न्याय की आवाज़ – आरव और इंसाफ की कहानी
दोपहर का वक्त था।
सूरज आग उगल रहा था।
शहर की भीड़भाड़ भरी सड़क पर एक 12 साल का लड़का खड़ा था —
चेहरे पर धूल, आँखों में थकान, और गोद में एक छोटी सी बच्ची जो बुखार में तड़प रही थी।
लड़के का नाम था आरव।
वो रोज इसी सड़क पर आता, भीख मांगता, और जो कुछ मिलता, उससे अपनी छोटी बहन अनुष्का का पेट भरता।
माता-पिता की मृत्यु के बाद यह नन्हा भाई ही उस मासूम का एकमात्र सहारा था।
हर दिन वही दिनचर्या —
गाड़ियों के शीशे पर दस्तक देना, लोगों के पैरों में झुकना,
“साहब, कुछ दे दीजिए… बहन को दूध लेना है।”
कुछ लोग ₹2 देते, कुछ डांटकर भगा देते,
कुछ तो ऐसे भी थे जो उसकी ओर देखना तक नहीं चाहते थे।
उस दिन की दोपहर कुछ अलग थी।
गर्मी से सड़क तप रही थी।
आरव के होंठ सूख चुके थे।
लेकिन जब उसने अपनी बहन की ओर देखा — उसका चेहरा लाल, साँसें तेज़ और आँखें बंद —
तो उसका दिल काँप उठा।
“दीदी, उठो ना… बस थोड़ा और सह लो,” वह धीरे से बोला।
पर बच्ची बेसुध थी।
आरव को लगा, अब देर नहीं कर सकता।
उसने इधर-उधर देखा, शायद कोई मदद करे।
तभी एक महंगी कार उसके पास आकर रुकी।
दरवाज़ा खुला, और उसमें से उतरा एक अमीर आदमी —
साफ-सुथरे कपड़े, चमकदार घड़ी, हाथ में ब्रीफ़केस और चेहरे पर घमंड का तेज़।
आरव दौड़ा और उसके पैरों में गिर पड़ा —
“साहब, प्लीज़ मदद कीजिए। मेरी बहन बहुत बीमार है। बस थोड़ा पैसा दे दीजिए, मैं डॉक्टर के पास ले जाऊँगा।”
आदमी ने पैर झटका,
“हटो यहाँ से! मैं मीटिंग के लिए लेट हो रहा हूँ।”
पर आरव का हाथ उसके जूते से चिपका रहा।
आँखों से आँसू बह रहे थे।
“साहब, दुआ दूँगा आपको, बस एक बार मदद कर दीजिए।”
लोग तमाशा देखने लगे।
किसी ने कहा, “बेचारा बच्चा…”
तो किसी ने हँसते हुए कहा, “ड्रामा कर रहा है।”
अमीर आदमी झुंझलाया, पर न जाने क्यों उसके दिल में एक झटका लगा।
उसने अपना बटुआ खोला — उसमें बस ₹1000 थे।
वह सोचने लगा, “अगर इसे नकद दूँ तो शायद किसी और को दे देगा।”
उसने चेकबुक निकाली और लिखा —
₹500 का चेक।
“यह ले, इसमें ₹500 हैं। बैंक जा, पैसे निकलवा ले।”
आरव ने जैसे भगवान देख लिया हो।
“साहब, भगवान आपको खुश रखे!”
उसने पैर छुए और बहन को उठाकर दौड़ पड़ा — पास के राज्य बैंक की ओर।
🏦 बैंक का दृश्य
बैंक उसके लिए किसी महल से कम नहीं था।
ठंडी हवा, चमकदार फर्श, और सलीके से बैठे कर्मचारी।
फटे कपड़े वाला यह बच्चा वहाँ अजनबी जैसा लग रहा था।
सबकी नज़रें उसी पर थीं।
वह काउंटर पर पहुँचा —
“अंकल, यह चेक है… पैसे चाहिए, मेरी बहन बीमार है।”
कैशियर ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा।
फिर चेक उठाया —
“यह कहां से लाया?”
“एक साहब ने दिया, मेरी बहन बहुत बीमार है…”
कैशियर हँस पड़ा, “साहब ने चेक दिया? अरे यह तो चोरी का लगता है।”
उसने साथियों को इशारा किया।
“सुरेश! ज़रा देख तो इसको।”
गार्ड सुरेश आया — भारी शरीर, तनी हुई मूँछें, और आँखों में शक।
“क्या बात है?”
“यह लड़का नकली चेक लेकर आया है।”
गार्ड ने आरव का हाथ पकड़ लिया।
“चल बाहर!”
“नहीं अंकल, प्लीज़… यह असली है। मेरी बहन…”
लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं सुनी।
बैंक मैनेजर आया — चेहरे पर अहम का भाव।
“क्या हो रहा है?”
