माँ ने बेटे को पढ़ाने के लिए बेचे कंगन,सालों बाद बेटा कलेक्टर बनकर लौटा तो माँ का हाल देखकर काँप उठा!

मां के कंगन – प्रेम, त्याग और सच्ची सफलता की कहानी

क्या एक मां के त्याग की कीमत लगाई जा सकती है? क्या उसकी रातों की नींद और बरसों की कुर्बानियाँ किसी बेटे की कितनी भी बड़ी सफलता से तुलाई जा सकती हैं? यह कहानी है आकाश की—उस बेटे की, जिसकी हर उपलब्धि के पीछे उसकी मां सरिता के बेचे हुए कंगनों की चुपचाप खनक छुपी थी। उनका त्याग और उनका सपना, कैसे आकाश को भारत के सबसे बड़े अफसर – कलेक्टर – बनने तक ले गया, और जब बेटा लौटा, तो आंखों के सामने खुल गई मां की तकलीफों की वो सच्चाई, जिसकी कल्पना भी वह नहीं कर सकता था।

सूखी मिट्टी, जलती उम्मीदें – गांव रामपुरा की तस्वीर

बुंदेलखंड की तपती, पथरीली, मानसून की बारिश के इंतजार में हरियाली को तरसती ज़मीन – वहीं बसता था छोटा सा गांव रामपुरा। यही गांव सरिता और उसके बेटे आकाश के लिए पूरी दुनिया था। आकाश के पिता रामनारायण, एक मामूली किसान थे। कर्जा, सूखा, और बदकिस्मती के बोझ तले वे वक्त से पहले ही दुनिया छोड़ गए। अब सरिता के लिए उसका बेटा ही सब कुछ था। “मेरा आकाश पढ़-लिख गया तो मेरी गरीबी की दास्तान यहीं खत्म हो जाएगी,” यही उसका आखिरी सपना था।

सरिता की दो बीघा ज़मीन में सिर्फ गुजारे भर की फसल होती—पर उसके इरादे बहुत बड़े थे। वह खुद आधा पेट रहती, पर बेटे की किताब, फीस, हर ज़रुरत पूरा करने की कोशिश करती। आकाश भी मेहनती था—गांव के स्कूल में टॉप किया, मास्टर जी भी कहते, “सरिता, तेरा लौंडा बहुत आगे जाएगा, इसकी पढ़ाई मत रोकना।”

सपनों के लिए सबसे बड़ी कुर्बानी

आकाश ने 12वीं में जिले में पहला स्थान पाया। उसकी लगन देखकर मास्टर जी बोले— सिविल सर्विसेस की कोचिंग दिला दे, दिल्ली भेज, ये बड़ा अफसर बनेगा। मगर पैसे? दिल्ली का खर्च, कोचिंग, हॉस्टल… सरिता रात-रात भर जागकर चिंता करती। एक दिन आकाश ने मां के आंसू पोछे, बोला— “मां, मैं दिल्ली नहीं जाता, यहीं गांव में नौकरी कर लूंगा।”

लेकिन सरिता यह बात सुनकर तिलमिला गई, “बेटा, तेरे बाबूजी का सपना था तुझे कलैक्टर बनते देखना! मां वह सपना कैसे मरने दे?”

उस रात वह अपनी सूनी झोंपड़ी में बैठी, हाथ जोड़कर सोचती रही— “क्या करूं?” तभी निगाह गई अपनी कलाइयों पर— वही दो सोने के कंगन, जो सुहाग का प्रतीक थे, उसके जीवन में बची आखिरी बेशकीमती चीज। पति की कसमें याद आती रहीं, फिर बेटे का भविष्य आँखों के सामने उभरता गया।

सुबह बिना बताए कस्बे के सुनार के पास गई, कांपते हाथों से कंगन तौलकर पैसे पकड़े और हर आंसू छिपाकर आकाश को दिए, “बेटा, मैंने सरपंच से कर्जा लिया है, ये खर्च उससे आया है। एक दिन अफसर बनकर लौटा तो चुका देना।”

आकाश ने मां के झूठ को पहचान लिया, फिर भी उसके त्याग का मान रखते हुए पैर छू कर वादा किया: “मां, तुम्हारा यह कर्ज मैं अपनी कामयाबी से चुकाऊंगा, देखना।”

दिल्ली का संघर्ष—कंगनों की खनक में हौसला

आकाश दिल्ली चला गया, छोटी सी खोली – कभी-कभी भूखा रहता, लेकिन मां की कुर्बानी याद करता तो नई ताकत आ जाती। दिन-रात पढ़ाई में डूबा रहा। मां को खत लिखता—“मां, सब अच्छा है…” जवाब आता— “मैं ठीक हूं, तू बस पढ़ाई कर।”

