एक सैनिक की गरिमा: कर्नल अरविंद राठौर की कहानी
गर्मी की दोपहर थी। एक छोटे से कस्बे के सरकारी पेंशन कार्यालय के बाहर लंबी टेढ़ी-मेढ़ी लाइन लगी हुई थी। लाइन के सबसे आखिर में एक बुजुर्ग खड़े थे। उनका शरीर पतला था, वे ढीली फौजी वर्दी पहने थे। एक हाथ में लकड़ी की छड़ी थी और दूसरे हाथ में एक फाइल जिसमें केवल एक अर्जी थी — अपनी रिटायर्ड पेंशन की फाइल ट्रैक कराने की। उनके कंधे पर एक पुरानी और फेड हो चुकी मेडल की पिन लटकी थी, जिसे आजकल शायद ही कोई पहचानता था।
कुछ नौजवान लड़कों ने उनकी हालत देखकर हँसते हुए कहा, “देखो, फिल्मी डायलॉग वाला फौजी लगता है। ट्रेनिंग से सीधे पेंशन लेने आ गया है।” बुजुर्ग कुछ नहीं बोले, बस मुस्कुराते हुए आगे की लाइन की ओर देखते रहे, जैसे उन्होंने जीवन में ऐसी ताने और नजरिए पहले भी सह लिए हों।
तभी अचानक सायरन की तेज आवाज गूंजने लगी। लाल बत्ती वाली गाड़ी के साथ पूरे काफिले ने ऑफिस के बाहर एंट्री ली। एक नौजवान मंत्री गुस्से में बाहर निकला और जोर से चिल्लाया, “लाइन हटाओ! मुझे अंदर जाना है, किसी से मिलने का टाइम नहीं है।” भीड़ दबी हुई चीखों के साथ इधर-उधर भागी।
लेकिन बुजुर्ग अपनी धीमी चाल में संतुलन बनाए हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। उनकी उम्र और थकान उनकी हर चाल में झलक रही थी। मंत्री की नजर उन पर पड़ी और वह भड़क उठा। “अबे ओ बुजुर्ग, क्या अंधा है? रास्ते में क्यों अड़ा है? जानता है मैं कौन हूं?” बिना कुछ सोचे-समझे मंत्री ने उस बुजुर्ग के गाल पर जोरदार थप्पड़ मार दिया।
भीड़ सन्न रह गई। बुजुर्ग की फाइल जमीन पर गिर गई, उनका चश्मा टूट गया। वे झुककर धीरे-धीरे टूटे हुए चश्मे के टुकड़े उठा रहे थे। इतना धीमे कि पास खड़ा एक लड़का ही सुन पाया, “मैंने इस देश के लिए गोली खाई है, पर यह अपमान पहली बार झेला हूं।” उनकी आंखें नम हो गईं।
भीड़ में खड़ा एक नौजवान, साधारण कपड़ों में, चुपचाप यह सब देख रहा था। उसने तुरंत अपनी जेब से मोबाइल निकाला और एक कॉल लगाया। “सर, कोड ग्रीन एक्टिवेट करें, लोकेशन जिला पेंशन भवन।” कॉल खत्म करते ही वह बुजुर्ग के पास गया, उनके कंधे पर हाथ रखकर बोला, “आप बैठिए, अब सब ठीक हो जाएगा।”
मंत्री को पता नहीं था कि उसने क्या कर दिया था। दस मिनट के भीतर कस्बे का माहौल बदल चुका था। सरकारी कार्यालय के बाहर हलचल जारी थी, लेकिन दूर से सेना की हरी गाड़ियों की कतार दिखी। एक, दो, तीन, फिर लगातार आर्मी के वाहन ऑफिस के गेट के पास रुके।
भीड़ में फुसफुसाहटें फैल गईं, “सेना यहां क्यों आई है? क्या कोई बड़ा अफसर आया है? कहीं आतंक की सूचना तो नहीं?” लेकिन जो हुआ उसने सबको स्तब्ध कर दिया।
तीन उच्च रैंकिंग आर्मी अधिकारी—मेजर, ब्रिगेडियर, और लेफ्टिनेंट जनरल—गाड़ियों से उतरे और सीधे उस बुजुर्ग के पास आए जो अभी भी टूटे चश्मे को ठीक कर रहे थे। उन्होंने एक साथ सैल्यूट किया।
पूरा दफ्तर हक्का-बक्का रह गया। “सलाम, कर्नल अरविंद राठौर साहब,” उन्होंने कहा। बुजुर्ग चौंक कर उठे, मुस्कुराए और बोले, “इतने साल बाद भी पहचान लिया।”
ब्रिगेडियर ने कहा, “सर, आप ही हैं जिन्होंने कारगिल गेट ऑपरेशन में हमें जिंदा वापस लाया था। यह देश आपका कर्जदार है।”
मंत्री, जिसने अभी कुछ देर पहले थप्पड़ मारा था, धीरे-धीरे भीड़ के पीछे हट गया। सबकी निगाहें अब उसी पर थीं।
मीडिया भी पहुंच चुकी थी। कैमरे, माइक, रिपोर्टर सब जुट गए। “सर, क्या आप सच में कर्नल राठौर हैं? आप यहां इस हालत में क्यों आए? सरकार ने आपकी पेंशन क्यों नहीं दी?” पूछा गया।
