भूंख से तडफ रहा अनाथ बच्चा करोड़पति के घर में रोटी मांगने पहुंचा, फिर आगे जो हुआ.. Heart Touching
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दिल से जुड़ा रिश्ता: एक अनाथ बच्चे की कहानी
गुजरात के सूरत शहर की एक समृद्ध कॉलोनी में रमेश भाई और उनकी पत्नी सुमन रहते थे। पैसे, शोहरत, आराम—सबकुछ था, बस कमी थी तो अपने बेटे राहुल की। आठ महीने पहले राहुल की बीमारी से मृत्यु हो गई थी। उस हादसे के बाद से घर की दीवारें भी जैसे उदास रहने लगी थीं। सुमन अक्सर राहुल के खिलौनों को छूकर रो देती, और रमेश भाई खिड़की से बाहर ताकते रहते, जैसे कोई खोया हुआ सपना वापस लौट आएगा।
एक सुबह सुमन सफाई कर रही थीं, तभी अलमारी से राहुल की पुरानी कॉपी निकल आई। पहले पन्ने पर गोलगोल अक्षरों में लिखा था—”मम्मी पापा, मैं आपसे बहुत प्यार करता हूं।” इन शब्दों ने दोनों को अंदर तक झकझोर दिया। वे ड्राइंग रूम में बैठकर एक-दूसरे के गले लगकर रोने लगे। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। सुमन ने आंखें पोंछी और दरवाजा खोला। सामने एक आठ साल का बच्चा खड़ा था। दुबला-पतला शरीर, मैले कपड़े, फटे जूते और आंखों में भूख की चमक।
बच्चे ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “आंटी, मुझे खाने के लिए कुछ दे दीजिए। अगर आपके यहां कोई काम हो तो मैं कर दूंगा, बदले में भरपेट खाना मिल जाए।” सुमन कुछ पल उसे देखती रह गईं। उसकी मासूमियत और बातों ने दिल को छू लिया। उन्होंने तुरंत कहा, “अंदर आ जाओ बेटा।” बच्चा हिचकिचाया और बोला, “पहले काम बताइए, फिर खाना खाऊंगा।” सुमन की आंखें भर आईं। उन्होंने कहा, “पहले खाना, फिर काम देखेंगे।”
रसोई से सुमन गरम-गरम रोटी और सब्जी लेकर आईं। बच्चा शांति से बैठकर खाने लगा। दूर से रमेश भाई यह सब देख रहे थे। हर कौर के साथ जैसे उनके अपने बेटे की याद ताजा हो रही थी। खाना खत्म होने के बाद बच्चा बोला, “आंटी, अब बताइए क्या काम करना है? बर्तन धो दूं, पौधों में पानी डाल दूं?” सुमन ने नरमी से पूछा, “बेटा, नाम क्या है? कहां से आए हो?”