“सर, यह बच्चा चोरी का चेक लेकर आया है।”
मैनेजर ने चेक देखा —
हस्ताक्षर असली लगे, तारीख सही थी।
लेकिन उसने फिर भी कहा —
“इतना बड़ा चेक इस बच्चे के नाम? असंभव। पुलिस बुलाओ।”
आरव की दुनिया बिखर गई।
छोटी बहन अब उसकी गोद में बेसुध थी।
वह बार-बार कहता — “साहब, मेरी बहन मर जाएगी…”
पर किसी ने उसकी नहीं सुनी।
🚨 पुलिस की एंट्री
थोड़ी देर में तीन पुलिस वाले आए —
राजीव, दिनेश, और अक्षय।
राजीव सीनियर था — चेहरे पर घमंड।
दिनेश लंबा-पतला, हमेशा दूसरों को नीचा दिखाने वाला।
अक्षय मोटा, लेकिन बेरहम।
राजीव ने आते ही कहा —
“क्या मामला है?”
मैनेजर बोला, “यह लड़का चोरी का चेक लेकर आया है।”
राजीव ने आरव की शर्ट पकड़ी —
“कहां से चुराया? बता!”
“नहीं साहब, एक साहब ने दिया… सच बोल रहा हूँ।”
दिनेश हँसा —
“ड्रामा बहुत करता है यह टाइप। जेल में डालो, सब बाहर आएगा।”
अक्षय ने बोला,
“पहले हथकड़ी लगा दो।”
आरव चिल्लाया —
“साहब, मेरी बहन मर जाएगी!”
पर किसी का दिल नहीं पिघला।
भीड़ अब और बढ़ गई थी।
लोग मोबाइल से वीडियो बना रहे थे।
किसी को तमाशा चाहिए था, किसी को “कॉन्टेंट”।
👩💼 एक ईमानदार अफसर का आगमन
उसी वक्त एक कार रुकी।
वहाँ से उतरी एक सख्त मगर शांत महिला —
डीएम राधिका शर्मा।
वह इलाके के निरीक्षण पर थीं।
उन्होंने देखा —
एक बच्चा भीड़ में फंसा है, पुलिस और बैंक वाले उसे अपराधी बना रहे हैं।
वह आगे बढ़ीं —
“क्या हो रहा है यहां?”
राजीव सन्न रह गया —
“मैडम, यह बच्चा चोरी का चेक लेकर आया है।”
राधिका की आवाज़ ठंडी पर धारदार थी —
“चेक दिखाइए।”
उन्होंने चेक देखा —
हस्ताक्षर ताजा थे, तारीख आज की।
उन्होंने मोबाइल निकाला, खाते की डिटेल जांची —
खाता असली था, रकम उपलब्ध थी।
भीड़ चुप।
राधिका ने बैंक मैनेजर की ओर देखा —
“अगर चेक असली है, तो तुमने इस बच्चे को अपराधी क्यों बना दिया?”
मैनेजर हकलाया —
“मैडम, हमें लगा…”
“आपको लगा?” राधिका गरजीं।
“क्योंकि यह गरीब दिख रहा है?”
पुलिस की ओर मुड़ीं —
“और आप? बिना जांच, बिना पूछताछ गिरफ्तारी?”
राजीव चुप।
दिनेश और अक्षय के माथे से पसीना टपकने लगा।
राधिका ने आदेश दिया —
“चेक तुरंत क्लियर करो, बच्चे को पैसे दो।
और इस लड़की को अस्पताल ले जाओ।”
गार्ड सुरेश झिझका —
“मैडम, यह नियमों के खिलाफ—”
“नियमों से बड़ा इंसाफ होता है!” राधिका ने कहा।
💥 सच की जीत
आरव के हाथ में पैसे आए।
राधिका ने उसकी बहन को अपनी कार में बिठाया और अस्पताल पहुँचाया।
वहाँ डॉक्टरों ने इलाज शुरू किया।
बच्ची धीरे-धीरे ठीक होने लगी।
अगले ही दिन, डीएम ऑफिस में कार्रवाई हुई —
बैंक मैनेजर को निलंबित किया गया।
कैशियर और अन्य कर्मचारियों को नोटिस मिला।
गार्ड सुरेश की नौकरी चली गई।
पुलिस अधिकारी राजीव, दिनेश और अक्षय को सस्पेंड कर विभागीय जांच शुरू हुई।
शहर के अखबारों में सुर्खी थी —
“गरीब बच्चे को अपराधी बताने वाले झुके, सच्चाई की जीत हुई।”
लोगों ने पहली बार देखा कि
कानून सिर्फ अमीरों का नहीं,
गरीबों का भी हो सकता है।
🌅 कुछ महीने बाद
अस्पताल से बहन ठीक होकर घर लौटी।
राधिका शर्मा ने आरव को स्कूल में दाखिला दिलाया और अनाथ बच्चों के लिए एक योजना शुरू की।
उस योजना का नाम था —
“आरव पहल” —
जिसका उद्देश्य था:
“किसी भी बच्चे को गरीबी की वजह से अपराधी न समझा जाए।”
आरव अब पढ़ाई करता है।
वह कहता है —
“उस दिन अगर राधिका मैडम ना होतीं,
तो शायद मैं सचमुच अपराधी बन जाता।”
राधिका मुस्कुराती हैं —
“न्याय सिर्फ कानून से नहीं, दिल से भी मिलता है।”
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