सजा से पहले अपनी माँ को थप्पड़ लगाना चाहता हूँ , मुजरिम की ये आखरी ख्वाहिश सुनकर अदालत में सबके होश

ममता का अंधेरा: अजय और उसकी मां शारदा की कहानी

क्या मां की ममता कभी अपने ही बच्चे की बर्बादी का कारण बन सकती है? क्या होता है जब प्यार इतना अंधा हो जाए कि सही और गलत का फर्क ही मिट जाए? जब एक मां अपने बेटे के छोटे-छोटे गुनाहों पर पर्दा डालते-डालते उसे एक ऐसे रास्ते पर धकेल दे, जहां से वापसी का कोई दरवाजा ही न हो?

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यह कहानी है अजय की। एक ऐसे बेटे की, जिसका सफर एक स्कूल के बस्ते से चुराई हुई पेंसिल से शुरू होकर फांसी के तख्ते तक पहुंचा। और यह कहानी है उसकी मां शारदा की, जिसने अपनी ममता के अंधे सैलाब में अपने बेटे के भविष्य को ही डुबो दिया।

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गुमनाम कस्बे की एक तंग और धूल भरी गली में अजय का बचपन बीत रहा था। यह जगह सपनों के लिए नहीं, बल्कि जद्दोजहद और मजबूरी के लिए जानी जाती थी। अजय के पिता, माणकचंद, मिल में मजदूरी करते थे। दिन भर की थकान के बाद जो ₹100 मिलते, उससे घर का चूल्हा तो जल जाता था, लेकिन ख्वाहिशों की आग बुझती नहीं थी।

शारदा, अजय की मां, गरीबी और अभाव में पली-बढ़ी एक साधारण सी महिला थी। उसने कभी अच्छे कपड़े नहीं पहने, कभी स्वादिष्ट खाना नहीं खाया। उसके सपने अधूरे रह गए थे, इसलिए उसकी सारी उम्मीदें अब अपने इकलौते बेटे पर टिकी थीं। वह चाहती थी कि अजय कभी गरीबी का एहसास न करे, जो उसने अपनी हर सांस में महसूस किया था। लेकिन यह ममता कब अंधे प्यार में बदल गई, वह खुद भी नहीं जान पाई।

जब अजय सात साल का था, तब उसने पहली बार चोरी की। स्कूल से लौटते हुए उसने अपने दोस्त रमेश के बस्ते से एक रंगीन पेंसिल उठा ली। यह पेंसिल कस्बे की सबसे बड़ी दुकान पर ही मिलती थी, और अजय जैसे बच्चों के लिए इसे खरीदना सपना था। जब उसने यह बात अपनी मां को बताई, तो आम मां की तरह डांटने की बजाय शारदा ने उस चोरी को उसकी मासूम इच्छा समझा। उसने कहा, “मेरा बेटा तो बड़ा होशियार है। चल, कोई बात नहीं, रख ले इसे।”

यहीं से अजय के अंदर यह बात बैठ गई कि चोरी करना गलत नहीं, पकड़ा जाना गलत है। मां की सहमति ने उसे अपराध की दुनिया की ओर पहला कदम बढ़ाने का हौसला दिया। धीरे-धीरे उसकी चोरी की आदत बढ़ने लगी, और हर बार जब वह कुछ चोरी करके लाता, शारदा खुश होती और कहती, “मेरा राजा बेटा कितना ध्यान रखता है।”

माणकचंद, जो मेहनत मजदूरी करते थे, इस पर नाराज होते, लेकिन शारदा उनकी बातों को नजरअंदाज कर देती। वह कहती, “तुम्हें क्या पता? मेरा बेटा होशियार है, वो अपना हक लेना जानता है।”

जब अजय बारह-तेरह साल का हुआ, तो उसकी चोरी मोहल्ले तक फैल गई। वह पड़ोस के घरों से कपड़े, सामान और कभी-कभी दूध वाले के पैसे भी चुराने लगा। एक दिन उसने पड़ोस के सरपंच के घर से नई साइकिल चुरा ली। शारदा ने पूरे मोहल्ले में अपने बेटे की बहादुरी के किस्से सुनाए, जबकि माणकचंद ने विरोध किया।

