जूते पॉलिश करने वाले ने कहा, “साहब, मैं पढ़ना चाहता हूँ।” फिर अमीर आदमी ने जो किया, वह सबको हैरान कर गया।

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यह कहानी है मुंबई के उस सड़क किनारे जूते पॉलिश करने वाले छोटे से बच्चे राजू की, जिसकी आंखों में सपनों की चमक थी और जिसने एक करोड़पति बृजमोहन खन्ना की जिंदगी ही बदल दी। मुंबई, जो कभी नहीं सोता, जहां दौलत और गरीबी साथ-साथ सांस लेते हैं, वहीं नरिमन पॉइंट के एक कोने में राजू अपनी छोटी सी दुनिया में जूते पॉलिश करता था। वह दस साल का यतीम बच्चा था, जिसकी मां और पिता दो साल पहले बीमारी से गुजर चुके थे। अकेला, भूखा, ठंड में भीगता हुआ, राजू के पास सिर्फ एक लकड़ी का पुराना बक्सा था, जिसमें उसके जूते पॉलिश करने के उपकरण और कुछ पुरानी किताबें थीं।

राजू के पिता एक मामूली चपरासी थे, जिन्होंने उसे सिखाया था कि विद्या ही सबसे बड़ा धन है, जिसे कोई चुरा नहीं सकता। राजू ने उस सीख को दिल से लगाया और अपने कमाए हुए पैसे से पुरानी किताबें खरीदकर पढ़ाई में जुट गया। उसका सपना था डॉक्टर बनना, ताकि वह गरीबों का मुफ्त इलाज कर सके और किसी और बच्चे को अनाथ न बनना पड़े।

एक दिन, नरिमन पॉइंट में जब वह अपनी जूतों की दुकान पर बैठा था, तो देश के बड़े टेक्सटाइल उद्योगपति, बृजमोहन खन्ना, अपनी महंगी कार से उतरे। उनके महंगे जूतों पर पान की थूक लगी थी, जिससे उनका मूड खराब था। उन्होंने राजू को बुलाया और अपने जूते चमकाने को कहा। राजू ने लगन से काम किया, लेकिन अचानक हवा के झोंके से उसकी पढ़ाई की किताब जमीन पर गिर गई। बृजमोहन ने वह किताब देखी और राजू से पूछा कि वह क्या पढ़ रहा है। राजू ने डरते हुए बताया कि वह डॉक्टर बनना चाहता है।

राजू की मासूमियत और सपनों की प्यास देखकर बृजमोहन के दिल में कुछ बदला। वह अपने स्टॉक मार्केट, मीटिंग्स और दौलत को भूल गए। उन्होंने राजू को ₹2000 की राशि दी और कहा कि यह उसकी पढ़ाई की पहली किश्त है। साथ ही, उन्होंने राजू को अपने ऑफिस आने के लिए बुलाया और उसे पढ़ाई में मदद करने का वादा किया।

अगले दिन राजू बृजमोहन के ऑफिस पहुंचा, जहां उसे आलीशान कमरे में बुलाया गया। बृजमोहन ने उसे समझाया कि सपने देखने से कुछ नहीं होता, मेहनत और सही रास्ता जरूरी है। उन्होंने घोषणा की कि वे राजू को गोद ले रहे हैं, उसकी पढ़ाई, रहने और हर जरूरत की जिम्मेदारी उठाएंगे। राजू को शहर के सबसे अच्छे बोर्डिंग स्कूल में दाखिला मिला, जहां उसने कड़ी मेहनत से पढ़ाई की। उसने दसवीं और बारहवीं में टॉप किया।

लेकिन बृजमोहन के अपने बेटे, समीर और सुधीर, जो घमंडी और बिगड़ैल थे, राजू को पसंद नहीं करते थे। वे उसे ताने देते, अपमानित करते, लेकिन राजू चुपचाप सब सहता रहा क्योंकि उसका सपना उनसे बड़ा था।

