जब ममता और इंसानियत ने बदल दी एक बेटी की किस्मत – हरियाणा के एक गांव की सच्ची कहानी
क्या होता है जब एक मां का प्यार समाज के डर के आगे हार जाता है? क्या होता है जब एक मासूम बच्ची को उसके अपने ही परिवार वाले लावारिस छोड़ देते हैं? हरियाणा के एक समृद्ध गांव में ऐसी ही एक मार्मिक घटना घटी, जिसने सबको झकझोर कर रख दिया।
इस कहानी की शुरुआत होती है चौधरी हरपाल सिंह के परिवार से, जहाँ बेटे के जन्म पर जश्न और बेटी के जन्म पर मातम मनाया जाता था। सूरज, परिवार का सबसे छोटा बेटा, अपने पिता और भाई से बिल्कुल अलग था। उसने अपने प्यार पूजा से शादी की, जो परिवार को कभी मंजूर नहीं थी। जब पूजा गर्भवती हुई, सूरज विदेश नौकरी के लिए चला गया और पूजा अकेली सास के तानों के बीच जीने लगी।
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पूजा की सास राजेश्वरी देवी ने साफ कह दिया था – अगर लड़की हुई तो उसकी इस घर में कोई जगह नहीं। पूजा डर और ममता के बीच जूझती रही, लेकिन बेटी के जन्म के बाद परिवार के दबाव में उसने अपनी ही बेटी को अस्पताल में लावारिस छोड़ दिया। गांव में झूठ फैला दिया गया कि बच्ची मृत पैदा हुई है।
लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था। अस्पताल की नर्स सिस्टर ग्रेस ने उस बच्ची को अपनी ममता की छांव में ले लिया। छह महीने तक उसने उस बच्ची को मां की तरह पाला, उसका नाम रखा ‘एंजेल’। ग्रेस के लिए उसकी ड्यूटी सिर्फ नौकरी नहीं, इंसानियत का धर्म थी।
छह महीने बाद सूरज वापस लौटा और सच जानकर अपनी बेटी की तलाश में रात के अंधेरे में अस्पताल पहुंचा। वहां उसकी मुलाकात सिस्टर ग्रेस से हुई, जिसने एंजेल को उसकी गोद में सौंप दिया। सूरज ने ग्रेस को बहन मानकर राखी बांध दी और अस्पताल के पीडियाट्रिक वार्ड को ग्रेस के नाम पर दान कर दिया।
घर लौटने पर सूरज ने परिवार के सामने अपनी बेटी का हक मांगते हुए कहा – “यह मेरी बेटी है, इस घर की वारिस है और यहीं रहेगी।” हरपाल सिंह भी पोती को देखकर पिघल गए और पहली बार अपनी सोच बदल दी।
दिया के घर में कदम रखते ही जैसे घर की किस्मत बदल गई। सूरज का प्रमोशन हुआ, परिवार में खुशियाँ लौट आईं और राजेश्वरी देवी, जो कभी दिया को मनहूस कहती थीं, अब उसके बिना एक पल नहीं रह पाती थीं। सिस्टर ग्रेस भी परिवार का अहम हिस्सा बन गईं – दिया की मौसी।
यह कहानी हमें सिखाती है कि बेटियां बोझ नहीं, घर की लक्ष्मी होती हैं। सिस्टर ग्रेस जैसी गुमनाम नायिकाएं समाज को इंसानियत का सही मतलब सिखाती हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा सिर्फ शब्द नहीं, हर घर की सच्चाई बने – यही संदेश देती है ये कहानी।
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