-32, नाम था इमरान।
दिनभर की थकान उसके चेहरे पर साफ दिख रही थी।
टी-शर्ट पसीने से भीगी थी और कंधे पर रस्सी से बंधा छोटा सा थैला था, जिसमें रात की रोटी और कुछ बची सब्ज़ी थी।
वह रोज़ इसी रास्ते से निकलता था, पर आज उसकी नज़र उस बुज़ुर्ग के काँपते हाथ पर अटक गई।
रिक्शा थोड़ा आगे निकल चुका था।
इमरान ने उसे रोक कर पीछे मुड़ने का फैसला किया।
कुछ सेकंड के लिए सोचा – अभी घर पहुँचना है, दवा भी लेनी है।
अगर पुलिस का चक्कर पड़ गया तो मुश्किल हो जाएगी।
मगर सामने सड़क पर पड़े उस वृद्ध के सूखे चेहरे और आँखों ने उसकी हिचक तोड़ दी।
इमरान ने रिक्शा मोड़ा, फुटपाथ के किनारे लाकर खड़ा किया।
वह झुककर बोला – “बाबा, सुन पा रहे हैं?”
बुज़ुर्ग की पलकें फड़फड़ाईं, होठों पर एक शब्द ठहरा – “पानी…”
इमरान ने अपनी बोतल निकाली, ढक्कन खोला और सावधानी से उनके होठों तक पहुँचाया।
दो घूंट पानी अंदर गया, एक बाहर गिर गया, मगर आँखों में हल्की सी रोशनी लौट आई।

भीड़ की आवाज़ फिर गूंजी – “मत छू भाई, केस बन जाएगा। एंबुलेंस बुला दे, हाथ मत लगा।”
इमरान ने फोन पर 108 डायल किया।
कॉल कनेक्ट होने में वक्त लगा।
ऑपरेटर ने लोकेशन पूछी – “5 से 10 मिनट में पहुँचेंगे।”
इमरान ने बुज़ुर्ग की कलाई पकड़ी, नाड़ी तेज नहीं थी, मगर चल रही थी।
उसने गहरी साँस ली – “10 मिनट भी बहुत होते हैं।”
पीछे से किसी ने झल्लाकर कहा – “भाई, तुम हटा लो रिक्शा, ट्रैफिक जाम हो रहा है।”
इमरान ने पलटकर देखा, फिर धीरे से बुज़ुर्ग को सहारा दिया – “बाबा, मैं उठाता हूँ, थोड़ा दर्द होगा।”
वह अकेले दम से उठा नहीं पाता।
पास खड़े दो लड़के जो पहले मना कर चुके थे, अब अपराधबोध में हाथ बढ़ा चुके थे।
तीनों ने मिलकर बुज़ुर्ग को रिक्शा की गद्दी पर लिटाया।
इमरान ने माथे का पसीना पोंछा और पैडल पर पैर रख दिया।
नजदीक का सरकारी अस्पताल 15 मिनट दूर था।
रिक्शा शहर की नसों से भी तेज़ चल पड़ा।
बसें बाएं, कारें दाएं, और इमरान बीच की साँस में।
वह कभी हॉर्न की आवाज़ सुनता, कभी पीछे पलटकर बाबा की साँस देखता।
उसने कुर्ते की जेब से रुमाल निकाला, बुज़ुर्ग के माथे का खून धीमा हुआ।
हवा ने धूल उड़ाई और रात के खाने की रोटी जो थैले में रखी थी, उसकी याद अचानक बेवकूफ सी लगी।
आज का एक ही काम था – इस जान को अस्पताल तक पहुँचाना।
अस्पताल के फाटक पर उसने ब्रेक मारी।
गेट के ऊपर बोर्ड पर नीली ट्यूबलाइट टिमटिमा रही थी।
इमरान ने गार्ड को पुकारा – “वृद्ध हैं, चोट लगी है, अंदर ले चलिए।”
गार्ड ने फाइल देखते हुए नाक सिकोड़ ली – “पहले इमरजेंसी में नाम, पता, पुलिस एंट्री, स्ट्रेचर बाद में।”
इमरान ने बात काट दी – “नाम-पता बाद में, साँस अभी टूट गई तो?”
