इंसानियत के ₹14 : संध्या की कहानी

दिल्ली की भीड़-भाड़ भरी गलियों से कुछ दूर, शहर के एक बड़े मॉल में शाम करीब 7 बजे का समय था। मॉल में चहल-पहल कुछ कम हो गई थी, खरीदारी के बाद लौटती भीड़ अब घरों की ओर बढ़ने लगी थी। लेकिन ग्रोसरी सेक्शन के काउंटर नंबर चार पर अभी भी कुछ ग्राहक अपने नुक्सान-फायदे का हिसाब-किताब लगाते हुए खड़े थे। इसी काउंटर पर खड़ी थी संध्या – एक साधारण सी दिखने वाली, परंतु अपने भीतर विशेष संवेदनाएँ संजोए हुए लड़की।

संध्या की उम्र महज 22 साल थी, मध्यमवर्गीय परिवार की जिम्मेदारियां, माँ की तबीयत, छोटी बहन की शिक्षा और किराए के मकान का बोझ सब उस पर थे। उसने पढ़ाई के साथ-साथ ही यह नौकरी ज्वाइन की थी। उसकी आंखों में हल्की सी थकान जरूर झलक रही थी, लेकिन चेहरे पर एक शांत मुस्कान और व्यवहार में मिठास सदा बनी रही।

संध्या अपने काम में मग्न थी कि तभी एक बुजुर्ग व्यक्ति लड़खड़ाते कदमों से काउंटर के पास पहुंचे। उनकी उम्र करीब 75 वर्ष थी, झुकी कमर, सफेद बिखरे बाल, कांपते हाथ और आंखों में गहरी झिझक साफ दिख रही थी। उन्होंने अपने छोटे से थैले में से झिझकते हुए कुछ सामान निकाला – दो ब्रेड, एक दूध का पैकेट, कुछ दवाइयां और एक साबुन। धीरे-धीरे उन्होंने सारा सामान बेल्ट पर रखा और अपनी जेब टटोलते हुए एक पुराना सा बटुआ बाहर निकाला जिसमें चंद सिक्के और कुछ पुराने नोट थे।

संध्या ने सामान स्कैन करना शुरू किया, कुल बिल 214 रुपये बना – ‘दादाजी, आपके सामान का कुल ₹214 हुआ।’ बुजुर्ग थोड़ा घबरा गए। हाथ कांप रहे थे। उन्होंने बटुए से निकाल कर 200 रुपये संध्या को थमा दिए। कुछ सिक्के और बचे, मगर उनमें मात्र 3-4 रुपये ही थे। झिझकते हुए बोले, “बिटिया, 14 रुपये कम पड़ रहे हैं, दूध का पैकेट हटा दूँ?”

संध्या की नजर उनके हाथ पर पड़ी जहाँ एक उंगली पर पट्टी बंधी थी, चेहरे पर झुकी लाचारी देख उसकी संवेदनाएं उमड़ पड़ीं। पल भर के लिए संध्या सोच में पड़ गई, फिर फौरन अपनी जेब से 20 रुपये निकाले और काउंटर की मशीन में डाल दिए। “दादाजी, सब ठीक है, आप ये सारा सामान ले जाइए,” उसने मुस्कुरा कर कहा।

बुजुर्ग की आंखें भर आईं। “बिटिया, भगवान तेरा भला करे, तू बहुत बड़ी इंसान है,” वे रुंधे गले से बोले। संध्या ने सिर झुका लिया, मुस्कान और संतोष उसके चेहरे पर साफ झलक रहे थे।

लेकिन यह सब स्टोर के मैनेजर, मृदुल शर्मा, देख रहे थे। उम्र करीब 40 साल, चेहरे पर कठोरता और व्यवहार में अनुशासन, भावना पर बल्कि नियम-कानून में विश्वास रखने वाले। वो तेज कदमों से काउंटर पर आ धमके—“यह क्या कर रही थी तुम? स्टोर में अपने पैसे लगाओगी? यह दुकान है या दानशाला?” संध्या ने शांत स्वर में बताया, “सर, दादाजी बुजुर्ग हैं, पैसे कम पड़ गए थे, मैंने अपने पैसे लगा दिए।” मगर मृदुल भड़क उठे—“इस तरह संवेदनाओं को दुकान में जगह नहीं है। नियम तोड़ोगी तो औरों को भी हिम्मत मिलेगी। अब तुम इस स्टोर में काम नहीं करोगी—यू आर फायरड!”

