अजय की उड़ान
गाँव के छोर पर एक टूटा-फूटा घर था। मिट्टी की दीवारें, खपरैल की छत और आँगन में बंधी एक पुरानी चारपाई। यही था रामदयाल का संसार। उम्र पचपन के पार, लेकिन चेहरे पर मेहनत की चमक। मजदूरी करते-करते हाथों की चमड़ी छिल चुकी थी, पर आँखों में अपने बेटे अजय के लिए सपनों की चमक बाकी थी।
रामदयाल का सपना था—अजय पढ़े, बड़ा आदमी बने और गरीबी के इस अंधेरे कुएं से उनका परिवार बाहर निकले। लेकिन उस दिन सब कुछ बदल गया। गर्मी की दोपहर थी, जब अजय काँपते हाथों में अपनी 12वीं की मार्कशीट लेकर घर लौटा। बड़े काले अक्षरों में लिखा था—फेल्ड। यह सिर्फ एक शब्द नहीं था, बल्कि रामदयाल के 18 सालों के सपनों का कब्रिस्तान था।
“घर से निकल जा! पढ़ाई नहीं करनी तो मेरी चौखट भी तेरे लिए नहीं है!” रामदयाल की चीख पूरे घर में गूंज गई। अजय के चेहरे पर शर्म, आँखों में आँसू। उसने धीरे से कहा, “बाबा, मुझे लगता है मेरी मंजिल किताबों में नहीं, मैदान में है। मुझे क्रिकेट में मौका दो, सिर्फ एक बार…”
रामदयाल का गुस्सा फट पड़ा। “क्रिकेट? क्रिकेट से कभी किसी गरीब का घर चला है? तुझे लगता है ये सब खिलवाड़ है? बिना पढ़ाई के तू कुछ नहीं। जा, अभी निकल जा मेरे घर से, और वापस तब आना जब कुछ बन जा।”
अजय ने अपने पिता के पैर छुए, कंधे पर फटा हुआ बैग, हाथ में अपना पुराना विलो का बैट, और आँखों में आँसू लिए निकल पड़ा अपनी मंजिल की तलाश में। उसके पास ना पैसे थे, ना रिश्तेदार, ना कोई सहारा। शुरुआती दिन बहुत कठिन थे। दिन में मोहल्ले के मैदान में क्रिकेट खेलता, रात को किसी दुकान के बाहर पार्क की बेंच पर या ढाबे के पीछे सो जाता। भूख से पेट में ऐंठन होती, कभी-कभी दोस्त या दुकानदार खाना दे देते, कई बार खाली पेट ही सो जाना पड़ता।
लोग अजय को देखकर तरह-तरह की बातें करते—“रामदयाल का बेटा कहता था क्रिकेटर बनेगा, अब सड़कों पर घूम रहा है। 12वीं में भी पास नहीं कर पाया, अब क्या करेगा?” अजय ने इन तानों को सीने से लगाया, लेकिन हार नहीं मानी। जब भी मन में नकारात्मक विचार आते, वह अपने बैट को देखता और मन में कहता—एक दिन मैं साबित करूंगा कि क्रिकेट मेरी सच्ची मंजिल है। एक दिन बाबा को गर्व होगा मुझ पर।
छह महीने बाद, एक गर्म दोपहर में अजय मोहल्ले के छोटे से मैदान में अकेले प्रैक्टिस कर रहा था। उसके पास ना कोच था, ना सही उपकरण—बस एक टेनिस बॉल और पुराना बैट। तभी वहाँ सफेद कुर्ता-पायजामा पहने एक व्यक्ति आकर खड़ा हो गया। वह गौर से अजय के हर शॉट को देख रहा था। मैच खत्म होने पर उन्होंने अजय को बुलाया, “बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?”
“अजय सिंह।”
“मैं कोच नरेंद्र मिश्रा हूँ। मैंने रणजी के कई खिलाड़ियों को ट्रेन किया है। तुम्हारे अंदर बहुत टैलेंट है।”
अजय की आँखों में चमक आ गई। “सच में सर?”
“हाँ बेटा। लेकिन टैलेंट अकेला काफी नहीं होता। सही ट्रेनिंग, अनुशासन और लगातार मेहनत चाहिए। अगर तुम तैयार हो, तो मैं तुम्हें ट्रेन कर सकता हूँ।”
अजय की आँखों में आँसू आ गए। “लेकिन सर, मेरे पास ना पैसे हैं, ना कोई घर। मैं कैसे…?”