गार्ड ने कंधे उचकाए, अस्पताल की सीढ़ियों की ओर इशारा किया।
इमरान ने रिक्शा वहीं लॉक किया।
अपनी पूरी ताकत से बुज़ुर्ग को कंधे पर ताना – एक हाथ उनकी पीठ के नीचे, दूसरा घुटनों के पास, और सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।
अंदर इमरजेंसी वार्ड के बाहर दो नर्सें फॉर्म पर झुकी थीं।
इमरान हाँफते हुए बोला – “मैडम, प्लीज़ बिस्तर दीजिए, यह मेरे नहीं, किसी के बाबा हैं। बस साँस संभाल लीजिए।”
एक नर्स ने थरथराती नज़र से बुज़ुर्ग का चेहरा देखा – “सीटी रूम खाली नहीं, डॉक्टर राउंड पर हैं, पहले डिटेल्स…”
इमरान की आँखें लाल हो गईं – “डिटेल्स बाद में लिख लो, अब अगर देरी हुई तो यह मर जाएँगे।”
उसकी आवाज़ में दहशत थी, मगर विनती भी।
उसने जेब से मुड़ी पर्ची निकाली – “देखो, इतना कैश है मेरे पास, जो लगे काट लेना, मैं रोज़ देता रहूँगा, बस अभी बिस्तर।”
वार्ड के भीतर से एक अटेंडेंट ने झाँका, दृश्य समझा – “स्ट्रेचर!”
दो सेकंड में पहिए वाला स्ट्रेचर बाहर आया।
इमरान ने सावधानी से बुज़ुर्ग को उतारा और नर्सों की मदद से उन्हें अंदर धकेला।
दरवाजा बंद होने लगा।
इमरान बाहर काँच से टिककर खड़ा हो गया – साँस लंबी, आँखें गीली।
पहली बार उसने सोचा – “कौन होंगे ये?”
कुर्ते की जेब में शायद कोई पहचान, कोई पुराना कार्ड।
उसने बाहर बैठे गार्ड को इशारे से पुकारा – “देख लें, शायद नाम मिल जाए।”
गार्ड ने अनमने से जेब टटोली, एक पुराना घिसा हुआ कार्ड निकला।
ऊपर छोटे अक्षरों में श्री…
इमरान पढ़ने की कोशिश कर ही रहा था कि अस्पताल के बाहर से तेज़ सायरन गूंजा।
लाल-नीली बत्तियाँ दीवारों पर दौड़ गईं।
मुख्य फाटक पर पुलिस की जीपें आकर रुकीं।
दो अधिकारी तेज़ कदमों से अंदर की तरफ बढ़े।
इमरान चौंका – इतनी जल्दी पुलिस किसलिए?
इमरजेंसी का दरवाजा आधा खुला।
अंदर से डॉक्टर की आवाज़ आई – “बीपी गिर रहा है, ऑक्सीजन बढ़ाओ।”
इमरान के पैर वहीं जड़ हो गए।
बाहर पुलिस की वर्दियाँ, अंदर मशीनों की बीप और उसके बीच खड़ा वह एक रिक्शा वाला, जिसके पास साहस था, पैसे नहीं।
काँच से झरता सफेद उजाला इमरान के चेहरे पर पड़ा।
उसने धीरे से फुसफुसाया – “अल्लाह, बस इनकी साँस बचा ले।”
इमरान अभी भी इमरजेंसी वार्ड के बाहर खड़ा था।
आँखों के सामने काँच की खिड़की के पीछे डॉक्टर और नर्सें बुज़ुर्ग के चारों ओर भागदौड़ कर रही थीं।
मशीनें बीप-बीप कर रही थीं और ऑक्सीजन मास्क उनके चेहरे पर कसकर लगाया जा चुका था।
बाहर गार्ड और स्टाफ एक-दूसरे से कानाफूसी कर रहे थे।
तभी पुलिस की जीप से एक ऊँचे कद का इंस्पेक्टर उतरा।
उसके चेहरे पर तनाव साफ था।
वह सीधे रिसेप्शन पर पहुँचा और तेज़ आवाज़ में बोला –
“अभी-अभी खबर आई है कि शहर के रिटायर्ड जज जस्टिस रमेश प्रसाद वर्मा कहीं गायब थे और उनकी खोजबीन चल रही थी। क्या कोई बुज़ुर्ग व्यक्ति यहाँ लाया गया है?”
