इस बूढ़े के झोले में छुपा था वो भयानक सच जिसे देखकर IPS का दिमाग फट गया…#ipsofficer #oldmanstory
दिल्ली की तपती दोपहर। ट्रैफिक का शोर कानों को फाड़ रहा था। लोग अपने-अपने काम में मशगूल थे। उसी भीड़ के बीच, एक 75 साल का बूढ़ा इंसान सड़क पार कर रहा था। उसके हाथ में एक पुराना, फटा हुआ झोला था। वह झोला उसके सीने से इस तरह चिपका हुआ था जैसे उसमें उसकी पूरी जान हो।
चेहरे पर झुर्रियां, आंखों में अजीब-सा डर और कदम इतने कांपते कि जैसे कभी भी गिर पड़ेंगे। लेकिन उसके झोले को पकड़ने में ज़रा भी ढील नहीं थी।
तभी अचानक एक काली सरकारी एसयूवी चीखते ब्रेक के साथ उसके पास आकर रुकी। गाड़ी से उतरे दो सिपाही और उनके पीछे आया 35 साल का जवान आईपीएस अफसर—विवेक राणा। दिल्ली पुलिस में उसका नाम रौब और घमंड के लिए मशहूर था।
विवेक ने बूढ़े को घूरा और गुस्से से चीखा—
“क्या बकवास है बुड्ढे? मरना है क्या? बीच सड़क में खड़ा है?”
बूढ़ा कुछ बोल पाता, इससे पहले ही विवेक ने उसे जोर से धक्का दे दिया। बूढ़ा सड़क पर गिर पड़ा, लेकिन उसका झोला अब भी सीने से चिपका रहा। विवेक ने इशारा किया—
“देखो, क्या छुपा रखा है इसने। जरूर चोर है।”
सिपाही झोला छीनने लगे, लेकिन बूढ़ा जाने कहां से ताकत लाया और झोले को और कसकर पकड़ लिया। सिपाही ने थप्पड़ जड़ा, विवेक ने लात मारी। राहगीर तमाशा देख रहे थे, कोई रोकने आगे नहीं आया।
आख़िरकार बूढ़े से झोला छीन लिया गया। जैसे ही विवेक ने उसे खोला—उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं। अंदर सिर्फ़ एक डायरी, एक मेडल और कुछ पुरानी तस्वीरें थीं। लेकिन उन तस्वीरों में से एक ने उसकी रूह तक हिला दी।
वो फोटो उसकी ही थी—विवेक की। बचपन में, एक महिला और एक जवान आदमी के साथ। वह जवान आदमी हूबहू उस बूढ़े जैसा दिख रहा था।
सन्नाटा छा गया। सिपाही डायरी पढ़ने लगे। उसमें लिखा था:
“3 मार्च 1987 – मेरा बेटा विवेक आज 2 साल का हो गया। मैंने उसकी पहली तस्वीर खींची। वह मेरी जान है। मैं उसे अफसर बनाना चाहता हूं…”
विवेक की सांसें थम गईं। डायरी के अगले पन्ने ने तो उसे तोड़ दिया।
“1977 – आतंकियों से लड़ते हुए मेरी पत्नी शहीद हो गई। मैंने अपने बेटे को अनाथालय में छोड़ दिया ताकि वह सुरक्षित रहे। मैं बस एक बार उसे देखना चाहता हूं…”
विवेक कांपने लगा। उसने बूढ़े से पूछा—
“तुम… कौन हो?”
बूढ़े ने पहली बार सिर उठाकर कहा—
“मैं तेरा बाप हूं, विवेक।”
और फिर वहीं गिर पड़ा। सिर से खून बह रहा था। भीड़ अब खामोश थी। कोई वीडियो नहीं बना रहा था। सब स्तब्ध थे कि अभी-अभी एक बेटा अपने ही पिता को पीट चुका है।
विवेक वहीं सड़क पर जड़ हो गया। आंखों में आंसू। हाथ में डायरी। बचपन की यादें जुड़ने लगीं—वो अनाथालय, वो अजनबी जो हर जन्मदिन पर कार्ड भेजता था, जो छुपकर मिठाई रख जाता था। वही था… उसका पिता।
लेकिन अब देर हो चुकी थी।
हॉस्पिटल का सच
बूढ़े को तुरंत अस्पताल ले जाया गया। हालत नाजुक थी। विवेक उसके बिस्तर के पास बैठा रो रहा था।
“पापा… प्लीज़… एक बार आंखें खोलिए।”
बूढ़े की आंखें हल्की सी हिलीं लेकिन खुली नहीं। विवेक ने डायरी पलटी तो उसमें एक सीलबंद लिफाफा मिला। कांपते हाथों से खोला।
उसमें लिखा था:
“विवेक, मैं सिर्फ़ तेरा बाप नहीं हूं। मैं भारत का गुप्त एजेंट हूं—कोडनेम ध्रुव। मिशन कालकोठरी की सच्चाई मेरे पास है। दुश्मनों ने मुझे गद्दार घोषित किया। मुझे भागना पड़ा। लेकिन मेरे पास सबूत हैं। अब यह सब तेरे हवाले है।”
साथ ही एक पेंडेंट रखा था—उसकी मां की तस्वीर। पीछे अंकित था—
“तेरे लिए जिए, तेरे लिए मरे।”
विवेक फूट-फूटकर रो पड़ा।
तभी लिफाफे से एक माइक्रो चिप निकली। उसने लैपटॉप में डाली। पासवर्ड मांग रहा था। पेंडेंट के पीछे छोटे अक्षरों में एक कोड लिखा था। डालते ही स्क्रीन पर वीडियो खुला।
वीडियो में वही बूढ़ा—जवान अवस्था में।
“मैं एजेंट आदित्य हूं। मिशन कालकोठरी में हमें नेताओं और अफसरों की गद्दारी का सबूत मिला। मेरे साथी को मार दिया गया। मुझ पर झूठा केस लगाया गया। अब सारा सच मेरे बेटे के पास है। विवेक, तू यह मिशन पूरा करेगा।”
विवेक का दिमाग सुन्न हो गया।
लेकिन तभी… हॉस्पिटल में धमाका हुआ। तीन नकाबपोश घुस आए और गोलियां बरसाने लगे। एक गोली बूढ़े के सीने में लगी। विवेक चीखा—
“नहीं!”
