एसपी और वेश्या — एक अधूरी ज़िंदगी का पूरा सच
मधुपुर शहर की तंग गलियों में रात का सन्नाटा अक्सर इंसान की आवाज़ को निगल जाता था। दिन का शोर, रात की ख़ामोशी, और उन गलियों के बीच बस एक औरत का नाम गूंजता था — रूपा।
लोग उसे “वेश्या” कहते थे, पर कोई उसकी कहानी नहीं जानता था।
वो छोटी-सी बेटी गुड़िया के साथ उसी अंधेरी बस्ती में रहती थी। हर रात किसी न किसी की परछाईं उसके दरवाज़े से टकराती थी, पर हर सुबह वही दरवाज़ा एक मां के रूप में खुलता था।
वो बेटी के बाल सँवारती, पुराने कपड़ों में भी उसे स्कूल भेजती —
“पढ़ ले गुड़िया, ताकि तू मेरी तरह किसी के पैरों की धूल न बने।”
उसी शहर में नया एसपी राघव प्रताप सिंह आया था — सख़्त स्वभाव, ईमानदार और कानून का पुजारी। उसने आते ही शहर की रेड लाइट एरिया में छापा मारा।
सैकड़ों औरतें भागीं, पर रूपा वहीं खड़ी रही।
“नाम?”
“रूपा।”
“काम?”
“जीना।”
राघव चौंका। उसकी आंखों में अजीब ठहराव था — जैसे सवालों के जवाब उसी में छिपे हों। उसने पूछा,
“तुझे शर्म नहीं आती?”
रूपा ने मुस्कुराकर कहा,
“शर्म तो तब आई थी साहब… जब मेरे पति ने मुझे बेटी के साथ घर से निकाल दिया था।”
राघव चुप हो गया। उसे लगा जैसे किसी ने आईने में उसकी ही परछाईं दिखा दी हो।
उसने धीरे से पूछा, “तू चाहती क्या है?”
रूपा बोली, “बस इतना कि मेरी बेटी कभी इस गली में न आए।”
राघव ने आदेश दिया कि उसके खिलाफ कोई केस न बने। उसने कहा, “इस औरत से ज्यादा इज़्ज़तदार मैंने कोई नहीं देखा।”
उस दिन के बाद राघव अक्सर उस बस्ती में आता। पहले कानून के नाम पर, फिर किसी अनकहे खिंचाव से।
रूपा उसके लिए चाय बनाती, और दोनों घंटों बातें करते। राघव ने कभी उसे “वेश्या” नहीं कहा — हमेशा “रूपा जी” कहा।
धीरे-धीरे दोनों के बीच एक ऐसी चुप्पी पनपी जो शब्दों से ज़्यादा सच्ची थी।
एक दिन रूपा ने पूछा,
“साहब, क्या कानून किसी वेश्या को इंसान मानता है?”
राघव बोला, “कानून सबको बराबर देखता है।”
वो मुस्कुराई, “तो फिर समाज आंखों पर पट्टी क्यों नहीं बांधता, जैसे कानून ने बांधी है?”
राघव के पास कोई जवाब नहीं था।
समय बीता। गुड़िया अब दस साल की हो गई थी। एक दिन स्कूल में किसी बच्चे ने कहा,
“तेरी मां वेश्या है!”
वो रोती हुई घर आई — “मां, मैं स्कूल नहीं जाऊंगी।”
रूपा ने उसे सीने से लगाया, “बेटी, लोग जो कहते हैं वो उनका गंदा पानी है, तू अपना चेहरा साफ़ रख।”
उसी शाम राघव आया तो रूपा ने सब बताया। उसने कहा, “अगर यही समाज की सज़ा है, तो मैं अपनी बेटी को यहां से ले जाऊंगी।”
राघव ने गंभीर होकर कहा, “रूपा, अगर मैं तुम्हें अपनी पत्नी बना लूं तो क्या समाज कुछ कहेगा?”
रूपा के हाथ कांप गए। उसने सोचा, यह मज़ाक है।
पर राघव बोला, “मैं मज़ाक नहीं कर रहा। तुम उस बेटी की मां हो जो इस देश का भविष्य है। और मैं वो आदमी हूं जो अब चुप नहीं रह सकता।”
शहर में तूफ़ान मच गया। अखबारों में छपा —
“एसपी ने वेश्या से शादी की।”
लोगों ने कहा—“शहर की इज़्ज़त मिट्टी में मिल गई।”
पर राघव बोला, “अगर किसी औरत की इज़्ज़त समाज तय करेगा, तो मर्दों का चरित्र कौन तय करेगा?”
