कहानी: एक भाई का त्याग, एक पुलिसवाले की इंसानियत

पुणे शहर की वसंत विहार कॉलोनी की शांत दोपहर थी। ऊँची दीवारों के भीतर अमीरी की चमक थी, लेकिन उसी गेट पर आज कुछ अलग ही दृश्य था। सब इंस्पेक्टर साकेत सिंह, जिसकी सख्ती और कानूनप्रियता के चर्चे पूरे महकमे में थे, अपनी जीप में बैठा था। उसकी जिंदगी में भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं थी। सात साल पहले एक हादसे में उसने पत्नी और पाँच साल की बेटी पिंकी को खो दिया था। तब से उसकी दुनिया उजड़ चुकी थी, और वह खुद को वर्दी के पीछे छुपा कर रखता था।

इसी दोपहर उसकी नजर गेट की ओर बढ़ते दो बच्चों पर पड़ी। एक बारह साल का लड़का, राजू, और उसकी पाँच साल की बहन, प्रिया। दोनों के कपड़े मैले, चेहरे पर थकान और भूख की लकीरें साफ झलक रही थीं। साकेत को लगा कि ये बच्चे भीख माँगने या चोरी करने आए हैं। उसने भारी आवाज में उन्हें डांटा, “ऐ लड़के, यहाँ क्या कर रहे हो? भागो यहाँ से!”

राजू डर गया, लेकिन अपनी बहन की हालत देखकर उसका डर गायब हो गया। प्रिया तीन दिन से भूखी थी, उसकी आँखें बुझी थीं। राजू साकेत सिंह के पास पहुँचा, आँखों में आँसू लिए, आवाज में हिम्मत थी, “अंकल, मैं भीख नहीं माँग रहा, एक सौदा करने आया हूँ। मेरी बहन को खरीद लो… बस इसे पेट भर खाना खिला देना।”

साकेत के दिल की सारी सख्ती उस पल में टूट गई। उसे अपनी बेटी पिंकी याद आ गई। वह सुन्न हो गया, हाथ काँपने लगे। उसने राजू को गले लगाया, “नहीं बेटा, कोई अपनी बहन को ऐसे नहीं बेचता। चलो मेरे साथ, मैं तुम्हें खाना खिलाऊँगा।”

वसंत विहार के लोग हैरान थे। हमेशा सख्त दिखने वाला पुलिसवाला आज दो बच्चों को गोद में उठाए रेस्टोरेंट ले गया। वहाँ बच्चों को गरमागरम खाना खिलाया। प्रिया बिस्किट पर टूट पड़ी, राजू ने पहले अपनी बहन को खिलाया, खुद बाद में खाया। साकेत की आँखों में पहली बार पिता की ममता की नमी थी।

खाना खत्म होने के बाद साकेत ने बच्चों से उनकी कहानी पूछी। राजू ने बताया, “हम इटारसी के रहने वाले हैं। मम्मी-पापा के साथ पुणे शादी में आ रहे थे। ट्रेन में भीड़ थी, रात को भुसावल स्टेशन पर मैं पानी लेने उतरा, प्रिया पीछे आ गई। ट्रेन चल दी, हम रह गए।”

दोनों बच्चे अकेले रह गए थे। पुणे पहुँचने की कोशिश की, स्टेशन, मंदिर, सड़कों पर सोए, पैसे खत्म हो गए। राजू ने काम ढूँढा, कोई नहीं मिला। भूख ने मजबूर किया कि अपनी बहन का सौदा करने तक सोच लिया। साकेत यह सुनकर रो पड़ा। उसने बच्चों को अपने घर ले जाने का फैसला किया।

सालों बाद उसके घर में बच्चों की हँसी गूँजने लगी। उसने बच्चों के लिए नए कपड़े, खिलौने खरीदे। प्रिया ने डरकर उसका हाथ पकड़ा, साकेत ने उसे अपने पास सुला लिया। उस रात वह चैन की नींद सोया, सपनों में बेटी की मुस्कान थी।

अगले दिन साकेत ने बच्चों के माता-पिता को खोजने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी। रेलवे पुलिस, गुमशुदगी रिपोर्ट, इटारसी पुलिस स्टेशन में फोन, हर जगह संपर्क किया। पता चला, मनीष और अंजुलता नाम के माता-पिता अपने बच्चों को ढूँढते हुए पुणे और आसपास के शहरों में भटक रहे थे, उनका फोन खो गया था।

राजू ने बताया, “माँ की सहेली विमला मौसी पुणे के शिवाजी नगर में रहती हैं।” साकेत ने दो दिन तक शिवाजी नगर की गलियों में पूछताछ की। आखिरकार एक किराने वाले ने बताया, विमला जी पास की सोसाइटी में रहती हैं। साकेत वहाँ पहुँचा, दरवाजा खटखटाया। विमला जी ने बताया, वे भी बहुत परेशान हैं, मनीष और अंजुलता नहीं पहुँचे।

साकेत ने भरोसा दिलाया, “आपके रिश्तेदार तो नहीं, पर उनके बच्चे मेरे पास हैं, बिल्कुल सुरक्षित।” विमला जी ने रोते हुए साकेत को धन्यवाद दिया। अगले दिन साकेत, राजू और प्रिया को लेकर विमला मौसी के घर पहुँचा। वहाँ मनीष और अंजुलता अपने बच्चों को देखकर फूट-फूटकर रो पड़े। परिवार का मिलन देखकर हर किसी की आँखें नम हो गईं।

मनीष और अंजुलता ने साकेत के पैर पकड़ लिए, “आपने हमारे बच्चों को नहीं, हमारी जिंदगियाँ बचाई हैं।” साकेत ने उन्हें उठाकर गले लगाया, “यह मेरा फर्ज था। इन बच्चों ने मुझे फिर से जीना सिखा दिया।”

उस दिन के बाद साकेत सिंह की जिंदगी बदल गई। उसके घर की दीवार पर अब पत्नी और बेटी की तस्वीर के साथ राजू और प्रिया की भी मुस्कुराती तस्वीर थी। राजू और प्रिया का परिवार इटारसी लौट गया, लेकिन वे हर हफ्ते साकेत अंकल को फोन करते।

कहानी की सीख:
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि इंसानियत और फर्ज का कोई मोल नहीं होता। एक छोटे से प्यार भरे कदम से ना सिर्फ किसी और की बल्कि हमारी अपनी जिंदगी भी बदल सकती है। राजू के त्याग और साकेत सिंह के बदलाव ने यह साबित किया कि असली ताकत दिल की होती है।

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