बूढ़े ने मरते वक्त उसके हाथ पकड़कर कहा—
“कोड… पहाड़गंज… पुरानी हवेली… बॉक्स… सब वहीं है।”
और फिर उसकी सांसें थम गईं।
हवेली का राज
विवेक सीधे पहाड़गंज की पुरानी हवेली पहुंचा। अंदर धूल, जाले और एक लकड़ी का संदूक। कोड डालते ही ताला खुला।
अंदर था—एक ब्लैक बॉक्स, दस्तावेज़ और वीडियो सबूत। नेताओं, व्यापारियों, अफसरों के नाम। उनमें से एक नाम देखकर विवेक के पैरों तले ज़मीन खिसक गई—डीआईजी प्रशांत जोशी। वही अफसर जो कुछ दिन पहले तक उसका गुरु बना घूमता था।
बाहर अचानक एसयूवी आकर रुकीं। दर्जनों नकाबपोश हथियार लेकर उतरे। सबसे आगे था—डीआईजी प्रशांत।
“तो विवेक… तू यहां तक पहुंच ही गया। लेकिन अब जिंदा नहीं जाएगा।”
चारों तरफ गोलियों की बौछार शुरू हो गई। हवेली गूंज उठी। विवेक ने भी जवाबी फायरिंग की। खून, धमाके और चीत्कार।
लेकिन विवेक के पास आखिरी चाल थी। उसने तहखाने में लगे कैमरे से ब्लैक बॉक्स की लाइव स्ट्रीम पूरे देश में चला दी।
टीवी चैनलों पर खुलने लगे राज—नेताओं की डील, अफसरों की गद्दारी, नकली हमले और विदेशी पैसों की परतें।
सबसे बड़ा खुलासा—डीआईजी प्रशांत खुद देशद्रोही था।
अंत और शुरुआत
जैसे ही सच्चाई बाहर आई, सरकार ने सेना भेज दी। हेलीकॉप्टर उतरे, फोर्स ने हवेली घेर ली। प्रशांत को भागते पकड़ा गया। हथकड़ी लगाते ही जवान बोला—
“देशद्रोह की सज़ा जानता है ना?”
प्रशांत चिल्लाता रहा, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी।
कुछ ही दिनों बाद सरकार ने विवेक के पिता, एजेंट ध्रुव, को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया। राष्ट्रपति ने खुद विवेक को गले लगाया और कहा—
“देश को तुम जैसे बेटे पर गर्व है।”
लेकिन सबसे भावुक पल वह था जब विवेक उसी सड़क पर लौटा, जहां उसने अपने पिता को धक्का दिया था। अब वहां एक पत्थर पर खुदा था नाम—
एजेंट ध्रुव – पिता और देश का सच्चा सिपाही।
विवेक घुटनों के बल बैठा और पत्थर को चूमा।
“माफ करना पापा… बहुत देर से आपको पहचाना। लेकिन अब आप अमर हैं।”
जेब से पेंडेंट बाहर निकला। उसमें मां की तस्वीर चमक रही थी। पीछे लिखा—
“तेरे लिए जिए, तेरे लिए मरे।”
सूरज ढल रहा था। लेकिन उस दिन डूबता सूरज भी मानो एजेंट ध्रुव को सलाम कर रहा था।
और उसी शाम आदेश आया—
“IPS विवेक राणा को RAW की विशेष यूनिट का कमांडर नियुक्त किया जाता है। कोड नेम—ध्रुव 2।”
अब यह सिर्फ़ एक बेटे की कहानी नहीं थी। यह उस पिता की अधूरी लड़ाई थी जिसे उसका बेटा पूरा करने निकला था।
क्योंकि—
देश की रक्षा कभी खत्म नहीं होती।
और बाप की कसम कभी अधूरी नहीं रहती।
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