गरीब बच्चा होटल में रो रहा था, लेकिन फिर जो वेटर ने किया… सबकी आंखें भर आईं !
दिल्ली की एक होटल की कहानी – इंसानियत की गर्मी
दिल्ली के कनॉट प्लेस के बीचों-बीच एक शानदार होटल था – रॉयल स्प्रिंग।
बाहर महंगी कारें, अंदर कांच की चमक और रॉयल फर्नीचर से सजी दुनिया, जहां हर चीज रुतबे से तोली जाती थी।
दोपहर का वक्त था। होटल के अंदर एसी की ठंडक में गूंजता हुआ धीमा क्लासिकल म्यूजिक, बिजनेसमैन के हंसते चेहरे, वेटर्स की तेज चाल – हर चीज अपनी जगह पर थी।
इसी माहौल में, होटल के कांच के दरवाजे से एक नन्हा बच्चा दाखिल हुआ।
उम्र लगभग 9 साल, पतला-दुबला, धूल से सना चेहरा, गंदा सा शर्ट और नंगे पांव।
उसके पांव के नीचे संगमरमर की ठंडी जमीन थी, लेकिन चेहरा गर्म था – आंसुओं से।
वो चुपचाप एक कोने में जाकर बैठ गया।
ना कुछ मांगा, ना किसी को टोका।
बस सिर नीचे करके फर्श को देखता रहा।
होठों के नीचे हल्की सी सिसकी, जो सिर्फ वही सुन सकता था जो सुनना चाहता।
पास खड़े कुछ मेहमानों ने उसकी ओर देखा, लेकिन फिर नजरें फेर लीं।
किसी ने बुदबुदाया, “कहां से चला आता है कोई भी! होटल है या धर्मशाला?”
कोई बोला, “इससे पहले कोई वायरल वीडियो बन जाए, हटाओ इसे।”
होटल मैनेजर, उम्र 45, टाई कसते हुए आया और तीखी आवाज में बोला,
“कहां से आया रे? बाहर जा, यहां भीख मांगने नहीं आने का।”
बच्चा चौंका, लेकिन कुछ बोला नहीं।
मैनेजर ने रिसेप्शन की ओर इशारा किया, “कॉल करो सिक्योरिटी को।”
तभी पीछे से एक आवाज आई,
“रुकिए सर, एक मिनट।”
वेटर की ड्रेस पहने एक आदमी धीरे से सामने आया।
नाम था मोहन, उम्र 32।
वह उस बच्चे के पास झुका और आवाज धीमी कर ली,
“बेटा, नाम क्या है तुम्हारा?”
बच्चा डरते हुए बोला, “राहुल।”
“कब से कुछ खाया नहीं?”
राहुल ने सिर हिलाया। उसकी आंखें छलकने लगी थीं।
मोहन की आंखें पिघल गईं। वह कुछ पल चुप रहा, फिर धीमे स्वर में पूछा,
“क्यों आए हो यहां?”
राहुल ने जेब से एक पुराना फटा हुआ फोटो निकाला।
फोटो में एक आदमी था – मामूली कपड़े, लेकिन मुस्कुराता चेहरा।
“यह मेरे पापा हैं। दो दिन पहले यहीं किसी होटल में काम पर आए थे। नहीं लौटे…”
मोहन की सांस रुक सी गई। उसने कांपते हुए फोटो उठाया, कुछ देखा और फिर अचानक पीछे मुड़ गया।
उसके चेहरे पर अब कुछ अजीब था – एक चौंकने जैसा, एक पहचान जैसा।
लेकिन उसने तुरंत कुछ नहीं कहा।
“तू यहीं बैठ, मैं अभी आता हूं।”
राहुल चुप रहा, लेकिन उसकी आंखों में पहली बार थोड़ी उम्मीद चमकी थी।
मोहन तेजी से होटल के स्टाफ कॉर्नर की ओर गया।
हाथ में अब भी वह पुरानी तस्वीर थी।
वह तस्वीर मोहन के दिल के किसी कोने से टकरा गई थी।
क्योंकि वह चेहरा उसे जाना-पहचाना लग रहा था।
मोहन ने अपनी लॉकर चाबी निकाली और स्टाफ वॉल पर चिपके पुराने ग्रुप फोटोस को पलटना शुरू किया।
2018 की एक फोटो के सामने वो ठहर गया –
यही है!
तस्वीर में खड़े चौथे लाइन वाले शख्स पर उसकी नजर जम गई – वही चेहरे की बनावट, वही आंखें।
विजय – उसने धीमे से कहा।
विजय वही आदमी, जो कुछ साल पहले इसी होटल में हाउसकीपिंग स्टाफ में था।
बेहद मेहनती, चुप रहने वाला, अपने बेटे की बातें करते हुए आंखों में सपना लिए रहने वाला।
लेकिन एक दिन अचानक गायब हो गया।
किसी को नहीं पता चला क्यों।
अफवाहें थीं – किसी ने कहा वह चोरी के झूठे इल्जाम में फंस गया, किसी ने कहा उसने खुद इस्तीफा दे दिया।
मोहन तब नया था – ज्यादा जानता नहीं था।
लेकिन अब सब कुछ जुड़ रहा था।
वो फौरन मैनेजर के केबिन में गया,
“सर, कुछ जरूरी बात करनी है, प्लीज अभी के अभी।”
मैनेजर जो अब तक सिक्योरिटी को बुला रहा था, खींचते हुए बोला,
“क्या है मोहन?”