बच्चा धीमे स्वर में बोला, “मेरा नाम अर्जुन है। मैं सूरत के पास एक छोटे गांव से हूं। पहले मम्मी-पापा के साथ था, वे मजदूरी करते थे। लेकिन एक हादसे में दोनों चल बसे। चाचा-चाची ने मुझे रखा, मगर वहां हर वक्त डांट और मार पड़ती थी। पढ़ाई भी बंद कर दी गई। मुझे लगा अगर काम करके ही खाना मिलेगा, तो कहीं और काम करूं, पर कम से कम मार तो नहीं पड़ेगी।”
उसकी मासूम आंखों में दर्द साफ झलक रहा था। सुमन और रमेश भाई एक-दूसरे को देखने लगे। दोनों के मन में एक ही ख्याल था—शायद किस्मत ने हमें जवाब भेजा है। अर्जुन बोला, “आंटी, आज के बाद भी मैं यहां आ सकता हूं? काम कर दूंगा, बदले में खाना खा लूंगा।” उसकी आंखों में अनकही दुआ थी। सुमन का दिल भर आया, लेकिन वो मुस्कुराई, “बेटा, आज से यह घर तुम्हारा भी है। यहां तुम्हें कोई भूखे पेट नहीं सोने देगा।”
रमेश भाई पास आकर बोले, “अर्जुन, काम तो हम सब करेंगे, लेकिन तुम्हें पढ़ाई भी करनी होगी। बिना पढ़ाई के जिंदगी अधूरी है।” अर्जुन ने चौंकते हुए पूछा, “क्या मुझे सच में पढ़ने को मिलेगा? मेरे मम्मी-पापा हमेशा कहते थे कि पढ़ाई से इंसान बड़ा बनता है। लेकिन चाचा-चाची ने किताबें छीन ली थीं।” उसके शब्द सुनकर सुमन और रमेश भाई की आंखों में आंसू भर आए। सुमन ने उसका सिर सहलाया, “अब किताबें कोई नहीं छीनेगा। तू खूब पढ़ेगा और बड़ा आदमी बनेगा।”
अर्जुन ने झिझकते हुए कहा, “आंटी, मैं बिना काम किए खाना नहीं खा सकता। दुकानदार ने सिखाया था कि बिना मेहनत का खाना मांगना भिखारीपन कहलाता है। मैं भिखारी नहीं बनना चाहता।” यह सुनकर रमेश भाई गहराई से सोच में डूब गए—इतनी छोटी उम्र और इतनी समझदारी। उसी समय सुमन ने उसे छोटे-छोटे काम बताए—पौधों में पानी डालना, अपना बिस्तर ठीक करना, किताबें सही जगह रखना। अर्जुन तुरंत तैयार हो गया और बड़े मन से पौधों को पानी देने लगा। उसके चेहरे पर मेहनत की खुशी थी।
शाम को सुमन ने साफ-सुथरे कपड़े निकाले। अर्जुन ने जब उन्हें पहना तो वह आईने में खुद को देखता रह गया। उसके चेहरे पर पहली बार आत्मसम्मान की चमक थी। रमेश भाई ने कहा, “कल हम स्कूल जाएंगे, तुम्हारा एडमिशन कराएंगे।” अर्जुन की आंखें भर आईं, “क्या सच में मैं स्कूल जा सकता हूं?” सुमन ने उसे गले से लगाकर कहा, “हां बेटा, अब तू अकेला नहीं है।”
अगली सुबह अर्जुन तैयार होकर स्कूल पहुंचा। टीचर ने उसे क्लास में भेजा। शुरुआत में बच्चे हंसे उसकी टूटी-फूटी अंग्रेजी और गांव की बोली देखकर। लेकिन जल्दी ही सबने उसे अपनाया। अर्जुन ने पहली बार खुलकर किताब खोली और अक्षरों की दुनिया में डूब गया। टिफिन टाइम पर उसने सुमन के बनाए पराठे निकाले। पास बैठा बच्चा बोला, “वाह, मेरी मम्मी भी ऐसे ही बनाती है।” अर्जुन ने मन ही मन सोचा, “अब मेरी भी मम्मी है।”
घर लौटकर अर्जुन ने उत्साह से हर बात सुनाई—कैसे टीचर ने उसकी तारीफ की, कैसे नए दोस्त बने। रमेश भाई ने गर्व से कहा, “देखा सुमन, यही तो हमारी असली कमाई है।” सुमन की आंखों में खुशी के आंसू थे। उस रात सोने से पहले अर्जुन धीमे स्वर में बोला, “मां, क्या मैं आपको मां कह सकता हूं?” सुमन ने कांपती आवाज में कहा, “बेटा, अब तू हमें मां-बाप ही कहेगा। यही हमारा सबसे बड़ा सम्मान है।”
लेकिन अर्जुन की जिंदगी की यह नई शुरुआत भी चुनौतियों से खाली नहीं थी। मोहल्ले के लोग फुसफुसाने लगे—इतनी संपत्ति है, पर अपना खून नहीं तो अनाथ को ले आए। पता नहीं आगे क्या होगा। धीरे-धीरे अर्जुन ने स्कूल की पढ़ाई में खुद को ढालना शुरू कर दिया। शुरुआत में उसे बहुत मुश्किल आई। कई बार कॉपी में शब्द गलत लिख देता, गणित के सवाल हल नहीं कर पाता। क्लास के कुछ बच्चे मजाक उड़ाते—गांव से आया है, इसे क्या पता?