रिसेप्शनिस्ट ने हड़बड़ाकर कहा – “जी हाँ, थोड़ी देर पहले एक रिक्शा वाले ने एक बुज़ुर्ग को इमरजेंसी में भर्ती करवाया है।”
इंस्पेक्टर के चेहरे का रंग बदल गया।
उसने गार्ड की तरफ देखा – “वो रिक्शा वाला कहाँ है?”
भीड़ ने इमरान की ओर इशारा किया।
इमरान घबरा गया।
मगर इंस्पेक्टर उसकी ओर बढ़ा और अचानक सैल्यूट कर दिया –
“तुमने वह काम किया है जो कई बड़े लोग करने से डरते हैं। अगर तुम समय पर इन्हें यहाँ नहीं लाते, तो आज शहर एक महान शख्सियत को खो देता।”
भीड़ जो अब तक इमरान को सिर्फ एक गरीब रिक्शा वाला समझ रही थी, एकदम सन्न रह गई।
अभी तक जो लोग हँस रहे थे, अब अपराधबोध से सर झुकाने लगे।
इमरजेंसी का दरवाजा खुला।
डॉक्टर बाहर आया, माथे पर पसीना था लेकिन चेहरे पर थोड़ी राहत भी –
“फिलहाल खतरा टल गया है। मरीज को स्थिर कर दिया गया है। लेकिन अगले 24 घंटे बहुत अहम होंगे।”
इमरान की आँखें नम हो गईं।
उसने चुपचाप आसमान की ओर देखा, जैसे कोई भारी बोझ उतर गया हो।
भीड़ में से कोई फुसफुसाया – “यह वही हैं ना जिन्होंने कभी शहर की सबसे बड़ी अदालत में इंसाफ दिया था?”
दूसरा बोला – “हाँ, मैंने सुना था इन्हें बहुत ईमानदार और सख्त माना जाता था।”
तीसरा धीरे से बोला – “सोचो, हम जैसे लोग इन्हें नशेड़ी या भिखारी समझकर छोड़ रहे थे।”
इमरान ने धीरे से कहा – “मैंने तो इन्हें किसी के अब्बा जैसा ही समझा था।”
उसकी आवाज़ में कोई घमंड नहीं था, बस इंसानियत की सादगी थी।
इंस्पेक्टर ने सबके सामने कहा –
“शहर की पुलिस इनके परिवार को सूचित कर चुकी है। और तुम,” उसने इमरान की ओर देखा,
“आज से हमारे लिए सिर्फ एक रिक्शा वाला नहीं, बल्कि इंसानियत का सच्चा सिपाही हो।”
इमरजेंसी के दरवाजे पर अब भीड़ जमा थी, लेकिन माहौल बदल चुका था।
वही लोग जो थोड़ी देर पहले तमाशा देखकर निकल गए थे, अब पछतावे में खड़े थे।
एक बुज़ुर्ग महिला ने इमरान से कहा – “बेटा, तेरा दिल बहुत बड़ा है। तुझे सलाम।”
इमरान ने बस सिर झुका लिया।
वार्ड के अंदर से जब नर्स ने इशारा किया कि मरीज अब होश में आने लगे हैं, तो पूरा अस्पताल एक पल के लिए थम गया।
हर कोई देखना चाहता था उस इंसान को जो कभी अदालत में न्याय की आवाज़ था और आज सड़क पर गिरा मिला।
इमरान धीरे-धीरे दरवाजे के पास आया और काँच से देखा।
जस्टिस वर्मा की पलकों ने हल्की हरकत की।
होंठ सूखे थे, मगर आँखों में धीमी चमक लौट रही थी।
उन्होंने धीरे से इधर-उधर नज़र दौड़ाई और उनकी आँखें दरवाजे के उस रिक्शा वाले पर आकर टिक गईं।
इमरान का दिल ज़ोर से धड़का।
उसने हाथ जोड़कर सलाम किया।
वर्मा की आँखें भर आईं, जैसे बिना बोले कह रहे हों – “तुमने मुझे नया जीवन दिया।”
भीड़ फिर से कानाफूसी करने लगी।
पर इस बार कोई हँस नहीं रहा था।
हर चेहरा गंभीर था, हर आँख में सवाल –
क्या हम इतने पत्थर हो गए हैं कि इंसानियत दिखाने के लिए अब हमें एक रिक्शा वाले से सीखना पड़ रहा है?
