ससुर पर रोज़ चिल्लाती थी बहू, फिर अचानक ससुर के कदम से इंसानियत कांप गई
बहू और ससुर की कहानी – खामोशी की नींव
हरिशंकर जी 65 साल के हो चुके थे। उनका शरीर थोड़ा झुक गया था, लेकिन चेहरे पर एक शांत मुस्कान हमेशा रहती थी। एक साल पहले उनकी पत्नी का देहांत हो गया था। बेटा विवेक अब बड़ा हो गया था और एक अच्छी प्राइवेट कंपनी में काम करता था। दो साल पहले उसकी शादी प्रिया से हुई थी। प्रिया पढ़ी-लिखी, तेज-तर्रार और आत्मविश्वासी थी। उसकी बातें साफ और सोच में तेजी थी, लेकिन यही तेजी धीरे-धीरे घर की दीवारों में चुभने लगी थी।
प्रिया अक्सर कहती, “पापा जी कुछ नहीं करते, सारा दिन बस टीवी देखते रहते हैं। सास तो है नहीं, ससुर बस रिटायरमेंट के बाद फुल टाइम एंजॉय कर रहे हैं।”
घर में जब दोस्त आते, तो मजाक में बोल देती, “मेरी किस्मत ही खराब थी जो ऐसा ससुर मिला।”
सब हंसते, लेकिन हरिशंकर जी कुछ नहीं कहते। उनकी मुस्कान में शिकायत भी नहीं थी, सफाई भी नहीं थी – बस एक खामोशी थी। जैसे उन्हें पता हो कि अब उन्हें कोई समझने वाला नहीं।
हरिशंकर जी हर दिन अपने काम करते रहते, बिना बोले, बिना दिखाए। प्रिया को लगता – ये बस घर में हैं, कुछ खास नहीं करते।
सीसीटीवी कैमरा और नई नजर
एक दिन प्रिया की दोस्त घर आई। चाय पीते-पीते उसने कहा, “तुम ऑफिस जाती हो, बेटा स्कूल जाता है, पापा जी अकेले रहते हैं। कोई इमरजेंसी हो जाए तो?”
प्रिया ने जवाब दिया, “क्यों? कुछ करते थोड़ी हैं वो। वैसे भी हमेशा घर में रहते हैं।”
दोस्त ने सलाह दी, “एक कैमरा लगवा लो ना लिविंग रूम में। कम से कम कुछ हुआ तो देख तो सकते हो।”
प्रिया को बात प्रैक्टिकल लगी। दो दिन बाद ड्राइंग रूम में एक इंडोर सीसीटीवी कैमरा लग गया। हरिशंकर जी ने सवाल नहीं किया, बस देखा और चुप रह गए। अब प्रिया ऑफिस जाते हुए फोन से ऐप खोलकर कभी-कभी घर देखती।
शुरुआत में उसने नोटिस किया – पापा जी अकेले बैठे रहते हैं। एक दिन देखा, डिलीवरी वाला आया, पापा जी ने कार्ड से पेमेंट कर दिया। शाम को देखा, किचन में चीजें साफ रखी हैं, जूते भी धुले हैं। प्रिया ने मन में सोचा – शायद काम वाली आई होगी।
धीरे-धीरे ऐप उसकी आदत बनने लगी। प्रिया क्यूरियोसिटी में कैमरे के फुटेज देखने लगी। उसे अब तक यकीन नहीं हो रहा था – जिसे वह “कुछ नहीं करने वाला” समझती थी, वह बिना बोले सबकुछ कर रहा था।
सच्चाई की परतें
एक दिन सुबह जब वह ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रही थी, देखा – जूते चमक रहे हैं, बेटे का बैग पैक है, टिफिन तैयार है। मालती काम वाली तो छुट्टी पर थी। अब वह सच जानना चाहती थी। उसी रात उसने सीसीटीवी की रिकॉर्डिंग खोली। फास्ट फॉरवर्ड करते हुए देखा – सुबह 5:10 पर हरिशंकर जी उठते हैं, किचन में जाकर सिंक साफ करते हैं, दूध का बर्तन धोते हैं, अखबार ना मिले तो खुद लेने जाते हैं, बच्चे का यूनिफार्म झाड़ते हैं, फिर चाय बनाते हैं और खुद सबसे बाद में पीते हैं।
प्रिया की आंखें भर आईं। “मैंने जिन्हें बोझ समझा, वो तो इस घर की नींव हैं।”
लेकिन उसने अभी भी किसी से कुछ नहीं कहा। अंदर गिल्ट था, पर ईगो भी था। “हो सकता है यह सिर्फ एक दिन किया हो या दिखाने के लिए किया हो,” उसने खुद को बहलाया।
एक रात की सच्चाई
असली झटका एक ऐसी रात देगा जो सीसीटीवी में कैद थी, लेकिन कभी किसी ने देखा नहीं था।
उस रात बच्चे को नींद नहीं आ रही थी। रोता रहा, फिर थककर सो गया। प्रिया उठी, पानी लेने किचन आई। तभी देखा – ड्राइंग रूम की लाइट जल रही थी, जबकि सब सो चुके थे। प्रिया को कुछ अजीब सा लगा। उसने मोबाइल उठाया, सीसीटीवी ऐप खोला, कैमरा लाइव किया।