यह सुनकर अर्जुन का दिल टूटता, लेकिन वो चुप रहता। रात को देर तक बैठकर मेहनत करता और सुमन उसके साथ बैठकर उसे समझाती—इतिहास की बातें कहानियों की तरह सुनाती, गणित के सवाल खेल की तरह समझाती। रमेश भाई भी समय निकालकर उसकी मदद करते। धीरे-धीरे अर्जुन का आत्मविश्वास लौट आया।
तीन महीने बाद स्कूल में निबंध प्रतियोगिता हुई। विषय था—”मेरे माता-पिता”। अर्जुन ने पूरे दिल से लिखा—”भगवान ने मुझे दो बार माता-पिता दिए। पहले जिन्होंने मुझे जन्म दिया और दूसरे जिन्होंने मुझे जीवन दिया। मुझे भूखे पेट से बचाया, पढ़ाई दी और सिखाया कि मेहनत से जीना ही असली जीवन है।” जब उसका निबंध चुना गया और उसे स्टेज पर बुलाकर इनाम दिया गया तो पूरे स्कूल ने तालियां बजाई। सुमन और रमेश भाई की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले।
शाम को अर्जुन इनाम लेकर घर लौटा। उसने ट्रॉफी सीधे अपनी मां-बाप के पैरों में रख दी और बोला, “यह मेरी नहीं, आपकी जीत है। आपने मुझे फिर से जीना सिखाया।” सुमन ने उसे सीने से लगा लिया। रमेश भाई के चेहरे पर गर्व था। उस दिन घर में लंबे समय बाद हंसी और खुशी की गूंज थी। लेकिन मोहल्ले के कुछ लोग अब भी ताने कसते—”देखना बड़ा होकर ये बच्चा पलट जाएगा। खून का रिश्ता अलग होता है।”
रमेश भाई हर बार जवाब देते, “बेटे का रिश्ता खून से नहीं, दिल से होता है।” अर्जुन भी अब समझदार हो गया था। वह जानता था कि दुनिया क्या सोचती है, पर उसे फर्क नहीं पड़ता था। उसके लिए बस उसकी मां और पापा ही सबकुछ थे।
समय के साथ अर्जुन की मेहनत रंग लाने लगी। खेलों में भी उसने नाम कमाया। स्पोर्ट्स डे पर जब उसने दौड़ में पहला स्थान पाया तो मंच से उतरते ही सीधा सुमन और रमेश भाई के पास गया और मेडल उनके गले में डाल दिया—”यह भी आपकी जीत है।” दोनों की आंखें भर आईं।
लेकिन जिंदगी हमेशा इतनी आसान नहीं रहती। अर्जुन के चाचा-चाची, जिन्होंने उसे कभी अपनाया नहीं था, अब उसकी तरक्की की खबरें सुनकर बेचैन होने लगे। एक दिन चाचा सूरत पहुंचे और मोहल्ले में पूछताछ करने लगे। यह खबर अर्जुन तक पहुंची तो उसका दिल घबरा गया। रात को डरते-डरते उसने कहा, “मां, अगर वे लोग मुझे वापस ले जाना चाहें तो मैं आपसे अलग नहीं होना चाहता।”
अर्जुन अब किशोरावस्था में कदम रख चुका था। पढ़ाई में वह और निखरने लगा था। हर परीक्षा में अच्छे अंक लाता और खेलों में भी आगे रहता। उसके अध्यापक अक्सर कहते—”इस लड़के में कुछ अलग है। मेहनत और लगन इसकी पहचान है।” सुमन और रमेश भाई यह सुनकर गर्व से भर जाते।
