गंगा के जल में एक अधूरी दास्तान

दिल्ली की हलचल भरी ज़िंदगी से भरे सात दोस्तों का एक ग्रुप — जिनमें चार लड़के और तीन लड़कियाँ थीं — इस बार हरिद्वार घूमने और गंगा स्नान करने का प्लान बनाता है। हर किसी के चेहरे पर उत्साह था, जैसे काम और तनाव की ज़िंदगी से कुछ दिनों की आज़ादी मिल गई हो।

रात के नौ बजे, सभी कश्मीरी गेट बस अड्डे पर पहुँचते हैं। वहाँ से हरिद्वार जाने वाली बस तैयार खड़ी थी। बस जैसे ही स्टार्ट हुई, सबने अपने-अपने मज़ाक और खिलखिलाहटों का सिलसिला शुरू कर दिया।
अंकित, जो ग्रुप का अकेला सिंगल लड़का था, अपने जोड़ों में बैठे दोस्तों को छेड़ता हुआ बोला,
“भाई तुम सब तो कपल जोन में बैठे हो, मैं यहीं ठीक हूँ। वरना बीच में बैठ गया तो कोई जलन में न पड़ जाए!”
सभी हँस पड़े।

बस अभी स्टेशन से निकली ही थी कि तभी एक युवा लड़की अंदर आई। उम्र लगभग तेईस साल। चेहरे पर ग़ज़ब की मासूमियत, मगर आँखों में गहरी उदासी। उसने एक छोटा बैग पकड़ा था और चारों ओर देखा। पीछे की कुछ सीटें खाली थीं, पर वह आगे आकर अंकित के बगल वाली सीट पर बैठ गई।

उसके बैठते ही अंकित के दोस्त फिर हँसने लगे।
“अरे वाह अंकित! भगवान ने तेरी सुन ली!”
अंकित मुस्कुरा कर बोला, “बस करो यारो, बेचारी अभी बैठी ही है।”

बस आगे बढ़ी, यात्रियों ने जय गंगा मइया के नारे लगाने शुरू कर दिए। सबके चेहरों पर उल्लास था, लेकिन अंकित ने देखा — उसकी बगल में बैठी लड़की की आँखों से आँसू बह रहे थे। वह दुपट्टे से चुपचाप उन्हें पोंछ रही थी।
अंकित को अजीब सा लगा। उसने धीरे से पूछा,
“मैडम, सब ठीक तो है?”
लड़की ने बिना उसकी ओर देखे कहा, “हाँ, मैं ठीक हूँ।”
पर उसकी आवाज़ में टूटा हुआ दर्द साफ झलक रहा था।

अंकित समझ नहीं पाया, मगर अब उसके भीतर बेचैनी थी। वह लड़की का ध्यान बँटाने की कोशिश करने लगा।
“आप चाहें तो अपना बैग ऊपर रख लीजिए, जगह ज़्यादा आरामदायक हो जाएगी।”
लड़की ने तुरंत कहा, “नहीं, मेरा बैग मेरे पास ही रहेगा।”
“आपको परेशानी हो रही है क्या?” उसने हल्की नाराज़गी से पूछा।
“नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं,” अंकित ने मुस्कुराकर कहा।

बस रात में दौड़ती रही। बीच रास्ते में एक फूड प्लाज़ा आया। लोग चना मसाला, मूँगफली, चाय और समोसे खरीदने लगे। अंकित ने अपने दोस्तों के साथ कुछ चना लिया, मगर लड़की — जिसका नाम अब उसे पता चला कि पूजा है — बस चुपचाप खिड़की से बाहर देख रही थी।
अंकित ने पूछा, “आप कुछ लेंगी?”
“नहीं, शुक्रिया,” उसने कहा।

थोड़ी देर में ठंडी हवा चलने लगी। पूजा को नींद आने लगी, उसका सिर झुकने लगा। जब उसका सिर हल्के से अंकित के कंधे से टकराया, वह झट से सीधी होकर बैठ गई। अंकित मुस्कुरा दिया, “अगर नींद आ रही है तो बेझिझक आराम कर लीजिए, कोई बात नहीं।”
पूजा ने धीमे स्वर में कहा, “धन्यवाद, पर मुझे नींद नहीं आ रही।”
फिर वह खामोश हो गई।