समय बीता, राजू अब 27 साल का डॉक्टर बन चुका था। उसने देश के प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज से गोल्ड मेडल जीता। उसने नौकरी की तलाश के बजाय सीधे बृजमोहन के पास जाकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त की। बृजमोहन ने अपने बेटे को गले लगाकर कहा कि यह उनका नहीं, राजू का सपना है, जिस पर उन्हें गर्व है।

बृजमोहन ने शहर के बीचोंबीच एक आधुनिक चैरिटेबल अस्पताल बनवाया, जिसका नाम रखा “मां-बाप चैरिटेबल हॉस्पिटल”। इसका उद्देश्य था गरीबों का मुफ्त इलाज। डॉक्टर राजू इस अस्पताल का डायरेक्टर बना और गरीबों की सेवा में जुट गया। वह हर मरीज को भगवान का रूप मानता था।

लेकिन बृजमोहन की अपनी दुनिया धीरे-धीरे बिखरने लगी। उसके बेटे समीर और सुधीर ने पिता की मेहनत की कमाई को शराब, सट्टा और फिजूलखर्ची में उड़ाना शुरू कर दिया। उन्होंने बिजनेस में कोई दिलचस्पी नहीं ली। बृजमोहन ने उन्हें सुधारने की बहुत कोशिश की, लेकिन वे नाकाम रहे। अंततः उनकी सेहत गिरने लगी और वे धोखे से अपने पिता से बिजनेस और संपत्ति के कागजात पर दस्तखत करवा लिए।

सालों की मेहनत से बनाई गई सल्तनत उनके नाम हो गई, और उन्होंने अपने बूढ़े पिता को उसी आलीशान बंगले से बाहर निकाल दिया, जिसे उन्होंने अपने खून-पसीने से बनाया था। बृजमोहन सड़क पर आ गया, बेबस और लाचार। उसने अपनी बची हुई हिम्मत समेट कर एक टैक्सी में बैठकर उस अस्पताल की ओर रुख किया, जहां उसे उम्मीद की आखिरी किरण नजर आ रही थी।

जब डॉक्टर राजू ने अपने पिता को अस्पताल के दरवाजे पर खड़ा देखा, तो उसका दिल टूट गया। वह दौड़ा और अपने पिता के पैरों में गिर पड़ा। बृजमोहन कुछ नहीं बोले, बस रोते रहे। राजू ने उन्हें सहारा दिया और अपने केबिन में ले गया। फिर उसने बड़े वकीलों को फोन किया और अपने पिता की संपत्ति पर अवैध कब्जा करने वाले भाइयों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया।

राजू ने अपने पिता को अपने घर ले जाकर परिवार के सामने कहा कि अब से दादाजी हमारे साथ रहेंगे। यह घर, यह इज्जत, यह जिंदगी उनकी देन है, और उनकी सेवा करना हमारा धर्म है। कानून ने काम किया, समीर और सुधीर को सजा मिली और बृजमोहन की सल्तनत वापस मिल गई।

लेकिन अब बृजमोहन ने अपने कारोबार और जायदाद को एक ट्रस्ट के नाम कर दिया, और उस ट्रस्ट का चेयरमैन अपने सच्चे बेटे डॉक्टर राजू को बनाया। उन्होंने अपनी बाकी जिंदगी अपने बेटे, बहू और पोतों के साथ प्यार और सुकून से बिताई। वे अक्सर अपने पोतों को उस जूते पॉलिश करने वाले बच्चे और अमीर घमंडी आदमी की कहानी सुनाते और कहते, “बेटा, जिंदगी में सबसे बड़ा निवेश पैसों या बिजनेस में नहीं, बल्कि एक इंसान के सपने में होता है। वही निवेश तुम्हें दुनिया का सबसे अमीर इंसान बना देता है।”

यह कहानी हमें सिखाती है कि नेकी का छोटा सा बीज अगर सही जमीन पर बोया जाए, तो वह एक घना पेड़ बन सकता है, जो जिंदगी की हर धूप से बचाता है। बृजमोहन खन्ना ने एक बच्चे के सपने को सींचा, और उस सपने ने उनके बुढ़ापे को सहारा दिया। यह कहानी उन औलादों को भी सबक देती है जो अपने मां-बाप को सिर्फ जिम्मेदारी समझते हैं।