घर का माहौल भी अब पहले जैसा सुना नहीं रहा था। जहां कभी सन्नाटा पसरा रहता था, वहां अब अर्जुन की हंसी और बातें गूंजती थीं। लेकिन दुनिया की बातें अभी भी पीछा नहीं छोड़ रही थीं। मोहल्ले के कुछ लोग बार-बार ताने कसते—”खून का रिश्ता अलग होता है। देखना बड़ा होकर यह बच्चा सब भूल जाएगा।”
रमेश भाई हर बार कहते, “बेटे का रिश्ता खून से नहीं दिल से होता है।” सुमन भी यही मानती थीं कि अर्जुन की मुस्कान ही सबसे बड़ी गवाही है।
अर्जुन अब धीरे-धीरे कॉलेज की उम्र में पहुंच रहा था। उसके सपने बड़े हो रहे थे। वह अक्सर कहता, “पापा, मैं बड़ा होकर अपना व्यवसाय शुरू करूंगा। अपनी मेहनत से नाम कमाऊंगा।” रमेश भाई मुस्कुरा कर कहते, “बेटा, मेहनत और ईमानदारी से कोई भी सपना अधूरा नहीं रहता।”
इसी दौरान अर्जुन की जिंदगी में नेहा नाम की लड़की आई। वो उसकी क्लास में थी—हसमुख, समझदार और पढ़ाई में तेज। दोनों पहले दोस्त बने, फिर धीरे-धीरे दिल की बातें भी साझा करने लगे। नेहा को अर्जुन की सादगी और ईमानदारी बहुत भाती थी। अर्जुन भी उसकी मुस्कुराहट में सुकून ढूंढता था।
समय के साथ दोनों की दोस्ती गहरे रिश्ते में बदलने लगी। लेकिन अर्जुन हमेशा एक बात दोहराता, “नेहा, मैं तुझसे बहुत प्यार करता हूं, लेकिन जब तक मेरे मां-पापा की अनुमति ना मिल जाए, मैं कोई फैसला नहीं करूंगा।” नेहा पहले हैरान हुई, फिर अर्जुन की बात सुनकर उसके प्रति और भी सम्मान महसूस करने लगी।
घर पर सुमन और रमेश भाई ने भी अर्जुन की इस सोच को देखकर गर्व महसूस किया। वे बोले, “बेटा, तूने हर कदम पर हमें गर्व दिया है। अगर तेरी खुशी नेहा में है तो हमें कोई आपत्ति नहीं।” सुमन ने तो नेहा को पहली मुलाकात में ही बेटी की तरह गले से लगा लिया।
कुछ महीनों बाद अर्जुन और नेहा की शादी धूमधाम से हुई। रिश्तेदारों की भीड़, शहनाइयों की गूंज और हर कोने में खुशियां ही खुशियां। रमेश भाई और सुमन की आंखों में आंसू थे—खुशी के, संतोष के। वे सोच रहे थे कि भगवान ने उनकी जिंदगी को फिर से रोशन कर दिया है।
लेकिन शादी के कुछ महीनों बाद ही हालात बदलने लगे। नेहा जो पहले सुमन और रमेश भाई की बहुत इज्जत करती थी, धीरे-धीरे बदलाव दिखाने लगी। उसे लगने लगा कि अब तो उसका पति ही सब कुछ कमा रहा है, तो सास-ससुर का कहां मानने की कोई जरूरत नहीं। घर में छोटी-छोटी बातों पर तकरार शुरू हो गई।
सुमन चुप रहती, सोचती बेटे को क्यों परेशान करूं, लेकिन दिल में पीड़ा छुपा नहीं पाती। रमेश भाई कहते, “सच बता दो अर्जुन को,” मगर सुमन हर बार रोक देती, “नहीं, अगर बेटा पत्नी के कहे में आकर हमसे अलग हो गया तो मैं यह जोखिम नहीं उठाऊंगी।”
