गरीब बच्चे ने सड़क पर पड़ा लॉटरी टिकट उठाया और कई दिन उससे खेलता रहा, फिर उसके पिता ने देखा तो उसके

कहानी: मासूमियत, किस्मत और उम्मीद का जादू

महानगर मुंबई — एक तरफ सपनों का शहर, तो दूसरी ओर लाखों के टूटे सपनों की कब्रगाह, जहां हर रोज़ किसी की किस्मत बुलंदी पर चढ़ती है और किसी की पस्ती में डूब जाती है। इसी भीड़, शोर और संघर्ष के बीच, धारावी की गणेश नगर नामक एक तंग गलियों वाली चॉल के चौथे माले पर शंकर अपने परिवार के साथ एक 10×10 के टूटे कमरे में जिंदगी काट रहा था।

संघर्ष और विवशता की दुनिया

शंकर बिहार के किसी हरियाले गांव से वर्षों पहले बाढ़ और कर्ज की मार झेलते हुए मुंबई आ गया था। पत्नी पार्वती, जोड़ों के दर्द से पीड़ित थी, और बेटा गोलू उसकी जिंदगी की एकमात्र खुशबू था। शंकर खुद फैक्ट्री में दिहाड़ी मज़दूरी करता, पार्वती दूसरों के यहां बर्तन मांजती। दोनों की इतनी कमाई बमुश्किल घर का किराया, राशन और मामूली दवाओं में ख़त्म हो जाती थी। गोलू छोटी सी उम्र में ही गरीबी, तंगी और तन्हाई का मतलब समझ गया था। उसका खिलौना — सड़क के पत्थर, माचिस की खाली डिब्बी, और कचरे में पड़ी पुरानी चीजें थीं।

एक रंगीन कागज – खिलौना या किस्मत?

एक दिन गोलू को गली में एक पुराना, चमकदार रंगीन कागज का टुकड़ा मिला। उस पर घोड़े की तस्वीर थी और कुछ आकड़ों और नंबरों की चमक थी। गोलू को नहीं पता था कि ये एक लॉटरी का टिकट है। उसने उसे अपना “राजा का खत” बताया और खुशी-खुशी खेलता रहा, वो टिकट उसकी फटी जेब में या किताबों के बीच कभी छिपा रहता, कभी उसकी कल्पना में उडनखटोला बन जाता।

औसत दिनों की तरह एक शाम शंकर चाय की छोटी दुकान पर अपने गांव के मजदूर दोस्तों से मिला। एक बुजुर्ग अंधविश्वासी काका लॉटरी की बात कर रहे थे — अपने सपने में देखे छः “लकी नंबर” वे सबको बता रहे थे। शंकर ने तल्खी से हँसते हुए उस बात को टाल दिया, पर अनजाने में ही उन्होंने वो नंबर अपने गिरे हुए दिल की दीवार पर दर्ज कर लिए।

घर की बदहाली और गोलू की मासूमियत

अगले ही दिन परेशानी कुछ ज्यादा थी: पार्वती की तबीयत बिगड़ गई, दवा लाने के पैसे नहीं थे। शंकर के लिए यह सब एक अंतहीन गुत्थी बन गया। उसी दुखी रात घर लौटा तो देखा, गोलू अपने लॉटरी टिकट को गिनती सीखने के लिए पत्थरों से ढंक रहा है और टिकट के नंबर असमानी आवाज में पढ़ रहा है — वही नंबर जो काका ने बताए थे!

शंकर को एक झटका सा लगा। कांपते-कांपते अपनी जेब में पड़े कागज से मिलान किया… सब नंबर हूबहू मैच कर गए। क्या ये वही किस्मत का टिकट है? टिकट छीनते ही गोलू जोर-जोर से रो पड़ा, पर शंकर की आँखों से भी आंसू बह रहे थे — उम्मीद के, डर के और अविश्वास के।

आखिरी दांव – लॉटरी का परिणाम

रात करवटों में कटी। सुबह सबसे पहले अखबार खरीदा, और दिल धड़कते हुए “लॉटरी नतीजे” देखे। एक, दो, तीन — सब नंबर मिलते चले गए। आखिरी नंबर भी मिल गया – पांच करोड़ की लॉटरी लगी थी! खुशी का, भरोसे का, उम्मीद का जो तूफान उस छोटी-सी चूल्हे में ब्लास्ट हुआ, उसकी कोई मिसाल नहीं।

नई जिंदगी, नई सोच

पैसा आते ही सबसे पहले पार्वती का इलाज करवाया, पुराने गांव का कर्जा चुकाया, संकरी घुटन भरी चोल को छोड़ शहर के एक सुंदर इलाके में घर लिया, गोलू का दाखिला सबसे अच्छे स्कूल में। शंकर ने खुद का कपड़ों का व्यवसाय शुरू किया और अपने उन दोस्तों को, जिन्होंने मदद की थी, अपने साथ साझेदार बना लिया। उस बुजुर्ग काका को जिसके कारण ये चमत्कार हुआ, बड़ी रकम देकर उनका आभार चुकाया। बाकी, वह आज भी एक बड़ा हिस्सा गरीब बच्चों की पढ़ाई और गणेश नगर में एक मुफ्त क्लीनिक चलाने में लगाता है ताकि कोई और परिवार तंगी, बीमारी और उम्मीद खो देने की कगार पर न पहुंचे।

अंत – उम्मीद का जादू

एक दिन जब गोलू नई यूनिफॉर्म पहन अपने माता-पिता के साथ बालकनी में बैठा सूर्यास्त देख रहा था, तो उसने शंकर से पूछा: “बाबूजी, क्या अब मैं राजा बन गया हूं?” शंकर ने कहा, “नहीं बेटा, तू राजा नहीं, जादूगर है, जिसकी मासूमियत ने हमारी तकदीर बदल दी।”

सीख

यह कहानी बताती है — उम्मीद कभी नहीं मरती। किस्मत किस पल, किस रूप में दरवाज़ा खटखटा जाए, कौन जानता है? ज़िंदगी का सबसे रंगीन लम्हा, आपकी सबसे बड़ी मुसीबत की घड़ी में, आपके आँगन में दस्तक दे सकता है।

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धन्यवाद!