(समोसे वाले रवि, सुनीता और अनवी की प्रेरणादायक कथा)

भीड़ में एक उम्मीद

बिहार के गया शहर के एक व्यस्त चौराहे पर लकड़ी का बना एक साधारण सा समोसे का ठेला खड़ा था। ठेले के मालिक, 33 वर्षीय रवि, साधारण कपड़ों में, किन्तु गहरी गरिमा वाली आँखों के साथ, हर रोज सुबह-सुबह गरमा-गरम समोसे तलने में लगे रहते थे। उनकी दुकान बड़ी नहीं थी, लेकिन उनके दिल में सबके लिए जगह थी।

एक दिन, जब ठेले पर ग्राहकों की भीड़ कम थी, तभी एक नन्हा सा हाथ उनके सामने आया — “भैया, एक समोसा मिल जाएगा?” नीचे झुककर देखा तो एक पांच वर्षीय बच्ची, अनवी, धूल से सने कपड़े और सूखे चेहरे के साथ खड़ी थी।

रवि ने बिना कोई सवाल किए, झुककर एक गरम समोसा कागज में लपेटकर उसके हाथ में दे दिया। तभी पास आकर एक महिला बोली, “रुको बेटा, समोसा मत लो। हम भीख नहीं मांगते।” महिला का नाम सुनीता था—चेहरे पर थकान, साड़ी फटी हुई, पर चाल में आत्मसम्मान की झलक।

रवि बोला, “यह भीख नहीं है, यह एक भूखी माँ-बेटी के लिए इंसानियत है। आज पेट भर लीजिए, कल की फिर देखेंगे।” सुनीता की आँखों में आँसू आ गए, वो धीरे से बेंच पर बैठ गईं। रवि ने माँ-बेटी को खिलाया। अनवी पहली बार मुस्कुराई, सुनीता की आँखों से मजबूरी हटकर उम्मीद झलकने लगी।

छांव की तलाश और एक दर

थोड़ी देर बाद रवि ने पूछा, “आपका नाम?” सुनीता ने झिझकते हुए नाम बताया। “कहाँ से हो?” — “गया से, लेकिन अब कहीं की नहीं रही,” सुनीता के जवाब की मुस्कान के पीछे गहरा दर्द छुपा था।

उसने अपनी कहानी बताई — पति का देहांत, ससुराल वालों का तिरस्कार, पड़ोसी की मेहरबानी, फिर बच्ची संग नए शहर में काम की तलाश। कई दिन से कुछ नहीं खाया था, लेकिन भीख मांगकर जीना मंजूर नहीं था। रवि बस चुपचाप सुनता रहा।

कुछ देर बाद, रवि ने अपने ठेले के बगल में बनी झोपड़ी की ओर इशारा किया – “तुम चाहो तो इसमें रह सकती हो।” सुनीता ने संकोच से मना किया, “मैं बोझ नहीं बनना चाहती।” रवि मुस्कुराया, “भूख, मजबूरी और अकेलापन बोझ है, इंसान नहीं।” सुनीता जैसे वर्षों बाद खुद को सुरक्षित महसूस कर रही थी। उनकी झोपड़ी चंद बांस, प्लास्टिक शीट और एक पुरानी खाट से बनी थी, पर वह अब सुनीता को किसी महल से कम नहीं लगी।

नई शुरुआत: जलेबी – समोसा स्टॉल

सुबह रवि समोसे तल रहा था, सुनीता तैयार होकर आई—चेहरे पर नई चमक और आत्मसम्मान। “कुछ काम दे सकते हो?” “जलेबी बनाना आता है?” “पूरा मोहल्ला खाता था मेरे हाथ की जलेबी!” रवि ने ठेले के कोने में एक पुरानी कढ़ाई और चूल्हा रख दिया। पहली बार सुनीता ने जलेबी बनाई। आस-पास के बच्चों ने उत्साहित होकर चखी। रवि ने उन्हें “मिठास वाली आंटी” कहा। सुनीता ने पहली बार खुद को बोझ नहीं, किसी की ज़रूरत महसूस किया।