मोहन ने बच्चे की तस्वीर और स्टाफ फोटो सामने रख दी,
“सर, यह बच्चा किसी होटल में अपने पिता को ढूंढ रहा है और उसका पिता हमारे ही स्टाफ का पुराना मेंबर था – विजय।
सर, मैंने इन्हें पहचाना है।”
मैनेजर थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला,
“वह तो सालों पहले खुद छोड़ गया था ना, या निकाला गया था। चोरी वाली बात थी कुछ।”
मोहन की आवाज अब सख्त थी,
“सर, वह कभी चोर नहीं था। मुझे याद है वह कैसा इंसान था।
लेकिन अगर उसका बेटा आज दो दिन से भूखा, नंगे पांव होटल के कोने में बैठा है, तो शायद हमने ही कुछ खो दिया है।”
मैनेजर अब कुछ ना कह सका।
मोहन ने कहा,
“मुझे 10 मिनट दीजिए, मैं उसे खाना खिलाना चाहता हूं – इंसानियत के लिए।”
वह वापस उस बच्चे के पास पहुंचा, जो अब भी कोने में बैठा था।
आंखें बंद थीं – शायद थकान से झपकी आ गई थी।
मोहन उसके पास बैठा,
“राहुल, चल तुझे खाना खिलाता हूं।”
राहुल ने आंखें खोली, हल्की मुस्कान लेकिन अब भी झिझक।
मोहन ने उसका हाथ थामा,
“तू मेरे साथ है और जब तक तेरा पापा नहीं मिलता, मैं तेरा वेटर नहीं, तेरा दोस्त हूं।”
वह उसे होटल के स्टाफ एरिया में ले गया।
एक थाली में गर्म रोटियां, दाल, चावल और एक मिठाई रखी।
राहुल ने कांपते हाथों से पहला कौर लिया और अचानक आंखों से आंसू बहने लगे।
वो रो रहा था, लेकिन अब भूख से नहीं – प्यार की पहली थाली खाने से।
मोहन की आंखें भी भर आईं, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा क्योंकि कुछ चुप्पियां सिर्फ दिल समझता है।
मोहन ने राहुल को खाना खिलाने के बाद स्टाफ रूम में आराम करने दिया।
छोटे से कमरे में रखे एक लकड़ी के बेंच पर राहुल गहरी नींद में सो गया था – पहली बार दो दिन बाद, बिना डर, भूख या अनजान चेहरों के बीच।
मोहन वहीं बैठा रहा, दीवार से टिक कर।
उसके हाथ में अब भी विजय की फोटो थी और दिल में एक अजीब सी हलचल।
वह सिर्फ इसीलिए परेशान नहीं था कि एक गरीब बच्चा अपने पिता को ढूंढ रहा है,
बल्कि इसलिए कि विजय सिर्फ उसका पुराना साथी नहीं था –
वो उसका बड़ा भाई था।
हां, वही बड़ा भाई जिससे मोहन पिछले सात सालों से कोई संपर्क नहीं रख पाया था।
बचपन में दोनों बिहार के एक छोटे गांव से दिल्ली आए थे।
विजय ने पहले रिक्शा चलाया, फिर होटल में छोटी नौकरी मिली।
मोहन को पढ़ने का मन था – विजय ने सब छोड़कर उसका खर्च उठाया।
लेकिन किस्मत ने मोड़ लिया।
एक दिन होटल में चोरी का इल्जाम लगा – विजय को हटाया गया।
वो गुस्से में था, टूटा हुआ था और उसी दिन दोनों भाइयों के बीच कभी ना भरने वाली चुप्पी आ गई।
विजय घर नहीं लौटा, मोबाइल बंद।
मोहन ने भी आत्मसंतोष में खुद को समझा लिया – अगर वह मासूम होता तो क्यों नहीं लौटा?
लेकिन अब जब विजय का बेटा उसके सामने था – भूखा, बेसहारा – वह सारे जवाब खोखले लग रहे थे।
मोहन ने स्टाफ लॉकर से एक पुरानी डायरी निकाली।
उसमें विजय के हाथ की लिखावट थी।
मोहन के लिए आखिरी पन्ने पर लिखा था –
“तू अगर कभी मेरी जगह होता, तो समझ पाता कि किसी पर झूठा इल्जाम लगना कैसे तोड़ता है।
मैं दोषी नहीं था, पर साबित नहीं कर पाया।
मैंने तुझे शर्मिंदा करने के डर से खुद को खो दिया।
लेकिन अगर तुझे यह मिल रही है तो जान ले – मेरा बेटा राहुल तेरे जैसा ही मजबूत बने, यही दुआ है।”
मोहन अब खुद को रोक नहीं पाया – आंखें बह चलीं।
वो उठा, राहुल के पास गया और पहली बार उसके सिर पर हाथ रखा,
“राहुल, उठो बेटा।”
राहुल ने आंखें मिचमिचाते हुए खोली।
“तुझे पता है ना तेरा पापा कभी तुझे अकेला नहीं छोड़ते? वह तुझसे बहुत प्यार करते हैं।”
राहुल ने सिर हिलाया,
“लेकिन वह कहां हैं?”
