अम्मा की अदालत: एक अधिवक्ता की दास्तां
जयपुर शहर की सुबहें हमेशा चहल-पहल से भरी रहती थीं। कोर्ट के बाहर लोग अपने-अपने मुकदमों की सुनवाई का इंतजार करते, अधिवक्ता बहस की तैयारी में जुटे रहते, और पत्रकार हर बड़ी खबर की तलाश में कैमरा लिए घूमते रहते। लेकिन इन सब के बीच, एक बूढ़ी महिला हर सुबह शारदा मंदिर के पास, कोर्ट के बाहर, अपनी पुरानी चादर में लिपटी, एक टिन के कटोरे के साथ बैठी रहती थी। कोई उसका नाम नहीं जानता था। कुछ लोग उसे प्यार से “अम्मा” कहते, तो कुछ उसे पागल या भिखारिन समझकर नजरअंदाज कर देते।
उसकी आंखों में गहरी उदासी थी, लेकिन साथ ही एक अजीब सा आत्मविश्वास भी झलकता था। वह हर सुबह ठीक चार बजे आ जाती, जैसे किसी अनकहे नियम का पालन कर रही हो। उसकी कमर झुकी हुई थी, लेकिन बैठने का अंदाज ऐसा था, जैसे कोई सैनिक अपनी आखिरी सलामी दे रहा हो। उसके सामने रखा कटोरा अक्सर खाली रहता, मगर कभी-कभी कोई राहगीर उसमें कुछ सिक्के डाल जाता। आसपास के दुकानदार भी उसे पहचानने लगे थे, लेकिन उसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता था।
कोर्ट का माहौल और अम्मा की उपेक्षा
एक दिन जयपुर कोर्ट में एक बड़ा मामला चल रहा था—निर्माण घोटाले की सुनवाई। कोर्ट रूम के बाहर पत्रकारों की भीड़, कैमरों की चमक, और हर तरफ हलचल थी। जस्टिस राजेश अग्रवाल कोर्ट रूम संख्या तीन में अपनी कुर्सी पर बैठने वाले थे। वह अपने सख्त और निष्पक्ष फैसलों के लिए मशहूर थे। उनकी नैतिकता और न्याय के प्रति समर्पण की मिसाल दी जाती थी।
कोर्ट की कार्यवाही शुरू हुई। अधिवक्ता अपनी-अपनी दलीलें देने में जुटे थे। तीखी बहस और तनाव भरा माहौल था। तभी न्यायाधीश की नजर खिड़की से बाहर चली गई। उन्होंने अपने क्लर्क से पूछा, “क्या कोर्ट परिसर के मंदिर के बाहर जो बूढ़ी भिखारिन बैठी है, उसे अंदर बुलाया जा सकता है?” पूरा कोर्ट रूम स्तब्ध रह गया। अधिवक्ता एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। पत्रकार फुसफुसाने लगे, “यह क्या हो रहा है?”
अम्मा की कोर्ट में एंट्री
सुरक्षाकर्मी अम्मा के पास आए। “न्यायाधीश ने आपको बुलाया है,” उन्होंने कहा। अम्मा की आंखें कांप उठीं। उसने धीरे से सिर उठाया, कांपते हाथों से अपनी छड़ी उठाई और खड़ी हो गई। चार कदम चलने में उसे जैसे पूरी उम्र लग गई। मगर वह चली, बिना सवाल किए, बिना कुछ बोले।
जब अम्मा कोर्ट रूम में दाखिल हुई तो वहां सन्नाटा छा गया। फटी हुई साड़ी, थकी हुई आंखें, कांपते पैर—लेकिन उनमें आत्मविश्वास था। न्यायाधीश ने एक पल के लिए सिर झुकाया, जैसे किसी को सम्मान दे रहे हों। “आपका नाम?” उन्होंने पूछा।
अम्मा की आवाज में हल्का सा कंपन था, मगर शब्दों में गहराई थी। “नाम अब नाम नहीं रहा, मैडम,” उसने कहा। न्यायाधीश कुछ पल चुप रहे। फिर वह अपनी कुर्सी से उठे, कोर्ट में मौजूद हर शख्स की सांसे जैसे थम गईं। न्यायाधीश ने एक बेंच की ओर इशारा किया, “आइए, आप यहां बैठिए।”
अम्मा की सच्चाई का खुलासा
अम्मा कांपते हुए उस बेंच पर बैठी। उसके चेहरे पर ना गर्व था, ना डर—बस एक गहरी शांति। न्यायाधीश ने पूछा, “आप रोज यहां आती हैं, मंदिर के बाहर बैठती हैं। क्या आप कुछ कहना चाहती हैं?”
अम्मा ने धीरे से सिर उठाया। उसकी आंखें गीली थीं, मगर आवाज में ताकत थी। “कहना तो बहुत कुछ था, मैडम, मगर सुनने वाला कोई नहीं था। इसलिए चुप हो गई।”
न्यायाधीश ने फिर पूछा, “आप रोज इस कोर्ट को देखती हैं। कोई खास वजह?”