बस के भीतर अब अँधेरा और सन्नाटा था। अंकित के दोस्त मज़ाक में उलझे थे, पर अंकित की नज़र बार-बार पूजा पर जा रही थी। उसकी आँखें बार-बार भर आतीं, वह उन्हें पोंछ लेती। कुछ तो गहरा दर्द था उसके भीतर।

रात के बारह बजे के करीब बस एक ढाबे पर रुकी। सभी यात्री खाने-पीने के लिए नीचे उतरे। अंकित के दोस्त बोले, “चल यार अंकित, आज तेरे पैसे से खाना खाएँगे।”
अंकित ने मुस्कुराकर कहा, “चलो ठीक है।”
पर जैसे ही नीचे उतरा, उसकी नज़र पूजा को ढूँढने लगी। वह कहीं दिखी नहीं। दिल बेचैन हो गया।

वह फिर बस में लौट आया। बस में सिर्फ तीन-चार लोग थे, और पूजा अपनी सीट पर बैठी रो रही थी।
अंकित ने धीरे से पूछा, “आप ठीक हैं? जब से बस चली है, आप रोए जा रही हैं। क्या बात है?”
पूजा ने आँसू पोंछे और बोली, “मैंने पहले ही कहा था कि हम दो लोग हैं। अकेली नहीं हूँ।”
अंकित चौंका, “दो लोग? पर यहाँ तो आप ही हैं।”
पूजा बोली, “हमें बस में बात नहीं करनी चाहिए। कृपया मुझे अकेला छोड़ दीजिए।”

अंकित को कुछ समझ नहीं आया। लेकिन उसके भीतर की इंसानियत उसे चैन नहीं लेने दे रही थी। उसने कहा, “थोड़ा बाहर हवा खा लीजिए, मन हल्का हो जाएगा।”
काफी मनाने के बाद पूजा नीचे उतरी। बोली, “आप ज़रा यह बैग पकड़ लीजिए, मैं वाशरूम होकर आती हूँ।”
वह गई और दो मिनट बाद लौट आई। अंकित ने फिर कहा, “कुछ खा लीजिए।”
“नहीं, मुझे भूख नहीं है,” उसने ठंडे स्वर में कहा और वापस बस में बैठ गई।

अंकित भी लौट आया। उसके दोस्त पूछने लगे, “क्या हुआ, भाई? तेरे चेहरे पर कुछ गड़बड़ लग रही है।”
अंकित ने कहा, “कुछ नहीं, बस वो लड़की लगातार रो रही है। दिल भारी हो गया।”

बस फिर चल पड़ी। अंकित ने रास्ते से एक चिप्स का पैकेट और एक कोल्ड ड्रिंक ले ली। उसने पूजा से कहा, “देखिए, आपने शाम से कुछ नहीं खाया। थोड़ा खा लीजिए।”
पूजा ने कहा, “मुझे भूख नहीं है।”
“कम से कम एक चिप्स ही ले लीजिए, मेरे लिए।”
वह उसे देखती रही, फिर एक चिप्स उठा लिया।
अंकित मुस्कुरा उठा, “लो, अब एक और।”
और धीरे-धीरे उसने उसे आधा पैकेट खिला दिया।

फिर बोला, “थोड़ा कोल्ड ड्रिंक भी पी लीजिए।”
पूजा ने दो घूँट लिए और मुस्कुरा दी — बहुत दिनों बाद, शायद पहली बार।
अब उसके चेहरे पर थोड़ी शांति थी।

धीरे-धीरे बस में सब लोग सो गए। अंकित ने देखा, पूजा झुकते सिर को संभाल नहीं पा रही। उसने धीरे से उसका सिर अपने कंधे पर टिका दिया। वह जागी, तो अंकित बोला, “आराम से सो जाइए।”
इस बार उसने कुछ नहीं कहा। बस चुपचाप सिर टिकाकर सो गई।

