एक कचौड़ी की कीमत

लखनऊ के एक व्यस्त चौराहे पर, शाम ढलने लगी थी। आसमान में बादल घिर आए थे और हल्की-हल्की बूंदा-बांदी शुरू हो चुकी थी। विवेक अपनी कचौड़ी की रेड़ी समेटने ही वाला था, सोच रहा था कि आज जल्दी घर चला जाए। तभी उसकी नजर एक छोटे, कमजोर बच्चे पर पड़ी, जो फटे पुराने कपड़ों में, नंगे पांव, धूल से सना चेहरा लिए उसकी ओर बढ़ रहा था।

बच्चा करीब आकर कांपती आवाज़ में बोला,
“क्या आप मुझे कुछ खिला सकते हो?”

विवेक ने उसकी हालत देखी, कुछ पल चुप रहा, फिर मुस्कुराकर बोला,
“हां बेटा, क्यों नहीं। मैं तुम्हें अभी गरमा गरम कचौड़ी लगा देता हूं।”

विवेक ने कढ़ाई से ताज़ी कचौड़ी निकाली, उसमें सब्जी और चटनी डालकर बच्चे के सामने रख दी। बच्चा झिझकते हुए बोला,
“आप मुझे खिला तो दोगे, लेकिन मेरे पास पैसे नहीं हैं। कहीं आप बाद में पैसे मांगने लगो तो?”

विवेक का दिल भर आया। उसने हंसकर कहा,
“नहीं बेटा, मैं तुमसे पैसे नहीं मांगूंगा। ये कचौड़ियां अब मेरे किसी काम की नहीं हैं। तुम निश्चिंत होकर खा लो।”

बच्चे ने प्लेट ली और पास ही बैठ गया। वह बड़े चाव से खाने लगा, जैसे कई दिनों से पेट भर खाना न मिला हो। तभी उसने अपने हाथ का एक पुराना सा लिफाफा रेड़ी पर रख दिया। विवेक ने सोचा, शायद इसमें पैसे हों या कोई जरूरी सामान। जिज्ञासा बढ़ी तो उसने धीरे से लिफाफा खोल लिया।

लिफाफे में एक पुरानी तस्वीर थी। तस्वीर में एक खूबसूरत औरत थी, आधुनिक कपड़ों में, मुस्कान लिए हुए, उसकी गोद में वही बच्चा बैठा था। विवेक चौंक गया। यह औरत तो किसी अमीर घर की लग रही थी, लेकिन उसका बच्चा इतनी दयनीय हालत में उसके सामने बैठा था।

विवेक ने पूछा,
“बेटा, यह फोटो किसकी है?”

बच्चे ने कचौड़ी खाते-खाते आंसू भरी आंखों से ऊपर देखा,
“यह मेरी मां की है। वह मुझसे बहुत दिनों से दूर हो गई है। मैं उन्हें ढूंढ रहा हूं। नाना जी ने भी बहुत कोशिश की, लेकिन वो नहीं मिली। जब भी उनकी याद आती है तो मैं यह फोटो लेकर निकल पड़ता हूं, शायद कहीं ना कहीं मुझे वह मिल जाए।”

विवेक का दिल द्रवित हो उठा। उसने फोटो को ध्यान से देखा और सावधानी से वापस लिफाफे में रख दिया। बच्चा जल्दी-जल्दी कचौड़ी खाकर, प्लेट साइड में रखकर बिना कुछ कहे वहां से चला गया। विवेक उसे जाते हुए देखता रह गया। बच्चा बारिश में भीगता हुआ गली के मोड़ पर गुम हो गया।

कुछ देर बाद विवेक को ध्यान आया, वो लिफाफा तो बच्चा भूल गया था। दुकान छोड़कर जाना भी मुश्किल था। विवेक ने सामान समेटा और लिफाफा अपने थैले में रख लिया। उस रात विवेक चैन से सो नहीं पाया। घर पहुंचकर उसने थैला अपनी छोटी बहन को पकड़ा दिया। बहन ने जैसे ही लिफाफा देखा, तस्वीर निकालकर पूछा,
“भैया, यह फोटो किसकी है?”