अस्पताल का सन्नाटा गाढ़ा हो गया।
बाहर बारिश शुरू हो चुकी थी।
बूंदें काँच से फिसल रही थीं।
और उस रात मुंबई के भीड़भाड़ वाले इस अस्पताल में इंसानियत ने खुद को साबित किया था –
एक थके हुए रिक्शा वाले की साँसों के साथ।
अस्पताल की गलियारे में अब भीड़ जमा थी।
पुलिसकर्मी व्यवस्था बनाने की कोशिश कर रहे थे।
तभी बाहर से एक काली गाड़ी रुकी।
उसमें से एक अधेड़ उम्र की महिला और एक युवक भागते हुए अंदर आए।
महिला की आँखें रो-रोकर लाल हो चुकी थीं।
वह सीधे डॉक्टर की ओर बढ़ी –
“डॉक्टर साहब, मेरे पति… वो ठीक तो हैं ना?”
डॉक्टर ने शांत स्वर में कहा –
“हाँ, अभी खतरे से बाहर हैं। लेकिन आप बहुत देर से आईं। अगर इस रिक्शा वाले ने इन्हें समय पर अस्पताल ना पहुँचाया होता, तो शायद इन्हें बचाना मुश्किल हो जाता।”
महिला की नजरें अचानक इमरान पर टिक गईं।
उसने तुरंत अपने आँचल से आँसू पोंछे और दोनों हाथ जोड़ दिए –
“बेटा, तूने हमें ज़िंदगी लौटा दी। मैं तेरी कर्जदार रहूँगी उम्र भर।”
इमरान घबरा गया।
उसने हाथ जोड़कर कहा –
“अम्मा जी, मैंने तो वही किया जो हर इंसान को करना चाहिए। मैंने उन्हें अपने अब्बा जैसा ही समझा।”
युवक, जो जस्टिस वर्मा का बेटा था, इमरान के पैरों की ओर झुक गया।
उसकी आवाज़ काँप रही थी –
“भाई, हम तो पिता को खो चुके समझ रहे थे। तूने उन्हें हमें लौटा दिया।”
भीड़ यह दृश्य देखकर चुप थी।
वे सब वही लोग थे जो चंद घंटे पहले सड़क किनारे पड़े उस बुज़ुर्ग को देखकर मुँह मोड़ गए थे।
अचानक मीडिया की गाड़ियों के सायरन गूंज उठे।
पत्रकार कैमरों और माइक लेकर अस्पताल की ओर दौड़े।
फ्लैशलाइट्स चमकने लगीं।
एक रिपोर्टर चिल्लाया –
“यह वही जस्टिस रमेश प्रसाद वर्मा हैं, जो तीन दशक तक अपनी ईमानदारी और फैसलों के लिए जाने जाते थे। कल से यह लापता थे और पुलिस इन्हें ढूंढ रही थी, और आज यह सड़क पर लहूलुहान मिले।”
दूसरा रिपोर्टर बोला –
“सोचिए, शहर का इतना बड़ा इंसान और लोग इन्हें पहचान तक ना सके। इंसानियत इतनी सस्ती हो गई है।”
सवाल हवा में तैर रहे थे और भीड़ झुकी नजरों के साथ खड़ी थी।
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