स्क्रीन पर दिखा – हरिशंकर जी अकेले सोफे पर बैठे हैं। हाथ में एक पुरानी फ्रेम की हुई फोटो है। उन्होंने चश्मा उतार दिया था। लाइट धीमी थी, लेकिन कैमरे की नाइट विज़न से शक्ल साफ दिख रही थी। वह फोटो को देख रहे थे, जैसे उसमें कोई जवाब ढूंढ रहे हों। उनकी आंखें गीली थीं और होंठ हिल रहे थे – बहुत धीमे, जैसे किसी को पुकार रहे हों।
प्रिया ने वॉल्यूम बढ़ाया। आवाज बहुत हल्की थी। लेकिन एक वाक्य जैसे सीधे दिल के आरपार चला गया –
“काश तुम होती, कोई तो होता समझने वाला…”
फिर एक लंबा सन्नाटा।
“सब कुछ करता हूं, लेकिन कोई पूछता ही नहीं। अब आदत हो गई है अनदेखा होने की।”
प्रिया के हाथ से मोबाइल गिरते-गिरते बचा। उसकी आंखें कांपने लगीं।
वो आदमी जिसे वह रोज बेकार, निकम्मा, कुछ काम का नहीं जैसे शब्दों से घायल करती रही – वो रात को खुद से लड़ रहा था, टूट रहा था और किसी दिवंगत को याद करके जिंदा रहने की वजह ढूंढ रहा था।
वो फोटो उनकी पत्नी की थी, यानी प्रिया की सास।
प्रिया ने कभी उन्हें याद नहीं किया था। उसने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि उनके जाने के बाद हरिशंकर जी कैसे जी रहे हैं। प्रिया ने कई बार उस फोटो को ड्राइंग रूम से हटाने की बात की थी – “यह पुरानी चीजें देखकर मूड खराब होता है, मॉडर्न डेकोर में सूट नहीं करती।”
अब वही फोटो उस कमरे की सबसे सच्ची चीज लग रही थी।
प्रिया बिना कुछ बोले चुपचाप सोने की कोशिश करती रही। लेकिन वह आवाजें कान में गूंजती रहीं।
अगला दिन – बदलाव की शुरुआत
सुबह प्रिया कुछ भी नहीं बोली। लेकिन नजरों में फर्क था। अब वह हरिशंकर जी की तरफ सीधे देखती थी। पापा जी रोज की तरह उठे, अखबार लिए, चाय बनाई। लेकिन आज थके हुए लग रहे थे। शायद रात की बातें उन्हें भी भारी लगी थीं।
प्रिया ने धीरे से कहा, “पापा जी, आज दूध मैं लाऊंगी।”
वो मुस्कुराए, “अरे, मैं ले आया। तुम ऑफिस के लिए तैयार हो जाओ।”
अब उसके पास कोई शब्द नहीं थे। वह हर बात के जवाब में उल्टा बोलती थी, लेकिन आज उसकी जुबान जवाब दे चुकी थी।
शाम को जब वह ऑफिस से लौटी, देखा – पापा जी फिर वही काम कर रहे हैं – दरवाजा खोलना, बच्चा संभालना, पानी का बर्तन भरना।
प्रिया अपने कमरे में गई और पहली बार सीधे सीसीटीवी की पुरानी रिकॉर्डिंग खोलकर दो हफ्ते पीछे चली गई। हर दिन, हर सुबह, हर दोपहर, हर शाम – एक ही आदमी हर छोटे-बड़े काम करता दिखा। ना कोई तारीफ, ना कोई शिकायत। बस खामोश जिम्मेदारी।
अब उसे एहसास हुआ – घर में जो चीजें अपने आप हो जाती थीं, दरअसल वह सब पापा जी की वजह से थी।
अब वह देखती थी – जब वह ऑफिस जाती, तो पापा जी उसके जूते ठीक से रखते थे। जब बच्चा स्कूल से आता, तो उसके बैग से गंदे टिफिन निकालकर धोते थे। जब सब सो जाते, तो वह चुपचाप बर्तन उठाकर रसोई में रखते थे।
माफी और बदलाव
एक रात प्रिया खुद किचन में चाय बना रही थी। हरिशंकर जी आए और बोले, “तुम क्यों बना रही हो? मैं बना देता हूं।”
प्रिया ने पहली बार जवाब दिया, “आज मुझे बनाने दो। कुछ तो मेरी भी आदत बदलनी चाहिए ना।”
हरिशंकर जी थोड़ी देर चुप रहे। फिर कहा, “बदलाव में देर नहीं होती बेटा, पर दिल से होनी चाहिए।”
अब उसकी आंखों में कठोरता नहीं थी। वहां सिर्फ अपराधबोध और अधूरी सी माफी थी। लेकिन वह अभी भी कुछ बोल नहीं पा रही थी। जुबान पर शब्द नहीं थे, आंखों में शर्म थी।
तो उसने फैसला किया – अब वो माफी अपने कामों से मांगेगी, शब्दों से नहीं।
अगले दिन सबसे पहले अपने बेटे को स्कूल तैयार करते वक्त कहा, “अपने दादाजी को थैंक यू बोलो। रोज तुम्हारा टिफिन वही पैक करते हैं।”
बेटे ने चौंक कर देखा।
“सच में?”