विवेक ने सब कहानी बता दी। बहन की आंखें भर आईं। मां ने भी फोटो देखी। अचानक बोली,
“मुझे यह चेहरा कहीं देखा सा लग रहा है। जैसे मैं इसे जानती हूं।”

विवेक ने कहा,
“अम्मा, अगर आपने सच में इसे देखा है तो याद करने की कोशिश करो। हो सकता है हम उस बच्चे की मदद कर पाए।”

रात भर तीनों सो नहीं सके। अगले दिन मां वह फोटो अपने साथ काम पर ले गई। काम करते-करते बार-बार फोटो देखती रही। अचानक बर्तन गिरने की आवाज के साथ उसे याद आया—छ: महीने पहले वह जिस अमीर घर में काम करती थी, वहां एक गुमसुम सी औरत रहती थी। वही औरत जो इस तस्वीर में थी।

मां ने काम खत्म होते ही उस घर का पता लिया और वहां पहुंच गई। दरवाजा खटखटाया। बुजुर्ग मालकिन ने दरवाजा खोला। मां ने फोटो दिखाकर पूछा,
“यह वही औरत है ना? उसका बच्चा अपनी मां को ढूंढता फिर रहा है।”

मालकिन ने गंभीर स्वर में कहा,
“हां, तुम ठीक कह रही हो। आओ मेरे साथ चलो।”

वह मां को अंदर ले गई और थोड़ी देर बाद उस औरत को बाहर ले आई। मां ने फोटो उसके चेहरे से मिलाई—हां, यही है। लेकिन औरत बेहद गुमसुम थी, उसकी आंखों में पहचान की कोई चमक नहीं थी।

उधर विवेक अपनी रेड़ी पर बच्चे की राह देखता रहा, लेकिन वह बच्चा वापस नहीं आया। शाम को एक बड़ी कार उसकी रेड़ी के सामने आकर रुकी। कार से एक बुजुर्ग आदमी उतरे, चेहरे पर गंभीरता थी।
“मैं यहां इसलिए आया हूं क्योंकि कल तुमने मेरे नाती को खाना खिलाया था। उसने अपनी मां का फोटो तुम्हारे पास भूल गया है। मैं वही लेने आया हूं और उसके पैसे भी देने आया हूं।”

विवेक ने बताया कि फोटो उसकी मां के पास है, शायद उन्होंने उस औरत को कहीं देखा है। बुजुर्ग की आंखें चमक उठीं—”अगर तुम्हारी मां ने सच में उसे देखा है तो शायद अब मेरी बेटी मिल जाए।”

शाम को विवेक घर पहुंचा। मां ने मुस्कुराकर कहा,
“बेटा, मुझे सब याद आ गया। मैंने सच में उस औरत को देखा था। वह पास के बड़े घर में रहती है।”

तीनों पड़ोस वाले घर से फोन कर अमीर व्यक्ति को खबर दे देते हैं। रात को वही कार झोपड़ी के बाहर आकर रुकती है। बुजुर्ग आदमी और उनका नाती, अच्छे कपड़ों में, चेहरे पर चमक लिए।
“बेटा, कहां है मेरी बेटी? मुझे उससे मिला दो।”

विवेक उन्हें उस बड़े घर तक पहुंचाता है। दरवाजा खुलते ही बच्चा दौड़कर मां से लिपट जाता है। उसकी आंखों से आंसू झरने लगते हैं। बुजुर्ग पिता भी बेटी को देखकर रो पड़ते हैं। लेकिन आशा, वो औरत, एकदम गुमसुम खड़ी रहती है। उसकी आंखों में पहचान की कोई चमक नहीं थी।

बुजुर्ग आदमी ने विवेक की ओर देखा और कहा,
“बेटा, बहुत-बहुत धन्यवाद। तुम्हारी वजह से आज हमें हमारी बेटी और उसके बेटे की झलक मिल सकी। हम इसे अपने साथ ले जाएंगे और इसका इलाज अच्छे से कराएंगे।”