अम्मा ने एक पल के लिए आंखें बंद की। फिर बोली, “यह वही जगह है, मैडम, जहां मैंने कभी न्याय के लिए आवाज उठाई थी। जहां मैं कभी अधिवक्ता हुआ करती थी।”
कोर्ट में सन्नाटा छा गया। एक भिखारिन, जो सड़क किनारे बैठी रहती थी, वह अधिवक्ता थी। अम्मा ने अपने पुराने झोले से एक पीला फटा हुआ लिफाफा निकाला। उसमें कुछ पुराने कागज थे—एक वकालतनामा, एक पुराना अधिवक्ता पहचान पत्र, और एक अधूरी याचिका। न्यायाधीश ने वह कागजात पढ़े। जैसे-जैसे वह पढ़ते गए, उनके माथे की लकीरें गहरी होती गईं।
“आप अधिवक्ता थीं?” उन्होंने पूछा।
“हां, मैडम। मगर बेटी की गलती का इल्जाम मुझ पर आया। मैं चुप रही, सोचा बेटी बच जाए। अदालत ने मुझे दोषी ठहराया। मेरी सारी संपत्ति जब्त हो गई। जेल गई। जब बाहर आई तो बेटी सब बेच चुकी थी।”
कोर्ट में मौजूद हर शख्स की आंखें नम थीं। जो अधिवक्ता पहले अम्मा का मजाक उड़ाते थे, वो अब शर्मिंदगी से सिर झुकाए खड़े थे।
न्यायाधीश की संवेदनशीलता और समाज का बदलाव
न्यायाधीश उठे, अम्मा के पास आए और उनका हाथ थाम लिया। “हमने न्याय को सिर्फ कानून की किताबों में बांध दिया,” उन्होंने कहा, “मगर आपने इसे अपनी जिंदगी में जिया।”
अम्मा की आंखों में आंसू थे, मगर वह मुस्कुरा रही थी—जैसे उनकी सालों की तपस्या आज रंग लाई हो।
अगले दिन जयपुर के अखबारों में एक ही हेडलाइन थी—”भिखारिन नहीं, पूर्व अधिवक्ता: न्यायाधीश ने छोड़ा अपनी कुर्सी, किया स्वागत।” खबर थी कि सिस्टम की चूक ने एक जिंदगी को सड़कों पर ला दिया। कोर्ट में जो हुआ वह कोई साधारण सुनवाई नहीं थी, वह एक ऐतिहासिक पल था।
श्रीमती रमा देवी—यह था अम्मा का नाम। एक समय में जयपुर के कोर्ट में उनका नाम हर अधिवक्ता की जुबान पर होता था। वह गरीबों के मुकदमे मुफ्त में लड़ती थीं, कभी घूस नहीं ली, सरकारी अधिकारियों से आंखें मिलाकर सवाल करती थीं। मगर एक दिन उनकी अपनी बेटी प्रीति ने उन्हें धोखा दिया। प्रीति एक निर्माण घोटाले में फंस गई। सारे दस्तावेज रमा देवी के नाम पर थे, क्योंकि प्रीति ने अपनी खराब क्रेडिट हिस्ट्री की वजह से सारी संपत्ति मां के नाम कर रखी थी। अम्मा को कुछ पता नहीं था। उन्हें सीधे जेल भेज दिया गया।
मां-बेटी का दर्द और न्याय की पुकार
न्यायाधीश ने कोर्ट में पूछा था, “आपने अपनी बेटी के खिलाफ कुछ क्यों नहीं कहा?”
अम्मा ने सिर झुका कर जवाब दिया, “मैंने जिंदगी भर कानून के लिए लड़ा। मगर जब मेरी बेटी सामने आई तो मां हार गई। सोचा सजा तो खत्म हो गई, बेटी गले लगाएगी। मगर जब जेल से निकली तो गेट पर कोई नहीं था। बेटी शहर छोड़ चुकी थी। मेरा घर, मेरी दुकान सब बिक चुका था।”
कोर्ट में मौजूद अधिवक्ता श्रीमती आरती वर्मा, जो पहले अम्मा को पागल कहकर हंसती थीं, अपनी कुर्सी से उठीं। “माय लॉर्ड,” उन्होंने कहा, “यह मुकदमा सिर्फ एक व्यक्ति की त्रासदी नहीं है। यह सिस्टम की चूक की मिसाल है। मैं याचिका दायर करती हूं कि इस मामले की दोबारा सुनवाई हो।”
न्यायाधीश ने सहमति में सिर हिलाया। कोर्ट स्थगित हुआ, मगर माहौल बदल चुका था। उस दिन जब अम्मा कोर्ट से बाहर निकलीं तो कोई उनका मजाक नहीं उड़ा रहा था। लोग उन्हें सम्मान की नजरों से देख रहे थे। किसी ने उन्हें पानी की बोतल दी, किसी ने खाने के लिए बुलाया। एक पत्रकार दौड़ कर आया, “अम्मा, क्या आप कैमरे के सामने कुछ कहना चाहेंगी?”