“सच में बेटा।”
एक दिन बेटे ने कहा, “मम्मा, दादाजी के जैसे बनना है। क्या मैं भी सुबह जल्दी उठूं?”
प्रिया ने उसे गोद में लिया, “बिल्कुल। लेकिन पहले उनके जैसे चुपचाप काम करना सीखो, बिना दिखाए, बिना थकान बताए।”
एक पल जब प्रिया फिर टूट गई
वह दिन था जब हरिशंकर जी की तबीयत थोड़ी बिगड़ गई। हल्का चक्कर आया था, उन्होंने खुद डॉक्टर को कॉल किया।
प्रिया जब ऑफिस से लौटी, तब उन्हें अस्पताल में सलाइन के साथ देखा।
“आपको कैसे पता चला?”
“इन्होंने खुद फोन किया। बोले बेटा और बहू ऑफिस में होंगे, परेशान मत करना। मैं पास के क्लीनिक में ही आ गया हूं।”
प्रिया वही कुर्सी पर बैठ गई और रो पड़ी।
एक आदमी जो घर चलाता है, वह अपनी तकलीफें भी खुद संभालता है ताकि किसी को परेशानी ना हो।
प्रिया ने पहली बार उनका हाथ पकड़कर कहा, “अब सब कुछ बदलेगा। पापा जी, अब आपकी तकलीफ हमसे बड़ी होगी क्योंकि आप इस घर से भी बड़े हैं।”
अतीत की गलती और आत्मग्लानि
अस्पताल से घर लौटने के बाद हरिशंकर जी थोड़े कमजोर जरूर थे, लेकिन चेहरे पर वही पुरानी मुस्कान थी जो अब प्रिया को हर रोज कुछ और गहराई से समझ आने लगी थी।
वो मुस्कान अब सिर्फ एक बुजुर्ग की नहीं थी, वो एक ऐसे इंसान की थी जो खुद को कहीं खो चुका था, लेकिन फिर भी सबके लिए बना रहा।
अब प्रिया हर बात में ध्यान देने लगी थी – पापा जी की दवा का टाइम, उनका पसंदीदा खाना, उनकी पुरानी किताबें, उनकी नींद का वक्त।
जब आप किसी को समझने लगते हैं, तो अतीत खुद-ब-खुद सामने आने लगता है।
प्रिया को एक पुराना दिन याद आया – लगभग छह महीने पहले की बात थी।
एक दोपहर उसकी सोने की अंगूठी गुम हो गई थी। काफी ढूंढने के बाद भी नहीं मिली।
प्रिया परेशान थी, लेकिन उस घबराहट में एक गलत बात कह गई थी –
“घर में और है ही कौन जो दिन भर यही रहता है।”
विवेक ने उसे रोकने की कोशिश की थी, “प्रिया क्या कह रही हो तुम?”