पर एक दिन किस्मत ने सबके सामने सच्चाई ला दी। अर्जुन अचानक घर लौटा और उसने नेहा को सुमन से ऊंची आवाज में बोलते हुए सुन लिया। अर्जुन का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने साफ कहा, “नेहा, अगर तुमने मां के खिलाफ एक शब्द भी बोला तो मैं भूल जाऊंगा कि तुम मेरी पत्नी हो।” नेहा ने पहली बार अर्जुन का यह रूप देखा और सन्न रह गई।
कुछ दिनों तक घर का माहौल तनावपूर्ण रहा। अर्जुन ने नेहा को मनाने की कोशिश नहीं की। इससे नेहा और भी बेचैन हो गई। आखिर एक रात उसने अर्जुन से कहा, “तुमने मुझे मनाने की कोशिश क्यों नहीं की? मैंने ऐसा क्या बुरा किया था?” अर्जुन ने एक गहरी सांस लेकर कहा, “नेहा, शायद तुझे अभी तक मेरी असली कहानी नहीं पता।”
उसने नेहा को बैठाकर सब बताया—कैसे उसके असली माता-पिता एक हादसे में गुजर गए थे, कैसे चाचा-चाची ने उसे सताया, कैसे वह भूखा-प्यासा सूरत की सड़कों पर भटकता रहा, और कैसे सुमन और रमेश भाई ने उसे अपने बेटे की तरह अपनाया। अर्जुन की आंखें भर आईं, “अगर ये दोनों मुझे ना मिलते तो शायद मैं आज जिंदा भी ना होता। उन्होंने मुझे नया जीवन दिया है। इसलिए मेरे लिए इनसे बड़ा कोई नहीं। अगर तू इनका सम्मान नहीं कर पाएगी तो मेरे साथ रहना मुश्किल होगा।”
नेहा का दिल पिघल गया। उसकी आंखों से आंसू बह निकले। वो सीधी सुमन के पास गई, उनके पैरों में गिरकर बोली, “मां, मुझसे गलती हो गई, मुझे माफ कर दीजिए। अब से आपको कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।” सुमन ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और कहा, “बेटी, तू हमारी बहू ही नहीं, हमारी बेटी भी है।”
उस दिन के बाद घर का माहौल पूरी तरह बदल गया। नेहा अब पहले से भी ज्यादा सुमन और रमेश भाई का ख्याल रखने लगी। अर्जुन ने भी राहत की सांस ली।
कुछ सालों बाद अर्जुन और नेहा के दो प्यारे बच्चे हुए। उनकी किलकारियों ने घर में खुशियों का सागर भर दिया। रमेश भाई और सुमन अब दादा-दादी बन गए थे। वे बच्चों के साथ खेलते, कहानियां सुनाते और उनकी हर छोटी-बड़ी जरूरत पूरी करते। अर्जुन अपनी मेहनत से व्यवसाय में सफल हुआ और मोहल्ले में मिसाल बन गया।
लोग अब कहते, “देखो जिसने अनाथ बच्चे को अपनाया था, आज उसी ने उनका नाम रोशन कर दिया।” घर में हर तरफ प्यार और अपनापन था। अर्जुन ने साबित कर दिया कि असली रिश्ता खून से नहीं, दिल से बनता है। सुमन और रमेश भाई की आंखों में अब कोई कमी नहीं थी। उन्होंने भगवान का धन्यवाद किया कि जिसने उनका बेटा छीन लिया था, उसी ने एक नया बेटा उन्हें लौटाया।
दोस्तों, यह कहानी हमें यही सिखाती है कि इंसानियत सबसे बड़ा रिश्ता है। अगर दिल से किसी को अपनाया जाए, तो खून का रिश्ता भी छोटा पड़ जाता है।
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