शारदा ने अजय के मन में यह जहर घोल दिया था कि अमीर लोग बेईमान होते हैं, और उनसे कुछ भी छीन लेना न्याय है। पंद्रह साल की उम्र तक अजय का नाम कस्बे के छोटे-मोटे चोरों में गिना जाने लगा। उसने पढ़ाई छोड़ दी और बुरी संगत में फंस गया। अब वह रात में दुकानों के ताले तोड़ने की योजना बनाने लगा।

पहली बार जब वह चोरी करते पकड़ा गया, तो माणकचंद शर्म से सिर झुका बैठे, लेकिन शारदा ने पुलिस से लड़ाई कर जमानत करवा ली। अजय को डांटने की बजाय उसने कहा, “कोई बात नहीं बेटा, बड़े-बड़े लोगों से भी गलती हो जाती है।”

माणकचंद का सब्र टूट गया और वह घर छोड़कर चला गया। पिता के जाने के बाद अजय पूरी तरह से खुला छोड़ दिया गया। मां का अंधा प्यार और खुली छूट उसके लिए अपराध की दुनिया का लाइसेंस बन गई।

अजय अब पेशेवर चोर बन चुका था। वह शहरों में अमीरों की हवेलियों में डाका डालने लगा। उसके साथ पूरा गिरोह था और पैसा पानी की तरह आ रहा था। शारदा ने पुराना घर छोड़कर बड़ा मकान बनवाया, रंगीन साड़ियां पहनने लगी, और अपने बेटे की बदनामी पर गर्व करने लगी।

लेकिन अपराध की दुनिया में जीत अस्थाई होती है। एक रात अजय और उसके साथियों ने दिल्ली के एक बड़े बिजनेसमैन के घर डाका डाला। योजना के मुताबिक घर में केवल एक बूढ़ी औरत और नौकर थे। लेकिन बूढ़ी औरत ने आवाज सुनकर बाहर आ गई, और एक साथी की गोली लगने से वह वहीं मर गई।

पुलिस ने घेराबंदी कर दी। मुठभेड़ में दो साथी मारे गए और अजय घायल होकर पकड़ा गया। यह उसका आखिरी गुनाह था—अब हत्या का भी आरोप था।

अजय को अदालत ने दोषी पाया और फांसी की सजा सुनाई। यह खबर शारदा तक पहुंची तो जैसे आसमान टूट पड़ा। वह रोती रही, चिल्लाती रही, “मेरा बेटा बेकसूर है। उसे फंसाया गया है।”

अजय को फांसी कोठरी में बंद किया गया, जहां मौत के सिवा कोई आवाज़ नहीं थी। अकेलेपन में उसने अपनी जिंदगी को फिल्म की तरह देखा—वह मासूम बच्चा जिसने चोरी की, वह नौजवान जो जेल गया, और वह खूंखार अपराधी जिसने एक बेगुनाह की जान ली।

हर तस्वीर में उसे अपनी मां का मुस्कुराता चेहरा दिखता था, जो उसे रोकने की बजाय प्रोत्साहित करता रहा। उस दिन जब मौत उसके सामने थी, उसे एहसास हुआ कि उसकी बर्बादी की जिम्मेदार उसकी मां थी—उसका अंधा प्यार जिसने सही और गलत की लकीर मिटा दी।

अजय ने अपनी आखिरी ख्वाहिश में मां से एक थप्पड़ मारने की इजाजत मांगी। अदालत ने इसे मंजूर किया। फांसी वाले दिन, जब मां शारदा उससे मिली, तो अजय ने बिना किसी पछतावे के अपनी मां के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया।

यह थप्पड़ सिर्फ एक थप्पड़ नहीं था, बल्कि उसकी टूटी जिंदगी का निचोड़ था। शारदा को उस थप्पड़ से ज्यादा दर्द उसके बेटे के शब्दों ने दिया—उसने अपनी गलती समझी कि उसने अपने बेटे को प्यार नहीं, जहर दिया।

अजय को फांसी दे दी गई, और शारदा बाकी जिंदगी एक जिंदा लाश बनकर जीती रही, अपनी गलती के बोझ तले दबकर।

यह कहानी हमें सिखाती है कि मां-बाप का प्यार अमृत की तरह होता है, लेकिन अगर वह अंधा हो जाए और बच्चों को सही-गलत का फर्क न सिखाए, तो वह जहर से भी ज्यादा खतरनाक हो सकता है। परवरिश केवल प्यार नहीं, बल्कि एक बड़ी जिम्मेदारी है।

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