संध्या अवाक रह गई, भीड़ के बीच कुछ लोग चुपचाप यह दृश्य देख रहे थे, कोई कुछ न बोला। बुजुर्ग हाथ जोड़कर बोले, “साहब, बच्ची ने इंसानियत दिखाई है,” लेकिन मृदुल शर्मा ने उनकी बात अनसुनी कर दी।

संध्या ने गला दबा आंसू रोकते हुए, काउंटर से अपना बैज उतार लिया, बैग उठाया और बाहर निकल गई। उसके भीतर एक कसक, घुटन, तिरस्कार की पीड़ा सबकुछ एक के बाद एक उमड़ रही थी—वो तिरस्कार जो सबके सामने हुआ, जो शब्दों से अधिक गहरा लगा।

घर लौट कर संध्या उस छोटे से एक कमरे में गई, जो उसका संसार था। मां का फोन आया पर उसने नहीं उठाया। सोचने लगी—क्या वाकई गलती सिर्फ इतनी थी, कि उसने मदद कर दी? क्या नौकरी के नियम इंसानियत से हमेशा ऊपर हैं? इन सवालों, आंसुओं और रात की खामोशी में संध्या सो गई।

अगली सुबह अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। वही बुजुर्ग, अब एक चमचमाती कार के साथ, एक भव्य व्यक्ति के साथ, जिन्हें देखकर संध्या हैरान रह गई। “बिटिया, अब तेरे जीवन का असली दिन आया है,” बुजुर्ग बोले। उनके साथ खड़े सज्जन ने नाम बताया— “मैं हूं श्री शर्मा, दयानंद अग्रवाल का सचिव। और दयानंद जी, ये वही बुजुर्ग बोले—मैं सिर्फ एक आम ग्राहक नहीं, अग्रवाल फाउंडेशन का संस्थापक हूं।” उन्होंने जेब से लिफाफा निकालते हुए कहा, “जो इंसान इंसानियत के लिए अपनी नौकरी गंवा सकता है, उसके साथ पूरा समाज खड़ा होना चाहिए। यह है तुम्हारे लिए मेरी फाउंडेशन में नई नौकरी का ऑफर लेटर—जहाँ न केवल तीन गुना वेतन मिलेगा, बल्कि वह सम्मान जो तुम्हें मिलना चाहिए था।”

संध्या की आंखों से आंसू झरने लगे—यह खुशी, यह भरोसा और यह स्वाभिमान उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। “मैंने तो बस छोटी सी मदद की थी…” दयानंद जी बोले—“इसी में ही तो महानता छुपी है, बेटा। तुमने बिना किसी खुदगर्जी के किसी जरूरतमंद की इज़्ज़त बचाई।”

संध्या ने ऑफर लेटर हाथ में लिया, उस पर लिखा था: “आपको अग्रवाल फाउंडेशन की सामाजिक न्याय टीम में मानव सेवा एवं संवेदनशीलता के लिए नियुक्त किया जाता है। यह जॉब आपके लिए सम्मान का प्रतीक है।”

नई जिम्मेदारी और नवसंकल्प के साथ संध्या ने फाउंडेशन ज्वाइन किया, जहां वो जरूरतमंदों, बच्चों, बुजुर्गों के लिए जोर-शोर से काम करने लगी। समर्पण और करुणा अब उसकी शक्ति थी।

कुछ ही दिनों बाद, उसी मॉल में जहां संध्या को नौकरी से निकाला गया था, एक बड़ा सामाजिक कार्यक्रम रखा गया। समाजसेवी संस्थाओं के नुमाइंदे, मीडिया और लोग मौजूद थे। वहाँ संध्या को ‘अनसंग हीरो’ की उपाधि दी गई। मंच पर पहुँची तो उसकी नजर पुराने काउंटर और मृदुल शर्मा पर पड़ी, जो सिर झुकाए अपनी गलती पर पछता रहे थे।

मंच पर संध्या ने कहा, “मुझे ना किसी से माफी चाहिए, ना कोई बदला। बस, मेरी यही उम्मीद है कि किसी को इंसानियत दिखाने के लिए कभी अपमानित ना किया जाए। मैंने उस दिन ₹14 नहीं, अपने पापा को उस बुजुर्ग में देखा था।”

पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। संध्या की छोटी सी संवेदनशीलता ने साबित कर दिया—दुनिया बदलने के लिए बड़ी क्रांति नहीं, छोटा सा मानवीय जज्बा चाहिए। इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है।

सीख

आज भी अगर किसी के पास शब्द नहीं, तो बस छोटा सा दिल और थोड़ा सा सहारा बड़ा बदलाव ला सकता है। कभी किसी को कमज़ोर मत समझो—क्योंकि इंसानियत के छोटे से जज्बे में बड़ा समाज बदलने का माद्दा होता है।

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