कहते हैं न, इंसान उम्र से नहीं… उपेक्षा से बूढ़ा हो जाता है।


और बनारस जैसे शहर में, जहाँ हर गली में इतिहास सांस लेता है, हर मोड़ पर मंदिर की घंटी बजती है, वहीं भीड़ की रफ्तार में सबसे पहले जो कुचला जाता है, वह है इंसान की मौजूदगी।

सुबह के ठीक 7:30 बजे थे।
गंगा विद्यालय के बाहर सड़क हमेशा की तरह ज़िंदा थी—रिक्शों की खड़खड़ाहट, चाय के ठेले से उठती अदरक की खुशबू, अख़बार बेचने वालों की आवाज़ें, और बच्चों की हंसी जो हवा में घुली जा रही थी।

इसी शोर के बीच, फुटपाथ के एक कोने में बैठा था रामनाथ तिवारी

उम्र करीब बहत्तर साल।
झुकी हुई पीठ, काँपते हाथ, और आँखों में वो थकान जो सिर्फ शरीर की नहीं होती—वो थकान जो वर्षों तक किसी के इंतज़ार में बैठने से आती है।

उसके सामने एक पुरानी लकड़ी की पेटी रखी थी।
उसमें कुछ सस्ते पेन, दो-तीन छोटी कॉपियाँ और एक कोने में—कोई ध्यान से देखे तो—एक पुरानी तांबे की चाबी।

रामनाथ हर गुजरते बच्चे को एक ही आवाज़ में पुकारता—
“बाबूजी… पेन ले लीजिए… पाँच रुपये का है।”

कोई नहीं रुकता।

कुछ बच्चे मुस्कुराकर आगे बढ़ जाते,
कुछ हँसते हुए कहते—
“दादा, अब कौन पेन खरीदता है? सब मोबाइल में है!”

रामनाथ हल्की मुस्कान के साथ सिर हिला देता।
जैसे कह रहा हो—
“हाँ बेटा, तुम सही हो… मैं ही पुराना हूँ।”

पर असल में वह पेन नहीं बेच रहा था।
वह अपनी यादों को बेच रहा था।
वह उस दिन को टालने की कोशिश कर रहा था, जब उसे मान लेना पड़े कि उसकी ज़िंदगी अब किसी के काम की नहीं।

कभी उसकी भी एक दुनिया थी।

पत्नी थी—सीता।
और एक छोटा सा बेटा—सूरज

सूरज की उम्र बस सात साल थी।
नटखट, ज़िद्दी, और हर वक़्त सवाल पूछने वाला।

वही सूरज…
जो एक दिन बनारस के एक मेले में, भीड़ में हाथ छूटने के बाद…
हमेशा के लिए खो गया।

रामनाथ ने उस दिन क्या-क्या नहीं किया।
पोस्टर छपवाए, मंदिरों के चक्कर काटे, घाट-घाट खोजा, पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई।

पर सूरज नहीं मिला।

सीता ने उम्मीद में दम तोड़ा।
और रामनाथ… ज़िंदगी में।

अब वह पेन बेचकर जी रहा था।
या यूँ कहें—
मरने की तैयारी कर रहा था।

इसी स्कूल में पढ़ता था एक बच्चा—अयान सिंह

उम्र बारह-तेरह साल।
साफ यूनिफॉर्म, चमकते जूते, और आँखों में अजीब सी गंभीरता।

उसके पिता—विक्रम सिंह,
बनारस के बड़े कारोबारी।

पैसे की कोई कमी नहीं थी।
पर अयान के दिल में थी—
एक खाली जगह।

वह हर बुज़ुर्ग को देखता तो रुक जाता।
जैसे किसी को ढूंढ रहा हो।

कई दिनों से वह रामनाथ को देख रहा था।
पर आज…
आज उसके कदम अपने आप रुक गए।

रामनाथ ने वही आवाज़ लगाई—
“बाबूजी, पेन ले लीजिए…”

अयान कुछ पल बस उसे देखता रहा।

वो आँखें…
उसे जानी-पहचानी लगीं।

जैसे कोई भूली हुई याद,
जो अचानक दिल के किसी कोने से उठ जाए।

“दादा… आपका नाम क्या है?”
अयान ने धीरे से पूछा।

रामनाथ चौंक गया।

सालों बाद किसी ने उसे दादा कहा था।

“बाबूजी, मुझे दादा मत कहो… मैं बस रामनाथ हूँ।”
आवाज़ काँप गई।

अयान मुस्कुराया।
“नहीं… आप दादा ही हो।”

उसने पूरा डिब्बा उठा लिया।
“मैं सारे पेन ले लूँगा।”

रामनाथ घबरा गया।
“इतने मत लो बेटा… मैं लायक नहीं हूँ।”

अयान ने सौ का नोट उसकी हथेली पर रख दिया।
“दादा… आप बहुत कीमती हो।”

उस पल…
रामनाथ रो पड़ा।

उसने अयान को गले लगा लिया।

सालों बाद…
किसी ने उसे इंसान की तरह छुआ था।

“मैं आज स्कूल के बाद फिर आऊँगा।”
अयान बोला।

रामनाथ पहली बार मुस्कुराया।

और फिर…
कहानी ने करवट ली।

दोपहर को अयान सच में आया।
रामनाथ इंतज़ार में ही बैठा था।

बातें हुईं।
दर्द निकला।
और फिर…

“दादा, आप आज मेरे साथ घर चलो।”

एक फुटपाथ से
एक कोठी तक का सफ़र।

जहाँ किस्मत ने
अपना सबसे बड़ा राज़ छुपा रखा था।

घर में विक्रम सिंह का सामना हुआ।
पहचान नहीं…
पर दिल काँप गया।

फिर आई वह तांबे की चाबी।

फिर वह तस्वीर।

फिर वह याद।

और फिर…
वो सवाल—

“बाबा… क्या मैं आपका सूरज हो सकता हूँ?”

रामनाथ टूट गया।

विक्रम घुटनों पर बैठ गया।

पिता और बेटा
तीस साल बाद
फिर मिले।

अयान की आँखों में आँसू थे,
पर होंठों पर मुस्कान।

“अब मेरे पास दादा भी हैं… और पापा भी।”

गंगा की आरती में,
तीनों ने दीप बहाए।

रामनाथ ने आसमान की ओर देखा।

“भगवान… तूने मुझे सब कुछ लौटा दिया।”

कहते हैं न—
रिश्ते खून से नहीं,
दिल की पुकार से बनते हैं।