लेकिन प्रिया की आंखों में शक था।
उस दिन घर का माहौल अजीब हो गया था।
हरिशंकर जी ने कुछ नहीं कहा था। बस अपने कमरे में चले गए थे और अगले दो दिन बहुत चुप रहे।
तीसरे दिन प्रिया किचन में गैस के पास कुछ गिरा हुआ ढूंढ रही थी।
तभी स्लैब के नीचे से कुछ चमकता दिखा – वही अंगूठी थी।
प्रिया चौकी, अंगूठी उठाई, कुछ देर सोचा और अपने कमरे में चली गई।
उस दिन प्रिया को कुछ भी महसूस नहीं हुआ था, लेकिन आज जब वह सब याद आया तो उसकी रूह कांप गई।
“मैंने उस इंसान पर शक किया, जो हर रोज मेरे लिए अपनी जान तक कुर्बान करने को तैयार रहता है।”
पुरानी डायरी और भावनाओं का मिलन
उस रात उसने खुद से एक वादा किया – अब वह सिर्फ प्यार और सम्मान नहीं देगी, वो अपने पुराने हर घाव की मरहम खुद बनेगी और वह मरहम शब्दों से नहीं, कर्मों से लगाएगी।
अगले दिन प्रिया ने एक पुराना लकड़ी का बॉक्स निकाला। उसमें पापा जी की पुरानी चीजें थीं – घड़ी, पुराने खत, कुछ फोटो और एक डायरी।
प्रिया ने वह डायरी धीरे से पलटी। उसमें उनकी पत्नी द्वारा लिखे गए कुछ नोट्स थे।
एक पेज पर लिखा था –
“अगर कभी मैं ना रहूं, तो इन्हें अकेला मत छोड़ना। यह कहेंगे नहीं, पर हर चीज महसूस करते हैं।”
प्रिया ने वह पन्ना चुपचाप पापा जी के कमरे में रख दिया, उसी फोटो फ्रेम के नीचे।
दूसरे दिन जब पापा जी ने वह नोट पढ़ा, वह समझ गए कि किसने रखा है। उनकी आंखें नम हुईं, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा।
बस कमरे से निकलकर प्रिया के पास आए और बोले, “प्रिया बेटा, घर में कितनी शांति है इन दिनों। है ना?”
प्रिया ने कहा, “शांति नहीं पापा जी, इज्जत है।”
वो मुस्कुराए और पास बैठ गए। एक चाय उन्होंने बनाई, एक प्रिया ने।
आज पहली बार दोनों ने साथ बैठकर चाय पी – बिना किसी औपचारिकता, बिना किसी संकोच के।
प्रिया ने धीरे से पूछा, “आपको कभी अकेलापन नहीं लगा?”
हरिशंकर जी बोले, “हर रोज लगता था, लेकिन अब नहीं।”
प्रिया ने पूछा, “अब क्यों नहीं?”
उन्होंने कहा, “अब कोई है जो समझता है। और कभी-कभी सिर्फ समझ लिया जाना ही सबसे बड़ी दवा होता है।”
प्रिया चुप रही, लेकिन उसकी आंखों में अब शब्द नहीं थे – सिर्फ आभार था।
सम्मान की नई शुरुआत
उस शाम वह बेटे के स्कूल गई। स्कूल की बुलेटिन बोर्ड पर ‘पेरेंट ऑफ द मंथ’ की नॉमिनेशन चल रही थी।
प्रिया ने फॉर्म भरा – नाम: हरिशंकर शर्मा।
फॉर्म बिना बताए सबमिट कर दिया।
दो हफ्ते बाद पूरे स्कूल के सामने हरिशंकर जी को मंच पर बुलाया गया और उन्हें अवार्ड मिला – मोस्ट वैल्यूएबल फैमिली मेंबर का।
बच्चों ने तालियां बजाई, टीचर्स ने सराहा।
प्रिया ने अपने बेटे का हाथ पकड़कर कहा, “बेटा, अगर किसी दिन तुम बड़े होकर मेरे जैसे बनो तो भी ठीक है। लेकिन अगर दादाजी जैसे बने तो मुझे फक्र होगा।”
हरिशंकर जी कुछ नहीं बोले। उस मंच पर बस हाथ जोड़कर मुस्कुराए।
वो अब भी वही थे – चुप, शांत, लेकिन अब अकेले नहीं।
घर में सम्मान और रिश्तों की नई परिभाषा
स्कूल से लौटते समय हरिशंकर जी ने प्रिया से पूछा, “यह सब किसने किया था? बेटा, स्कूल में मुझे मंच पर बुलवाया, सम्मान दिलवाया?”