अगले दिन सुबह वही कार फिर विवेक की झोपड़ी के सामने आकर रुकी। इस बार उसमें बुजुर्ग दंपति भी थे और उनकी बेटी आशा भी, जो अब पहले से बेहतर हालत में दिख रही थी। घर के अंदर बैठते ही बुजुर्ग आदमी बोले,
“बेटा विवेक, तुमने हमारी बेटी से हमें मिलाया है। हम इस एहसान को कभी नहीं भूल सकते। अब हम तुम्हारे लिए कुछ करना चाहते हैं।”

विवेक ने हाथ जोड़कर कहा,
“अंकल जी, इसकी कोई जरूरत नहीं है। मैंने जो किया इंसानियत समझ कर किया।”

बुजुर्ग मुस्कुराए,
“नहीं बेटा, इंसानियत की ही कदर करनी चाहिए। हमें अपनी बेटी की देखभाल के लिए एक भरोसेमंद इंसान चाहिए। और हमें लगता है कि तुमसे बेहतर कोई नहीं हो सकता। तुम चाहो तो हमारे घर आकर काम करो। जितना तुम आज कमाते हो, तुम्हें उससे 10 गुना ज्यादा मिलेगा। तुम्हारी बहन की शादी भी हम अच्छे से कराएंगे।”

विवेक चौंक गया। मां ने कहा,
“यह भगवान का दिया हुआ अवसर है। स्वीकार कर लो।”

कुछ ही दिनों में विवेक उस अमीर घर में काम करने लगा। वह आशा की देखभाल करता, उस बच्चे के लिए पिता जैसा सहारा बन गया। धीरे-धीरे डॉक्टर की देखरेख और विवेक की सेवा से आशा ठीक होने लगी। पांच महीने के भीतर उसने अपने बेटे को पहचान लिया, पिता को पहचान लिया और मुस्कुराने लगी।

जब सब कुछ सामान्य हुआ तो बुजुर्ग दंपति ने मन ही मन एक निर्णय लिया।
“बेटा विवेक, हमारी बेटी अब ठीक है। लेकिन हमें लगता है कि उसकी जिंदगी में एक सहारा चाहिए। और वह सहारा तुमसे बेहतर कोई नहीं हो सकता। तुम चाहो तो हमारी बेटी से विवाह कर लो। हम तुम्हें अपना बेटा मान चुके हैं।”

विवेक ने पहले झिझक दिखाई। लेकिन आशा ने भी सिर झुका लिया—वह देख चुकी थी कि विवेक ने किस तरह उसकी सेवा की थी। कुछ ही समय बाद पूरे धूमधाम से विवेक और आशा की शादी हुई। गरीब बस्ती का वह साधारण कचौड़ी बेचने वाला लड़का अब बड़े घर का दामाद बन चुका था। उसकी मां और बहन भी उसी घर में रहने लगी। बहन की शादी सम्मान से हुई।

अब विवेक की जिंदगी पूरी तरह बदल चुकी थी। वह पहले की तरह आज भी मुस्कुराकर लोगों से मिलता, लेकिन अब उसकी मुस्कान में संघर्ष की थकान नहीं, सुकून की चमक थी।

कहानी की सीख

इस कहानी से यही सीख मिलती है कि भलाई करने से कभी किसी का नुकसान नहीं होता। कभी-कभी एक छोटी सी मदद किसी की जिंदगी बदल देती है। और कई बार वही मदद हमारी जिंदगी को भी एक नई दिशा दे देती है।

अगर आपकी जिंदगी में भी कोई ऐसा मासूम बच्चा आ जाए जो भूख से तड़प रहा हो, तो क्या आप उसे बिना कुछ सोचे खिलाएंगे? या पैसों की वजह से मना कर देंगे?

इंसानियत की यह सीख हर किसी तक पहुंचना जरूरी है।

जय हिंद।