सुबह चार बजे बस हरिद्वार पहुँची। सूरज की हल्की किरणें गंगा के जल पर पड़ रही थीं। अंकित ने धीरे से पूछा, “अब कहिए, कहाँ उतरना है?”
पूजा ने कहा, “गंगा तट पर।”
“अकेली?”
“नहीं,” उसने कहा, “हम दो हैं।”
फिर धीरे से बोली, “इस बैग में मेरे पति की अस्थियाँ हैं। मैं उन्हें गंगा में विसर्जित करने जा रही हूँ।”

अंकित स्तब्ध रह गया। उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। एक झटका-सा लगा — जैसे किसी ने उसकी आत्मा हिला दी हो।
पूजा की आँखें फिर छलक आईं। वह बोली, “मेरे पति की मृत्यु शादी के दसवें दिन ही हो गई थी। ससुराल वालों ने मुझे मनहूस कहा और घर से निकाल दिया। उन्होंने मुझे मेरे पति का चेहरा तक नहीं देखने दिया। मैंने चुपचाप श्मशान जाकर उनकी अस्थियों में से कुछ अपने पास रख लीं। अब मैं उन्हें अंतिम विदाई देने आई हूँ।”

अंकित के दोस्त भी यह सुनकर सहम गए। सभी की आँखें भर आईं।
अंकित ने कहा, “आप अकेली नहीं हैं, हम सब आपके साथ हैं।”
पूजा ने मना किया, “आप लोग अपना आनंद लीजिए, मैं अकेली ठीक हूँ।”
अंकित ने दृढ़ता से कहा, “नहीं, अब आप अकेली नहीं हैं।”

सभी उसके साथ गंगा तट तक गए।
गंगा की लहरें जैसे पूजा के दर्द को अपने साथ बहाने आई थीं। उसने कांपते हाथों से लोटा खोला, अपने पति की अस्थियाँ देखीं और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। अंकित ने उसका हाथ थामा,
“अब छोड़ दीजिए, उन्हें शांति मिलेगी।”
उसने आँखें बंद कीं और अस्थियाँ गंगा में बहा दीं।
जैसे-जैसे लोटा दूर जाता गया, पूजा की रुलाई बढ़ती गई। वह लगभग गिरने लगी, अंकित ने उसे संभाला। उसने सिर उसके कंधे पर रख दिया और बच्चे की तरह रोती रही।

सभी दोस्तों की आँखें नम थीं।
गंगा की हवा में एक अजीब सन्नाटा था — पवित्र, दर्द से भरा और आत्मा को छू जाने वाला।

उस दिन के बाद अंकित ने पूजा को अकेला नहीं छोड़ा।
उसने कहा, “आप हमारे साथ दो दिन रुकिए, मन हल्का हो जाएगा।”
पहले तो पूजा ने मना किया, मगर फिर उसके मन में विश्वास जागा।
वह दो दिन रुकी — हरिद्वार, ऋषिकेश और देहरादून घूमे।
सालों से जो मुस्कान उसके चेहरे से गुम थी, वह लौट आई।

दो दिन बाद जब सब दिल्ली लौटे, पूजा का मन हल्का था।
उसने कहा, “धन्यवाद, आपने मुझे फिर से जीना सिखाया।”
अंकित ने कहा, “धन्यवाद मत कहिए। यह इंसानियत का फर्ज़ था।”

वक़्त बीतता गया। पूजा भी अब उसी कंपनी में काम करने लगी जहाँ अंकित था।
धीरे-धीरे दोस्ती प्यार में बदल गई।
तीन महीने बाद, पूजा और अंकित ने शादी कर ली।

वह दिन हर किसी की आँखों में आँसू ले आया।
गंगा किनारे बिछड़े हुए दो जीवन, अब साथ थे।
अतीत का दुख अब याद तो था, मगर जीवन में उजाला लौट आया था।

कभी-कभी ज़िंदगी हमें वहीं ले जाती है जहाँ हमारी तक़दीर हमें मिलनी होती है —
गंगा के तट पर अंकित को पूजा मिली थी,
और पूजा को अपनी अधूरी ज़िंदगी की नई शुरुआत।

गंगा का पानी बहता रहा, जैसे साक्षी हो किसी कहानी का —
जहाँ दर्द ने प्रेम को जन्म दिया,
और आँसुओं ने इंसानियत को अमर कर दिया।