15 दिन बच्चे का इलाज करने के बाद डॉक्टर मां से बोला पैसे नहीं चाहिए मुझसे शादी कर लो
संध्या, उसके बेटे और डॉक्टर साहब की इंसानियत भरी कहानी
एक महिला, संध्या, अपने बीमार बेटे पीयूष को लेकर अस्पताल जाती है। उसके पास पैसे नहीं थे, इसलिए वह डॉक्टर से गिड़गिड़ाकर कहती है, “डॉक्टर साहब, मेरे बच्चे का इलाज कर दीजिए। मैं बाद में काम करके आपके पैसे चुका दूंगी।” लेकिन डॉक्टर साफ मना कर देते हैं, कहते हैं, “यह हॉस्पिटल ऐसे नहीं चलता। इलाज के लिए पैसे देने होंगे। गिड़गिड़ाने से कुछ नहीं होगा, कहीं से पैसों का इंतजाम करो, तभी इलाज होगा।”
संध्या की आंखों में आंसू आ जाते हैं। तभी एक और डॉक्टर वहां से गुजरते हैं। वे संध्या को उसके बेटे के साथ परेशान देख लेते हैं, और उनके मन में पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं। वे तुरंत आगे बढ़ते हैं और कहते हैं, “कोई बात नहीं, तुम्हारे बच्चे का इलाज हो जाएगा। इसे तुरंत एडमिट कर दो, जो भी खर्च आएगा, मैं देख लूंगा।” डॉक्टर साहब खुद इलाज करवाते हैं।
इलाज के बाद जब संध्या कुछ पैसे डॉक्टर को देने लगती है, तो डॉक्टर कहते हैं, “पैसे देने की जरूरत नहीं है। अगर एहसान मानना है तो मुझसे शादी कर लो।” यह सुनकर संध्या हैरान रह जाती है। वह सोचने लगती है, कौन हैं ये डॉक्टर, जिन्होंने उसके बेटे का मुफ्त इलाज करवाया और अब शादी की शर्त रख दी?
संध्या की पिछली जिंदगी
लखनऊ से जबलपुर की एक ट्रेन में संध्या अपने मासूम बेटे के साथ सफर कर रही थी। वह बहुत परेशान थी। जबलपुर पहुंचने पर वह भीड़ देखकर घबरा जाती है, रात का समय था और लोग उसे अजीब नज़रों से देख रहे थे क्योंकि वह बहुत खूबसूरत थी। वहीं स्टेशन पर एक युवक, अजय, उसे देखता है और समझ जाता है कि यह महिला पहली बार अकेले सफर कर रही है। अजय उसकी मदद करता है, उसे उसकी बहन के घर तक सुरक्षित पहुंचाता है।
संध्या अपनी बहन रीमा के घर पहुंचती है, बहन को देखकर फूट-फूटकर रोती है। रीमा उसे घर में रख लेती है और पूछती है, “क्या हुआ बहन? तू इतनी परेशान क्यों है?” तब संध्या अपनी पूरी कहानी बताती है—उसने अपने पति से भागकर शादी की थी, लेकिन पति जुआरी निकला। एक दिन पति ने जुए में उसे ही दांव पर लगा दिया। संध्या किसी तरह पीछे की खिड़की से भाग आई और बहन के पास आ गई।
रीमा उसे दिलासा देती है, “कोई बात नहीं, जब तक मैं हूं, तुझे कोई परेशानी नहीं होगी।” संध्या बहन के घर रहने लगती है। लेकिन धीरे-धीरे जीजा को यह बोझ लगने लगता है। एक रात संध्या सुनती है कि उसके जीजा और बहन में इसी बात को लेकर लड़ाई हो रही है। जीजा कहता है, “कब तक तेरी बहन यहां रहेगी?” बहन समझाती है, “माता-पिता की प्रॉपर्टी भी थी, उसका भी हिस्सा है, कुछ दिन रह लेगी तो क्या बुरा है?”