धीर-धीरे, मोहल्ले में चर्चा होने लगी। रवि की दुकान अब “समोसे-जलेबी” स्टॉल हो गई। सुनीता की मेहनत और हुनर ने दुकान को नई ऊँचाई दी। महिलाओं और बच्चों ने खास मांग करना शुरू किया।

रवि ने रोज की कमाई का हिस्सा सुनीता को देने की कोशिश की। सुनीता ने मना किया, “मैंने बस मदद की है।” रवि ने समझाया, “साथ देने का नाम मदद नहीं, मेहनत का नाम हक है, और हक को गर्व से लेना चाहिए।”

समाज की परछाइयाँ

स्थानीयता के साथ-साथ दुकान को प्रसिद्धि मिली, तो कुछ लोगों की नजरें और बातें भी शुरू हो गईं। एक दिन पास की चाय वाली महिला ने सुनीता को सतर्क किया, “बहन, लोग बातें बना रहे हैं… अकेले मर्द के साथ दुकान मत चलाया करो…।”

शाम को सुनीता ने रवि से संकोच के साथ कहा, “अगर मेरी वजह से आपकी इज्जत पर बात आ रही है, तो मैं दुकान पर न आऊँ…” रवि गंभीर हो गया, बोला, “क्या कभी मेरी नीयत पर शक हुआ तुमको? तो फिर समाज के लिए क्यों अपने फैसले बदलूँ? जिसने भूखी बच्ची को देखकर इंसानियत नहीं समझी, उसके तानों की हमें जरूरत नहीं।”

अगले दिन, रवि ने दुकान के बोर्ड पर लिखवाया — “रवि – सुनीता, समोसा-जलेबी स्टॉल: यहाँ स्वाद से ज़्यादा इंसानियत परोसी जाती है।” अब मोहल्ला भी खामोश था, क्योंकि जवाब इंसानियत ने दिया था।

अपनत्व का रिश्ता

समय बीतता गया। सुनीता अब पहले से ज़्यादा आत्मनिर्भर और खुश थी, अनवी स्कूल जाने लगी। एक दिन, अनवी ने मासूमियत में रवि से पूछा, “आप मम्मी से शादी करोगे?” रवि ने हँसते हुए कारण जानना चाहा, तो अनवी बोली, “क्योंकि आप मम्मी को खुश रखते हो, मम्मी अब रोती नहीं, और जब आप होते हो तो डर नहीं लगता।”

ये मासूमियत और अपनापन रवि के दिल को छू गया। उसी रात, रवि ने सुनीता को एक सिंपल सी अंगूठी दी और बोला, “मैं बड़ा आदमी नहीं, पर जो हूँ उसमें तुम्हारे लिए जगह है। क्या तुम मेरी जीवनसाथी बनोगी?”

सुनीता की आँखों में आँसू थे, बोली, “मुझे अब डर नहीं लगता, क्योंकि मुझे अपनाने वाला मिल गया है।” दोनों की शादी पास के मंदिर में बड़ी सादगी से संपन्न हुई, समाज की परवाह किए बिना।

नई पहचान

अब मोहल्ले में सुनीता को कोई बेघर नहीं, “भाभीजी” के नाम से जानता था। रवि और सुनीता की दुकान अब दोगुनी चली। अनवी हर सुबह नए कपड़ों में स्कूल जाने लगी। अब हर ग्राहक जानता था — इस दुकान पर सिर्फ स्वाद नहीं, इंसानियत भी मिलती है।

कई बार, जो खुद टूट जाते हैं, वही दूसरों के जख्म भरने का सबसे अच्छा जरिया बन जाते हैं। रवि और सुनीता की कहानी इसी सच्चाई का प्रमाण थी।

प्रेरणा

वो ठेला, जिसमें कभी अकेलेपन और मजबूरी की छाया थी, अब आत्मसम्मान, इंसानियत और प्रेम की खुशबू से महकने लगा। रवि ने समाज की तानों को पीछे छोड़, सुनीता को सम्मान दिया। सुनीता ने अपने अस्तित्व को पाया। अनवी को एक सुरक्षित, प्यारा संसार मिला।

कभी-कभी, भगवान हमें गिराता है ताकि हमें उठाने वाला कोई असली हाथ मिल सके।