अम्मा मुस्कुराई, “मैंने आज फिर से न्याय पर भरोसा किया है और खुद पर भी।”
समाज की प्रतिक्रिया और नई सुनवाई
अगले दिन जब अखबार छपे और टीवी चैनलों पर खबर चली तो जयपुर के बगराना मोहल्ले में हलचल मच गई। वहां कभी रमा देवी का पुश्तैनी घर था, जो अब एक बिल्डर के दफ्तर में बदल चुका था। उनकी बचपन की पड़ोसन माया देवी फूट-फूट कर रो पड़ी। “हमें लगा वह मर चुकी हैं,” उन्होंने कहा, “मगर अब जब वह जिंदा लौटी हैं तो शहर ने उन्हें भुला दिया।”
माया देवी ने अपने बेटों को बुलाया और कहा, “आज से हर रविवार हम अम्मा को खाना देने जाएंगे। वह हमारे लिए मां समान हैं। वह कभी इस शहर की सबसे बड़ी अधिवक्ता थी।”
सात दिन बाद कोर्ट में नई सुनवाई शुरू हुई। मुद्दा था 2006 का वो मुकदमा जिसमें रमा देवी को दोषी ठहराया गया था। नया अधिवक्ता था प्रोफेसर दिव्यांश, न्यायाधीश वही थे—जस्टिस राजेश अग्रवाल। गवाह थे पुराने कागजात, बिल्डर की गवाही, और एक रहस्यमय बेटी प्रीति, जो अब कहीं नहीं थी।
न्यायाधीश ने आदेश दिया, “प्रीति को कोर्ट में पेश किया जाए। अगर वह हाजिर नहीं होती तो गिरफ्तारी वारंट जारी होगा।”
सच्चाई का उजागर होना और न्याय की जीत
अम्मा कोर्ट की दीवार के पास चुपचाप बैठी थीं। प्रोफेसर दिव्यांश ने पूछा, “अम्मा, आपको डर नहीं लगता कि आपकी बेटी अब बदला ले सकती है?”
अम्मा ने हंसकर कहा, “अब जो होगा, न्याय ही करेगा। मैं अब सिर्फ एक इंसान हूं जो अपना नाम वापस चाहती है।”
जस्टिस राजेश अग्रवाल कोई साधारण न्यायाधीश नहीं थे। बीस साल पहले अजमेर यूनिवर्सिटी में वह रमा देवी से मिले थे। अम्मा उनके लिए प्रेरणा थीं। उनकी एक बात आज भी राजेश की डायरी में लिखी थी—”अगर वकालत को सिर्फ धंधा समझोगी तो यह दुकान बन जाएगी। मगर अगर इसे इंसान की आवाज समझोगी तो यह इबादत बन जाएगी।”
राजेश उस दिन भावुक थे। उन्होंने कहा, “मैं यह मुकदमा व्यक्तिगत रूप से सुनूंगा।”
आखिरकार प्रीति कोर्ट में पेश हुई। महंगी गाड़ी, ब्रांडेड सूट, मगर आंखें झुकी हुई। जब न्यायाधीश ने पूछा, “संपत्ति अपने मां के नाम क्यों ली?” तो उसने कबूल किया, “मेरी क्रेडिट हिस्ट्री खराब थी। मैंने उनके दस्तखत नकली किए।”
पूरा कोर्ट सन्न रह गया। अम्मा चुप रहीं। उन्होंने बस आंखें बंद कर लीं।
न्यायाधीश ने आदेश दिया, “श्रीमती रमा देवी निर्दोष हैं। उन्हें दोबारा वकालत का लाइसेंस दिया जाए, 25 लाख की मानहानि राशि दी जाए, और सरकार सार्वजनिक रूप से माफी मांगे।”
अम्मा का सम्मान और कहानी का संदेश
अगले दिन अम्मा फिर कोर्ट के बाहर बैठी थीं। मगर अब लोग उनके सामने झुक रहे थे। कोई उनके पैर छू रहा था, कोई खाना ला रहा था। न्यायाधीश राजेश अग्रवाल चुपके से उनके पास आए और बैठ गए। “आज मैंने न्याय नहीं किया,” उन्होंने कहा, “आज मैंने सिर्फ एक कर्ज चुकाया है।”
अम्मा मुस्कुराई, “बेटा, आज तू सिर्फ न्यायाधीश नहीं, इंसान भी बना है।”
यह कहानी सिर्फ रमा देवी की नहीं, बल्कि हर उस इंसान की है जो सिस्टम की चूक का शिकार हुआ। यह कहानी है विश्वास की, न्याय की, और उस हौसले की जो सालों की तकलीफों के बाद भी टूटता नहीं।
जयपुर के कोर्ट के बाहर अम्मा की कहानी आज भी गूंजती है। लोग कहते हैं वह भिखारी नहीं, एक योद्धा थी जिसने सच के लिए अपनी पूरी जिंदगी दांव पर लगा दी।
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