संध्या यह सब सुनकर तय करती है कि उसे अब खुद काम करना होगा। वह बहन से जिद करती है और बाहर काम ढूंढने लगती है। आठवीं पास संध्या को झाड़ू-पोछा का काम मिलता है। वह कई घरों में काम करने लगती है। धीरे-धीरे तीन साल बीत जाते हैं। पीयूष बड़ा हो जाता है, संध्या पैसे जोड़ती रहती है ताकि बेटे का स्कूल में एडमिशन करवा सके।
पीयूष की बीमारी और अस्पताल की जद्दोजहद
एक दिन अचानक पीयूष की तबीयत बहुत खराब हो जाती है। संध्या उसे अस्पताल ले जाती है। डॉक्टर बताते हैं कि उसे टाइफाइड है, इलाज में 10-15 हजार रुपये लगेंगे। संध्या के पास सिर्फ 3 हजार रुपये थे। वह डॉक्टर से निवेदन करती है, “इन्हीं पैसों में इलाज कर दीजिए।” लेकिन डॉक्टर साफ मना कर देते हैं।
संध्या बहन के पास जाती है, बहन जीजा से पैसे मांगती है। जीजा गुस्से में मना कर देता है। संध्या बहन को दिलासा देती है, “चिंता मत करो, मैं कहीं और से जुगाड़ कर लूंगी।” बहन रोती है, संध्या को गले लगाती है।
संध्या फिर अस्पताल जाती है, डॉक्टर से गिड़गिड़ाती है, “मेरे पास सिर्फ 3 हजार हैं, इन्हें ले लीजिए, मेरे बच्चे का इलाज कर दीजिए।” डॉक्टर फिर मना कर देते हैं, सिक्योरिटी बुलाने लगते हैं। तभी अस्पताल में एक दूसरा डॉक्टर आता है, संध्या को पहचान जाता है। वह तुरंत कहता है, “चिंता मत करो, तुम्हारे बच्चे का इलाज हो जाएगा, पैसे मैं दे दूंगा।”
पीयूष को एडमिट कर लिया जाता है। इलाज शुरू होता है। डॉक्टर साहब रोज पीयूष से मिलते हैं, बातें करते हैं, उसे खुश रखते हैं। वे संध्या की भी पूरी स्थिति जान लेते हैं—पति ने जुए में दांव पर लगाया, बहन-जीजा के घर रह रही है, दूसरों के घरों में काम करके पेट पाल रही है।
शादी का प्रस्ताव
15 दिन में पीयूष ठीक हो जाता है। छुट्टी के समय संध्या डॉक्टर साहब को अपने पास के 3 हजार रुपये देती है और कहती है, “बाकी पैसे मैं काम करके चुका दूंगी।” डॉक्टर साहब मना कर देते हैं, कहते हैं, “मुझे पैसे नहीं चाहिए। अगर एहसान मानना है तो मुझसे शादी कर लो।”
संध्या हैरान हो जाती है। डॉक्टर साहब की आंखों में आंसू आ जाते हैं। वे बताते हैं, “जब तुम मुझे स्टेशन पर मिली थी, तब तुम्हारे बेटे को देखकर मुझे अपने बेटे की याद आ गई थी। मेरा परिवार यहीं जबलपुर में रहता था, लेकिन एक हादसे में मेरी पत्नी और बेटा दोनों चले गए। मैं अकेला हूं, तुम्हारे बेटे से बहुत जुड़ाव हो गया है, उससे अलग नहीं होना चाहता। इसी वजह से तुमसे शादी करना चाहता हूं।”
संध्या सोचती है, और आखिरकार हामी भर देती है। दोनों मंदिर में शादी करते हैं। संध्या और उसका बेटा डॉक्टर साहब के घर रहने लगते हैं। घर में खुशियां लौट आती हैं। रीमा को जब पता चलता है कि उसकी बहन ने डॉक्टर से शादी कर ली है, उसे कोई आपत्ति नहीं होती।
नया जीवन और सुखद अंत
पांच साल बीत जाते हैं। संध्या, जो कभी दर-दर की ठोकरें खाती थी, अब आलीशान बंगले में रहती है। उसका बेटा अच्छे स्कूल में पढ़ता है, गाड़ियों में घूमती है। डॉक्टर साहब और संध्या का परिवार खुशियों से भरा है। संध्या की कहानी दिखाती है कि भगवान देर से सही, लेकिन इंसानियत और मेहनत का फल जरूर देता है।
सीख और संदेश
यह कहानी हमें सिखाती है कि मुसीबतें कितनी भी बड़ी हों, उम्मीद और इंसानियत कभी खत्म नहीं होती। डॉक्टर साहब की मदद, संध्या का संघर्ष और अंत में दोनों का नया जीवन—यह सब हमें दिल से सोचने और दूसरों की मदद करने की प्रेरणा देता है।
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जय हिंद!
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