कुछ महीने बीते। रूपा अब रूपा सिंह बन गई थी। गुड़िया अच्छे स्कूल में पढ़ने लगी।
पर समाज की ज़ुबानें अब भी ज़हर उगलती थीं।
रूपा ने एक दिन कहा, “साहब, शायद मैं आपके लिए बोझ बन गई हूं।”
राघव ने कहा, “नहीं रूपा, तुम वो सच्चाई हो जिससे मैं अब आंख नहीं मोड़ सकता।”
लेकिन किस्मत को मंजूर कुछ और था।
एक रात गुड़िया को बुखार चढ़ा। अस्पताल ले जाने के रास्ते में पुलिस वायरलेस से सूचना आई — “सिटी थाना में गोलीकांड!”
राघव ड्यूटी पर था। उसने कहा, “मैं लौटता हूं रूपा, तुम गुड़िया का ध्यान रखना।”
रूपा बोली, “डर लगता है…”
वो मुस्कुराया, “डरना तब, जब मैं लौटकर न आऊं।”
रात के तीन बजे तक राघव नहीं लौटा।
सुबह ख़बर आई — गोलीबारी में एसपी राघव शहीद हो गया।
रूपा की चीख़ पूरे मुहल्ले में गूंजी। वो मंदिर की सीढ़ियों पर बैठी रही, गुड़िया को सीने से लगाए —
“देख बेटी, यही होते हैं असली मर्द — जो औरत की इज़्ज़त को मुकाम तक पहुंचा देते हैं।”
दिन बीतते गए। सरकार ने मुआवज़ा दिया, पर समाज ने फिर ताने दिए —
“देखो, वेश्या अब शहीद की विधवा बन गई।”
रूपा चुप रही। बस हर सुबह उसी मंदिर में दिया जलाती, जहां राघव की तस्वीर रखी थी।
गुड़िया अब बड़ी हो गई थी। उसने पुलिस की परीक्षा पास की।
जब उसे एसआई की वर्दी मिली, वो मां के पैर छूते हुए बोली,
“मां, अब मैं पापा का अधूरा सपना पूरा करूंगी।”
रूपा की आंखों में गर्व के साथ आंसू थे —
“बेटी, याद रखना… समाज तुझे नाम से नहीं, तेरे कर्म से पहचानेगा।”
वर्षों बाद, जब गुड़िया बतौर डीएसपी बनी, उसने पहले दिन अपने ऑफिस में राघव और रूपा की तस्वीर लगाई —
नीचे लिखा था:
“इंसानियत ही असली धर्म है।”
समय के साथ रूपा बूढ़ी हो गई। एक सुबह वही मंदिर, वही सीढ़ियां…
रूपा ने एक आख़िरी दिया जलाया और फुसफुसाई,
“राघव, आज तेरी बेटी तेरे जैसा बन गई है… अब मेरा काम पूरा हुआ।”
इतना कहकर वह धीरे-धीरे वहीं मंदिर की सीढ़ियों पर सिर रखकर लेट गई।
गुड़िया जब पहुंची, मां की आंखें बंद थीं, पर होंठों पर मुस्कान थी।
वो बोली, “मां, मैं जानती हूं — आप अब अकेली नहीं हैं, पापा के पास हैं।”
उसने वही दिया उठाया, जो हर साल उसकी मां जलाती थी, और बोली—
“अब ये दिया मैं जलाऊंगी, ताकि किसी औरत को कभी अंधेरे में न रहना पड़े।”
News
इंद्रेश उपाध्याय जी की शादी: सोशल मीडिया विवाद, भक्तों की सोच और आधुनिक समाज में कथावाचक की छवि
इंद्रेश उपाध्याय जी की शादी: सोशल मीडिया विवाद, भक्तों की सोच और आधुनिक समाज में कथावाचक की छवि भूमिका इंद्रेश…
Aryan Khan’s Viral Middle Finger Video: Public Scrutiny, Legal Action, and What It Means for Celebrity Culture
Aryan Khan’s Viral Middle Finger Video: Public Scrutiny, Legal Action, and What It Means for Celebrity Culture Background: Aryan Khan—From…
🌸 बेटी – वरदान या बोझ? मीरा की कहानी 🌸
🌸 बेटी – वरदान या बोझ? मीरा की कहानी 🌸 रात के दो बजे थे। अस्पताल के कमरे में गहरा…
कानून का आईना – इंस्पेक्टर राजवीर और जज सत्यदेव की कहानी
कानून का आईना – इंस्पेक्टर राजवीर और जज सत्यदेव की कहानी शहर की रातें भी कभी-कभी अजीब होती हैं —ट्रैफिक…
न्याय की आवाज़ – आरव और इंसाफ की कहानी
न्याय की आवाज़ – आरव और इंसाफ की कहानी दोपहर का वक्त था।सूरज आग उगल रहा था।शहर की भीड़भाड़ भरी…
🚨 भ्रष्टाचार का किला – कलेक्टर स्नेहा सिंह की सच्ची कहानी
🚨 भ्रष्टाचार का किला – कलेक्टर स्नेहा सिंह की सच्ची कहानी शहर का आरटीओ ऑफिस महीनों से चर्चाओं में था।…
End of content
No more pages to load