मोहन ने अब धीरे से उसका चेहरा अपने दोनों हाथों में थामा और कहा,
“तेरे पापा मेरे भाई हैं। तू मेरा भतीजा है राहुल।”
राहुल कुछ पल के लिए चुप रहा।
उसकी समझ में एक ही बात आई – अब वह अकेला नहीं था।
वो मोहन से लिपट गया और दोनों की आंखों से बहती खामोशी ने सालों का सूखा मिटा दिया।
मोहन ने तय कर लिया – अब वह विजय को ढूंढेगा।
जैसे भी हो, जहां भी हो, उस अधूरी बात को पूरा करना होगा।
क्योंकि अब बात सिर्फ एक भाई की नहीं, एक बेटे के भविष्य की भी थी।
राहुल अब मोहन के साथ होटल के ही क्वार्टर में रह रहा था।
दोनों के बीच का रिश्ता कुछ ही घंटों में खून से कहीं ज्यादा गहरा हो गया था।
लेकिन अब एक नया लक्ष्य था – विजय को ढूंढना।
मोहन ने अगले ही दिन एक छुट्टी ली।
उसके पास विजय का कोई नंबर नहीं था, लेकिन एक नाम था –
विश्वकर्मा चौराहा, करोल बाग
जो कभी विजय ने लिखा था अपने एड्रेस फॉर्म में।
वहीं से उसने शुरुआत की।
करोल बाग की गलियां कभी बहुत कुछ कहती थीं – अब सिर्फ भीड़भाड़ और टूटे पोस्टर बचे थे।
मोहन ने चप्पे-चप्पे पर विजय का फोटो दिखाया,
“इन्हें जानते हो? कभी यही रहते थे, विजय नाम के अंकल? इनका बेटा अब मुझे मिला है।”
कभी कोई झटक कर मुंह फेर लेता, तो कहीं एक बूढ़ा दुकानदार गर्दन हिलाकर कहता,
“कभी आया करता था, पर अब सालों से देखा नहीं।”
मोहन अब हर मोड़ पर थकने लगा था, लेकिन राहुल का चेहरा याद आते ही वो और तेज चलने लगता।
तीसरे दिन, एक पुराना कबाड़ी वाला उसे पहचान में आया,
“अरे हां, विजय बाबू तो रहते थे सामने वाली गली में, पर कई महीने से अस्पताल में हैं शायद। कोई लेने नहीं आया।”
मोहन का दिल धड़कने लगा।
वो तुरंत पास के सरकारी अस्पताल पहुंचा – इमरजेंसी वार्ड, जनरल बेड और एक पुरानी बिल्डिंग के कोने में –
बेड नंबर 23 पर वो चेहरा था – उम्र से थका हुआ, लेकिन पहचान वही थी।
मोहन के कदम रुक गए, कुछ देर बस देखता रहा,
“भैया… भैया…”
विजय ने धीरे से आंखें खोली।
आंखें धुंधली थीं, लेकिन आवाज सुनकर रुकीं,
“मोहन…”
वो नाम जैसे कमरे की हवा में गूंज गया।
मोहन पास आया, उसका हाथ थामा,
“कहां चले गए थे भैया?”
विजय की आंखें अब भर आईं, होठ कांपे लेकिन आवाज नहीं निकली।
“तुम्हारा राहुल – मेरा भतीजा – दो दिन भूखा रहकर तुम्हें ढूंढ रहा था… और मुझे मेरा भाई।”
विजय अब रो रहा था – वही भाई जो कभी चुपचाप गायब हो गया था, आज मोहन के सामने जिंदा था, पर टूटा हुआ।
कुछ दिन बाद विजय ठीक हो गया।
अस्पताल से छुट्टी मिली और अब राहुल उसे देखकर दौड़कर गले लग जाता।
होटल में सबको यह कहानी पता चल चुकी थी।
मोहन ने राहुल को स्कूल में दाखिला दिलाया।
विजय को एक नई नौकरी मिली – उसी होटल में, लेकिन इस बार इज्जत के साथ।
अब हर बच्चा जो गुमसुम कोने में बैठा हो, जरूरी नहीं कि वह सिर्फ भूखा हो –
शायद वह अपने पूरे वजूद को तलाश रहा हो।
कभी नजरें फेरने से पहले एक बार देख लेना।
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समाप्त
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