पर सच कुछ और था—रामपुरा में सूखा पड़ा, खेती की जमीन भी बंजर हो चली। काम की तलाश में, बुजुर्ग होते शरीर के बावजूद, सरिता ने पास की कंस्ट्रक्शन साइट पर मजदूरी शुरू कर दी। वह ईंटे ढोती, सीमेंट भरती, हाथों में छाले पड़ जाते, चेहरा झुर्रियों-सा बन गया। फिर भी हर महीने, जैसे-तैसे पैसे काटकर बेटे को भेजती, ताकि उसे घर की परेशानी न झलके।

कामयाबी और अनजानी तकलीफें

कई बरस की तपस्या के बाद—आकाश ने UPSC सिविल सर्विसेस की परीक्षा उत्तीर्ण की और भारत का कलेक्टर बन गया। वह चीख-चीखकर मां को फोन पर बोला—”मां, तुम्हारा बेटा कलेक्टर बन गया!”

सरिता की झोंपड़ी में खुशी के आंसुओं की धार बह चली—उसकी तपस्या रंग लाई थी। कुछ महीनों की ट्रेनिंग के बाद आकाश की पहली पोस्टिंग उसी जिले में हुई। वह सपनों में था—”अब अपनी मां को राजमाता बना दूंगा, हसरतें पूरी कर दूंगा।”

हौसले की असली कीमत – मां की सूनी कलाईयां

कलेक्टर की गाड़ी जब गांव पहुंची तो हज़ारों लोगों के बीच, उसकी मां सूखी, झुकी कमर, फटी साड़ी, कटे-फटे हाथों के साथ आंगन में लकड़ियां बीन रही थी। उसकी कलाइयां अब बिल्कुल खाली थीं।

आकाश को जैसे किसी ने सन्न कर दिया— उसी मां ने जिसने उसके लिए सब गंवा दिया, अपनी सुहाग की इकलौती निशानी तक… उसके बेटे की एक मुस्कान के लिए अपनी जिंदगी छांव कर दी थी।

वह फूट-फूट कर मां के पैरों में गिर पड़ा—”मां… मेरी वजह से आपने इतना कष्ट झेला… मैं किस काम का कलेक्टर!”

सरिता ने उसे प्रेम से उठाकर कहा, “रूठा रुपया, टूटी चीजें, खोये गहने… ये जीवन की दौलत नहीं बेटा। मेरी सबसे कीमती पूंजी तो तू है। आज तू अफसर है, मुझे और क्या चाहिए?”

सच्चा ऋण – समाज का कलेक्टर, मां का बेटा

लेकिन आकाश संतुष्ट कहाँ था? उसने गांव के सारे अफसरों, पंचायतियों, किसानों को बुलाया और कहा—”आज से मेरा ऑफिस शहर में नहीं, गांव में होगा!”

उसकी पहल पर पूरे क्षेत्र के किसानों का कर्ज माफ़ हुआ, नहरें खुदवाई गईं, अस्पताल, स्कूल बने। एक साल के अंदर रामपुरा और आसपास के गांव करवट बदलने लगे। कुपोषण, अनपढ़ता, मौत… सब नए विकास में खो गए।

फिर वह अपनी मां को शहर ले गया, बड़े सुनार के पास। सोने के कंगनों की अद्भुत डिजाइनों की कतार थी… बोला “मां, आज जो चाहो चुन लो।”

पर सरिता ने सिर्फ बेटे की हथेली पकड़ ली—”मेरे असली कंगन अब गांव की औरतों की मुस्कराहट हैं, स्कूल जाते बच्चे हैं। यही मेरी सबसे बड़ी दौलत है।”

मां-बेटे की रूहानी जीत

आकाश इलाके का सबसे चहेता कलेक्टर बन गया—क्योंकि उसकी अफलातून नीति ‘मां की आंखों से सेवा’ थी— किताबों या कुर्सी के आदेश से नहीं। उसने मां के त्याग को आंखों में ही नहीं, प्रशासन में उतार दिया।

उसका जीवन संदेश बन गया—मां का बलिदान ही सबसे बड़ा वरदान! मां के आंसू, उसकी मुस्कान… उसकी औलाद की सबसे बड़ी पूंजी और इंसानियत की असली पहचान है।

कहानी से सीख

एक मां का प्यार, उसका त्याग—कभी तुला नहीं जा सकता। ज़िंदगी का असली अर्थ वही समझ सकता है, जिसने मां के आंचल का अभाव देखा हो। असली सफलता वही है, जब आपकी मेहनत उन लोगों की तकलीफ दूर कर सके, जिन्होंने आपकी खुशियों के लिए सब कुछ गंवा दिया।

अगर यह कहानी दिल को छू गई, तो अपनी मां को गले लगाकर धन्यवाद कहना कभी न भूलें और दूसरों के साथ भी यह संदेश साझा करें, ताकि हर इंसान खुद की कामयाबी के पीछे खड़े त्याग को पहचान सके।

धन्यवाद! 🌸