प्रिया कुछ पल चुप रही, फिर धीरे से बोली, “जो आप हर रोज करते हैं, उसका छोटा सा जवाब था। पापा जी, बस यह कोशिश थी कि एक दिन आपको वह दिखे, जो हम सब देखते रहे लेकिन बोल नहीं पाए।”
हरिशंकर जी मुस्कुरा दिए, कुछ नहीं कहा।
उनकी आंखों में पहली बार एक भरोसे की आस थी – कि अब वह अकेले नहीं हैं।
दुनिया के सामने सम्मान
प्रिया ने तय कर लिया था – अब वह सिर्फ घर के अंदर नहीं, दुनिया के सामने भी पापा जी का सम्मान बढ़ाएगी।
वह सम्मान जो उनके जैसे लाखों बुजुर्गों को नहीं मिल पाता।
एक रविवार जब पूरा परिवार घर पर था, प्रिया ने एक छोटी सी गैदरिंग रखी। बेटे के फ्रेंड्स, कॉलोनी के कुछ लोग और दो-तीन टीचर्स को बुलाया।
पूरे ड्राइंग रूम में एक कोना सजाया। बेटे ने नन्हा सा भाषण दिया – “मेरे दादाजी मेरे सबसे बड़े हीरो हैं, क्योंकि वह रोज बिना बताए हमारे लिए सब करते हैं।”
फिर प्रिया खड़ी हुई और बहुत सीधी बात बोली –
“आजकल के दौर में जब हम लाइक्स, कमेंट्स और प्रमोशन में वैलिडेशन ढूंढते हैं, हमारे घरों में ऐसे लोग होते हैं जो बिना किसी वैलिडेशन के बस रिश्ते के लिए जीते हैं।
मेरे पापा जी ऐसे ही हैं।
हम सब ने इन्हें कभी देखा नहीं, क्योंकि हम कभी रुके ही नहीं।
लेकिन आज मैं सबको रोक रही हूं ताकि इन्हें देखा जा सके – पूरी तरह से, इज्जत से।”
पूरा कमरा तालियों से गूंज गया।
हरिशंकर जी कुछ पल के लिए आंखें बंद कर लेते हैं। उनके होंठ कांपते हैं।
फिर वह धीरे से खड़े होते हैं और बस इतना कहते हैं –
“अगर कोई पूछ ले आप कैसे हैं, तो जिंदगी आसान हो जाती है।
मुझे लगा कि मेरी जिंदगी आसान नहीं थी, पर अब वह अकेली नहीं है। धन्यवाद।”
सबकी आंखें भर आती हैं।
रिश्तों की गहराई
उस रात प्रिया बालकनी में बैठी थी।
हरिशंकर जी पास आकर बैठ गए।
चुपचाप दोनों ने गर्म चाय पी, बिना कोई बात किए।
फिर हरिशंकर जी ने पूछा, “प्रिया बेटा, मैंने कभी तुझे बेटी की तरह नहीं बुलाया। शायद मुझे डर था कि तू मना ना कर दे।”
प्रिया की आंखों में चमक आ गई। वो धीमे से उनके कंधे पर सिर रखकर बोली, “आपने आज बोला तो मैं कह दूं। आप सिर्फ पापा जी नहीं, मेरे दूसरे जन्मदाता हैं। अब जो भी हूं उसमें आपका हिस्सा सबसे ज्यादा है।”
धीरे-धीरे जिंदगी शांत बहने लगी।
पापा जी वही रहे, बस अब उनकी खामोशी में अकेलापन नहीं था।
प्रिया वही रही, लेकिन अब उसकी तेजी में एक समझदारी थी।
घर में हर कोना जैसे बदल गया था।
वो कुर्सी जिस पर कभी हरिशंकर जी अकेले बैठा करते थे, अब सबसे ज्यादा चाय वहीं पर पी जाती थी।
वह दीवार जहां एक फोटो चुपचाप टंगी थी, अब घर का गौरव थी।
वो चुप्पी जो पहले बोझ थी, अब गरिमा बन चुकी थी।
अंतिम सम्मान
एक दिन प्रिया ने घर के बाहर एक छोटी सी नेम प्लेट लगवाई – “शर्मा रेजिडेंस – फाउंडेड बाय हरिशंकर जी”
जब हरिशंकर जी ने उसे देखा तो वह थोड़ा हंसे – “बेटा, इसकी जरूरत नहीं थी।”
प्रिया मुस्कुराई – “आपके बिना यह घर सिर्फ ईंट और दीवार है। पापा जी, जो नींव दिखती नहीं वही असल घर होती है।”
सीख
यह कहानी सिर्फ एक बहू और ससुर की नहीं, बल्कि हर उस इंसान की है जो अपने घर की नींव बनकर चुपचाप सबके लिए जीता है।
इज्जत सिर्फ दिखावे से नहीं, समझ और रिश्तों से मिलती है।
कभी-कभी एक खामोश मुस्कान, एक छोटा सा एहसास, और एक सच्चा सम्मान – किसी की पूरी जिंदगी बदल सकता है।
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