ढोंगी नहीं, डीएम निकला! गांव के मंच से हुआ ऐसा खुलासा कि हिल गया पूरा सिस्टम
पत्थरौली गांव की रातें हमेशा सन्नाटे में डूबी रहती थीं, लेकिन उस रात मोहन की टूटी आवाज ने जैसे पूरे गांव की पीड़ा को शब्द दे दिए। उसका बेटा गोलू तेज बुखार में तड़प रहा था और सरकारी अस्पताल की दवा रतन लाल ने पांच हजार रुपये के बदले बेचने की शर्त रख दी थी। मोहन के पास सिर्फ पांच सौ रुपये थे। इंसानियत की जगह यहां सांसों का सौदा होता था।
गांव का स्वास्थ्य केंद्र कागजों में चालू था, लेकिन असलियत में वहां जाले और भ्रष्टाचार का कब्जा था। रतन लाल खुद को मैनेजर बताता था, लेकिन उसकी असलियत एक गिद्ध की थी—जो मुफ्त दवाओं को ऊंचे दामों पर बेचता और गरीबों की मजबूरी पर पलता था। सरपंच चौधरी इंद्रजीत सिंह हर महीने चौपाल लगाता, लेकिन उसकी बातें कभी ऊपर तक नहीं पहुंचती थीं, जैसे सूखे कुएं में फेंका गया पत्थर।
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एक दिन मोहन की उम्मीद टूट गई, लेकिन उसी समय जिले के डीएम आनंद श्रीवास्तव को पत्थरौली की फाइल मिली। रिपोर्टों में सब कुछ ठीक था, लेकिन गुमनाम चिट्ठियों ने असलियत खोल दी—“यहां दवा नहीं, मौत बिकती है।” डीएम ने फैसला किया कि वह साधु का भेष धारण कर गांव जाएंगे, ताकि लोग सच बोलें और तंत्र की सच्चाई सामने आए।
साधु के भेष में आया बदलाव
कुछ दिनों बाद गांव के शिव मंदिर में एक साधु ‘ज्ञानी बाबा’ ने डेरा डाला। उनकी आंखों में करुणा और चेहरे पर तेज था। धीरे-धीरे बाबा का मंदिर गांववालों की पीड़ा का केंद्र बन गया। विधवा, किसान, मजदूर—हर कोई अपनी कहानी बाबा को सुनाता। बाबा धर्म और कर्म का पाठ पढ़ाते और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत सिखाते।
बाबा ने रात के अंधेरे में सरपंच और रतन लाल की साजिशें भी देखीं। उन्हें समझ आ गया कि गांव का रक्षक ही असली भक्षक है। लेकिन इसे साबित करना आसान नहीं था। इसी बीच चौधरी ने अपनी छवि चमकाने के लिए मुफ्त स्वास्थ्य शिविर का ढोंग रचाया। शहर से डॉक्टर बुलाए, बैनर लगाए, और मंच सजाया।
मंच से हुआ धमाकेदार खुलासा
शिविर वाले दिन पूरा गांव जमा था। चौधरी भाषण दे रहा था—“आपकी सेहत ही मेरी पूंजी है।” भाषण के बाद ज्ञानी बाबा को मंच पर बुलाया गया। बाबा ने माइक हाथ में लिया और बोले, “सबसे बड़ा पुण्य किसी को जीवन देना है, सबसे बड़ा पाप किसी की सांसें छीनना है। लेकिन सोचिए जहां रक्षक ही भक्षक बन जाए, वहां क्या होगा?”
लोगों में कानाफूसी शुरू हुई। बाबा ने सीधे सरपंच को निशाने पर लिया, “दवाइयां कहां थीं?” चौधरी चिल्लाया, “पागल हो गया है ये ढोंगी!” तभी बाबा ने अपनी रुद्राक्ष की माला उतारी, पहचान पत्र निकाला और बोला, “मैं ढोंगी नहीं हूं, मेरा नाम आनंद श्रीवास्तव है और मैं इस जिले का डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट हूं।”
एक पल का सन्नाटा और फिर जैसे पूरे गांव पर बिजली गिर गई। डीएम ने तुरंत पुलिस को बुलाया। चौधरी और रतन लाल को हथकड़ी लग गई। डीएम आनंद ने मंच से ऐलान किया—“अब यहां एक नया सरकारी अस्पताल बनेगा, हर दवा मुफ्त मिलेगी, और आज से इस गांव का हर बच्चा स्वस्थ रहेगा।”
गांव में लौटी उम्मीद
कुछ महीनों में गांव बदल चुका था। नया अस्पताल बन गया, गोलू स्वस्थ हो गया और बच्चों की हंसी लौट आई। यह कहानी सिर्फ पत्थरौली की नहीं, हर उस गांव की है जहां अधिकार तो हैं, पर उन तक पहुंचना मुश्किल है।
सीख:
जब तंत्र सड़ा हो, आवाज उठाना जरूरी है। असली बदलाव तब आता है, जब कोई अपने पद की ताकत को इंसानियत के लिए इस्तेमाल करता है। अगली बार जब आप अन्याय देखें, चुप मत रहें। आवाज उठाइए, क्योंकि बदलाव की शुरुआत एक छोटे कदम से होती है।
अगर यह कहानी आपको छू गई हो, तो इसे अपने दोस्तों और परिवार के साथ जरूर शेयर करें। इंसानियत की जीत का संदेश हर गांव, हर शहर तक पहुंचे!
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