कोच नरेंद्र मिश्रा ने हंसकर कहा, “पैसा बाद की बात है। पहले तुम सिर्फ यह बताओ, क्या तुम सच में क्रिकेटर बनना चाहते हो? क्या तुम हर तकलीफ सहने को तैयार हो?”
“हाँ सर। मैं कुछ भी कर सकता हूँ।” अजय ने दृढ़ता से कहा।
कोच ने अजय को अपनी क्रिकेट अकादमी में जगह दे दी। अब उसके पास रहने की जगह थी। लेकिन असली चुनौती अब शुरू हुई थी। सुबह 4 बजे उठना, 5 बजे से जॉगिंग, 6 बजे से फिटनेस, 8 बजे नाश्ता, 9 से 12 बैटिंग प्रैक्टिस, दोपहर का खाना, फिर 2 से 5 फील्डिंग और बॉलिंग प्रैक्टिस, शाम को फिर से फिटनेस, रात 9 बजे खाना और 10 बजे सो जाना। यह रूटीन इतना कड़ा था कि शुरुआत में अजय का शरीर साथ देने से इंकार कर देता। हाथों में छाले पड़ गए, मांसपेशियों में दर्द होता, लेकिन वह हार नहीं मानता था।
कोच कहते, “अजय, क्रिकेट सिर्फ खेल नहीं है। यह अनुशासन है, तपस्या है। जो लड़का यहाँ से निकलेगा, वह सिर्फ खिलाड़ी नहीं, योद्धा होगा।”
धीरे-धीरे अजय में बदलाव दिखने लगे। उसकी फिटनेस बेहतर हो गई, शॉट्स में पावर आ गया, फील्डिंग में तेजी दिखने लगी। साल भर की कड़ी मेहनत के बाद, कोच ने अजय को एक लोकल क्लब मैच में खेलने का मौका दिया। यह अजय के लिए सबसे बड़ा टेस्ट था। यहाँ बड़े-बड़े खिलाड़ी आते थे, स्काउट्स आते थे।
मैच का दिन आया। अजय के हाथ काँप रहे थे, दिल जोर से धड़क रहा था। लेकिन जैसे ही वह क्रीज पर गया, उसका आत्मविश्वास वापस आ गया। पहली गेंद पर ही उसने एक खूबसूरत कवर ड्राइव लगाया, बॉल तेजी से बाउंड्री पार हो गई। स्टैंड से तालियाँ गूंजी। अजय ने उस दिन कुछ ऐसा कमाल दिखाया कि सब हैरान रह गए—सिर्फ 47 गेंदों में शतक पूरा कर दिया। उसके शॉट्स इतने खूबसूरत थे कि लोग बार-बार तालियाँ बजा रहे थे।
कोच नरेंद्र मिश्रा की आँखों में गर्व के आँसू थे। मैच के बाद उन्होंने अजय को गले लगाकर कहा, “आज तुमने साबित कर दिया कि तुम में चैंपियन बनने का दम है।”
उस मैच के बाद अजय की जिंदगी तेजी से बदलने लगी। पहले वह जिला टीम में चुना गया, फिर स्टेट टीम में। रणजी ट्रॉफी में उसने लगातार रन बनाए और जल्द ही नेशनल सिलेक्टर्स की नजर में आ गया।
लेकिन असली तब्दीली तब आई जब आईपीएल की नीलामी का दिन आया। टीवी की स्क्रीन पर उसका नाम चमक रहा था—अजय सिंह। बेस प्राइस 20 लाख। मुंबई इंडियंस—50 लाख। चेन्नई सुपर किंग्स—1 करोड़। राजस्थान रॉयल्स—2 करोड़। बोली तेजी से बढ़ रही थी। अजय के दिल की धड़कन तेज हो गई थी। कोच उसके साथ बैठे मुस्कुरा रहे थे। दिल्ली कैपिटल्स—4 करोड़। मुंबई इंडियंस—5 करोड़। और फिर हैमर गिरा—सोल्ड, अजय सिंह, मुंबई इंडियंस की तरफ से ₹5 करोड़ में। पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।
अजय की आँखों में खुशी के आँसू थे। वह जानता था कि यह सिर्फ उसकी जीत नहीं थी। यह उसके सपनों की, उसकी मेहनत की और उसके कोच के भरोसे की जीत थी।