कर्नल राठौर ने धीरे कहा, “मैं यहां किसी को नीचा दिखाने नहीं आया था। बस अपनी बकाया पेंशन की अर्जी लेकर आया था। सोचा शायद कोई सुन ले। पर यहां तो थप्पड़ मिला।”
वहीं खड़ा वह नौजवान, जिसने कॉल की थी, बोला, “मैं कैप्टन अरव राठौर, कर्नल साहब का पोता हूं। मैं आज यहां सिविल ड्रेस में था क्योंकि मुझे शक था कि यहां बुजुर्गों के साथ बुरा व्यवहार होता है। आज मैंने देखा और रिकॉर्ड भी किया।” उसने वीडियो मीडिया को सौंप दिया।
अगले 20 मिनट में वीडियो पूरे देश में वायरल हो गया। खबरें चलने लगीं, “मंत्री ने देश के हीरो को थप्पड़ मारा।” “कारगिल योद्धा का अपमान।”
शाम तक प्रधानमंत्री कार्यालय से आदेश आया कि कर्नल अरविंद राठौर को राष्ट्रपति भवन में विशेष सम्मान समारोह में आमंत्रित किया जाए। मंत्री का तत्काल इस्तीफा लिया गया।
शाम 5 बजे हर चैनल की हेडलाइन थी, “देश अपने सच्चे हीरो को करेगा सलाम।”
समारोह भव्य था। सशस्त्र बलों के अधिकारी कतार में खड़े थे। सफेद शेरवानी में छड़ी के सहारे धीरे-धीरे चलते हुए कर्नल अरविंद राठौर मंच पर पहुंचे। राष्ट्रपति ने हाथ जोड़कर उनका स्वागत किया और कहा, “देश आपका आरणीय है। आपने न केवल युद्धभूमि में बल्कि आज भी हमें सिखाया कि असली वीरता क्या होती है।”
पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। कर्नल राठौर ने माइक थामा, उनकी आवाज़ में वही फौजी ठहराव था, पर आंखें नम थीं। “मैं कोई शिकायत करने नहीं आया। मैंने यह देश अपनी जान और आत्मा से जिया है। कल मुझे थप्पड़ पड़ा, लेकिन आज जो सम्मान मिला वह हर चोट से बड़ा है।”
भीड़ भावुक हो गई। उन्होंने टूटे चश्मे को उठाकर कहा, “यह टूटी ऐनक उस दिन की याद दिलाती है जब देश अपने बुजुर्गों को भूल जाता है। लेकिन याद रखिए, जिस देश ने अपने सैनिक का सम्मान नहीं किया, वह कभी महान नहीं बन सकता।”
तालियां और जयकारे गूंजने लगे। मीडिया उत्साहित था।
फिर मंत्री मंच पर आया, झुककर कर्नल राठौर के पांव छूते हुए बोला, “माफ कीजिए, मुझे पहचानने में गलती हुई। सत्ता ने मेरी आंखें ढक दी थीं।”
कर्नल ने कहा, “पहचान की गलती नहीं थी, आदर की कमी थी। यह कमी सिर्फ आपकी नहीं, पूरे सिस्टम की है। इसे बदलना जरूरी है।”
सरकार ने घोषणा की कि हर सरकारी दफ्तर में एक दिन “वेटरन डिग्निटी डे” मनाया जाएगा, जहां रिटायर्ड सैनिकों और बुजुर्गों को सम्मानित किया जाएगा, उनकी बातें सुनी जाएंगी और उनका अनुभव अगली पीढ़ी को सिखाया जाएगा।
समारोह के अंत में एक बच्चा कर्नल के पास आया और पूछा, “दादा जी, आपको इतना सब्र कैसे आया?”
कर्नल मुस्कुराए और बोले, “जो आदमी बॉर्डर पर बिना सवाल के गोली झेल सकता है, वह अपने ही देश की नजरों से गिरने की तकलीफ भी सह सकता है। लेकिन याद रखना, इज्जत कोई दे नहीं सकता, उसे अपने कर्मों से कमाना पड़ता है।”
सीख
यह कहानी हमें याद दिलाती है कि हमारे सैनिकों ने देश के लिए जो बलिदान दिया है, उसका सम्मान करना हमारा कर्तव्य है। सच्ची वीरता केवल युद्धभूमि में नहीं, बल्कि अन्याय के खिलाफ खड़े होने में भी होती है। एक राष्ट्र तभी महान बन सकता है जब वह अपने सच्चे नायकों का सम्मान करे।
क्या आपने कभी ऐसी कहानी सुनी है जहाँ किसी ने अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई हो? आप क्या सोचते हैं, हम कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि हमारे नायक कभी अपमानित न हों?
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