कंपनी के गार्ड ने मजदूर को कंपनी में घुसने नहीं दिया, शाम होते ही मजदूर ने खरीद डाली कंपनी

सुबह की हल्की ठंडक के साथ शहर की भागदौड़ शुरू हो गई थी, लेकिन अर्जुन के मन में अजीब सी बेचैनी थी। उसने अपने पुराने, टूटे हुए जूतों को देखा—सोचा, इस बार तनख्वाह मिलेगी तो जरूर ठीक करवाएगा। आज महीने की पहली तारीख थी, यानी तनख्वाह का दिन। घर पर बच्चे बेसब्री से उसका इंतजार कर रहे थे और पत्नी राधा ने खास पकवान बना रखे थे।

जैसे ही अर्जुन फैक्ट्री के गेट पर पहुँचा, गार्ड ने उसे रोक लिया। ‘‘रुक जाओ अर्जुन!’’ गार्ड ने आदेश वाले स्वर में कहा। अर्जुन ने पूछा, ‘‘क्यों भाई, अंदर जाने क्यों नहीं दे रहे?’’ गार्ड की नजरें झुकी हुई थीं। ‘‘ऑर्डर आया है, अब तुम्हारी जरूरत नहीं। लिस्ट से नाम काट दिया गया है।’’

अर्जुन के दिल पर चोट सी लगी। कल रात तक जो आदमी फैक्ट्री में ओवरटाइम करता था, आज उसे गेट के बाहर कर दिया गया। ऊपर वाले, जिनका चेहरा कभी साफ नहीं देखा, उन्हीं ने उसकी रोजी-रोटी छीन ली। अर्जुन ने अपनी पहचान पट्टी उतारकर गार्ड के पैरों में फेंक दी। बोला, ‘‘आज तुमने मुझे गेट पर रोका है, कल देखना मैं किस गेट से अंदर आता हूँ।’’

दिल में अपमान और गुस्से की आग थी, पर सच्चाई भी जानता था—गार्ड है तो बस आदेश का पुतला। जेब में सिर्फ 57 रुपये थे और दिमाग में हज़ारों सवाल। घर, बच्चों की फीस, राशन, किराया—सब चिंता उसके सिर पर सवार थी। सड़क पर चलते हुए उसने देखा, स्कूल बस में बैठा एक बच्चा हाथ हिला रहा है—अपने ही मोहित और सूरज स्कूल तक ढंग से नहीं जा पाते। उसे एहसास हुआ, इस शहर में मजदूर की जगह या तो मशीन ले लेती है या कोई और मजदूर।

बाज़ार के मोड़ पर कॉलेज का पुराना दोस्त समीर मिला, जो अब बड़ा अफसर बन गया था। समीर ने अर्जुन की हालत भांप ली। चाय की दुकान पर बैठकर अर्जुन ने उसे सब कुछ बता दिया। समीर ने बताया फैक्ट्री की माली हालत खराब है—बैंक का कर्ज, छूटे हुए कॉन्ट्रैक्ट, गिरता प्रोडक्शन। ‘‘अगर सही दांव लगे तो फैक्ट्री खरीदी जा सकती है’’—समीर ने सुझाया। अर्जुन को विश्वास नहीं हुआ—‘‘मैं मजदूर, और फैक्ट्री का मालिक?’’ समीर बोला, ‘‘पैसे से ज्यादा हिम्मत चाहिए, और तेरे पास वो है।’’

अर्जुन ने अपने जीवन के उन लोगों को याद किया, जिनकी कभी मदद की थी—हरनाम सिंह जैसे व्यापारी, पुराने साथी मजदूर। कुछ ने रुपये दिए, कुछ ने साथ निभाने का वादा किया। दिन ढलने तक उसके पास इतना हो गया कि वो साहस के साथ मालिक के सामने जा सके। समीर ने कहा, ‘‘मजदूर बनकर नहीं, सौदागर बनकर जाना।’’

मालिक श्रीकांत अग्रवाल के दफ्तर में अर्जुन घुसा, फाइलों में सबूत पेश किए—बैंक का नोटिस, गिरता उत्पादन, पुराने ग्राहक छोड़कर जा चुके। मालिक बोला, ‘‘क्या शर्तें हैं तुम्हारी?’’ अर्जुन ने साफ कहा, ‘‘फैक्ट्री लूंगा, लेकिन सभी मजदूरों की बहाली और वेतन समय पर देना होगा।’’ थोड़ी चुप्पी के बाद मालिक तैयार हो गया।

शाम होते-होते शहर में खबर फैल गई—सुबह निकाला गया मजदूर अब फैक्ट्री का मालिक बन चुका था। पहली ही बैठक में अर्जुन ने आदेश दिया—‘‘निकाले गए सभी मजदूर बहाल होंगे, वेतन समय पर मिलेगा, और काम की शर्तों में सुधार होगा।’’

अगली सुबह वही अर्जुन नीले पुराने शर्ट में गेट पर पहुँचा। गार्ड ने सलाम किया—‘‘सुप्रभात मालिक!’’ अर्जुन मुस्कुराया—‘‘मालिक नहीं, अर्जुन कहो।’’

फैक्ट्री की चिमनी से निकलता धुआँ आज उसके लिए, उसके साथियों के लिए था। उसने सभी मजदूरों से कहा, ‘‘अब यहाँ सिर्फ मेहनत और इज्ज़त का राज चलेगा, कोई गेट पर रोका नहीं जाएगा।’’

अर्जुन का दिल गर्व से भर आया। कल तक मजदूर, आज मालिक—लेकिन दिल वही रहा, अपने लोगों का, अपनी मेहनत का। ऐसी ही कहानियों के लिए जुड़े रहिए…

सीख: मेहनत, ईमानदारी और आत्मसम्मान की ताकत से नामुमकिन भी मुमकिन हो सकता है।