पाँच साल बाद, गाँव की उसी टूटी-फूटी गली में जहाँ कभी अजय रोता हुआ निकला था, आज एक सफेद BMW खड़ी थी। गाँव वाले हैरान होकर देख रहे थे, “यह किसकी गाड़ी है? अरे कोई बड़ा आदमी आया होगा।” गाड़ी से एक व्यक्ति उतरा, सूट-बूट में। लेकिन चेहरे पर वही सादगी। लोग पहचानने की कोशिश कर रहे थे—“अरे यह तो अजय है, रामदयाल का बेटा! वही जो घर से निकाला गया था, आईपीएल में खेलता है, टीवी पर देखा था।”
अजय धीरे-धीरे अपने पुराने घर की तरफ बढ़ा। वहीं टूटा हुआ दरवाजा, मिट्टी की दीवारें। उसके गले में गांठ बन गई। दरवाजा खुला। अंदर से रामदयाल निकले, बूढ़े हो गए थे। बाल सफेद, कमर झुक गई थी। वह अजय को देखकर ठगे रह गए। अजय ने झुककर उनके पैर छुए, आवाज में कंपन था—“बाबा, मैंने कर दिखाया। आपने कहा था कि कुछ बनकर वापस आना, मैं वापस आया हूँ।”
रामदयाल की आँखें भर आईं। वह अजय को देखकर रो पड़े—“बेटा, मैंने तुझे गलत समझा था। तू सच में मेरे सपनों से भी बड़ा निकला। मुझे माफ कर दे।”
बाप-बेटे गले मिले। गाँव के लोग इस भावनात्मक दृश्य को देखकर आंसू पोंछ रहे थे। उस शाम गाँव के चौपाल में एक छोटी सभा हुई। सारे गाँव वाले इकट्ठा हुए। अजय ने माइक उठाया और दिल से बोला—
“भाइयों और बहनों, आज मैं यहाँ एक सफल इंसान के रूप में नहीं, बल्कि इस गाँव के बेटे के रूप में खड़ा हूँ। मैं 12वीं में फेल हुआ था, घर से निकाला गया था। लोग कहते थे कि मैं कुछ नहीं कर सकता। लेकिन मैंने सीखा है कि असफलता कभी अंत नहीं होती, यह तो बस एक नई शुरुआत होती है। जब आपका सपना सच्चा हो, जब आपकी मेहनत पूरी हो, तो कोई भी मंजिल बड़ी नहीं होती।
आज मैं सिर्फ एक क्रिकेटर नहीं हूँ, मैं उन सभी बच्चों की आवाज हूँ जिन्हें कहा जाता है कि तुम कुछ नहीं कर सकते। मैं उन सभी माता-पिता से कहना चाहता हूँ—अपने बच्चों के सपनों का सम्मान करें। हो सकता है वह अलग राह चुने, लेकिन वह राह भी सफलता तक ले जा सकती है।”
गाँव के बच्चों की आँखों में सपने चमक रहे थे। बूढ़े लोग सिर हिला रहे थे। रामदयाल ने खड़े होकर कहा—“मेरे बेटे ने सिखाया है कि पिता होने का मतलब सिर्फ अपने सपने थोपना नहीं, बल्कि बच्चों के सपनों का साथ देना भी है।”
और इस तरह जिस लड़के को कभी घर से निकाला गया था, वही लड़का आज करोड़पति बनकर लौटा। उसने साबित किया कि गरीबी कोई अभिशाप नहीं, असफलता कोई अंत नहीं। जरूरत है तो बस सच्चे सपने और अटूट मेहनत की।
अजय की यह कहानी हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा है जो समाज की बातों से डरकर अपने सपने छोड़ देता है। यह कहानी बताती है कि मंजिल उनकी होती है जो हार के बाद भी हिम्मत नहीं हारते।
सीख:
सपनों को मरने मत दो। असफलता को अंत मत मानो। मेहनत, लगन और सच्चे इरादे के साथ आगे बढ़ो—मंजिल जरूर मिलेगी। अपने बच्चों के सपनों का सम्मान करें, क्योंकि वे ही कल का भविष्य हैं।
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