“मां जिसने इंसानियत सिखाई”
लखनऊ शहर का एक साधारण-सा दिन था, पर उस दिन राज्य लोक बैंक के भीतर असाधारण दृश्य unfold होने वाला था। पेंशन का दिन था—वही दिन जब बैंक की दीवारें लोगों की उम्मीदों से भर जाती हैं। हर चेहरा किसी न किसी जरुरत, किसी राहत या किसी उम्मीद से जुड़ा होता है। भीड़ इतनी थी कि जैसे पूरा शहर वहीं उमड़ आया हो।
भीड़ के उस समंदर में एक बुज़ुर्ग महिला भी खड़ी थी—सिर पर साड़ी का पल्लू, हाथों में पुराना कपड़े का थैला, और चेहरे पर थकान की गहरी लकीरें। सुबह से लाइन में खड़ी वह अब लगभग गिरने की कगार पर थी। बैंक का समय खत्म होने को था। कर्मचारी कंप्यूटर बंद करने लगे थे, कैश काउंटरों के शटर गिरने लगे। तभी वह महिला धीरे-धीरे आगे बढ़ी और बोली,
“बेटा, मेरी पेंशन दे दो… मैं सुबह से खड़ी हूं।”
क्लर्क ने बिना देखे कहा,
“मांजी, टाइम खत्म हो गया है। अब सोमवार को आइए। दो दिन बैंक बंद रहेगा।”
महिला कुछ नहीं बोली। बस पास की बेंच पर बैठ गई। आंखों से आंसू टपक पड़े। बुदबुदाई—“घर में खाने को कुछ नहीं, दवा भी नहीं है… दो दिन कैसे गुजरूंगी?”
यह सब सुनकर बैंक मैनेजर आरव सिन्हा का दिल कांप गया। वह अपने केबिन से बाहर आया। उसने झुककर पूछा,
“क्या हुआ मांजी? आप क्यों रो रही हैं?”
क्लर्क बोला, “सर, टाइम खत्म हो गया है, सिस्टम बंद हो गया है। पर यह कह रही हैं कि इन्हें आज ही पेंशन चाहिए।”
आरव ने धीरे से पूछा, “मांजी, कल नहीं आ सकतीं आप?”
महिला बोली, “बेटा, दो दिन बैंक बंद रहेगा। मैं भूखी हूं, मेरे पास एक रुपया भी नहीं…”
उसकी थरथराती आवाज सुनकर आरव ठिठक गया। उस आवाज में कुछ जाना-पहचाना था—एक पुराना एहसास, कोई गूंज। उसने गौर से महिला के चेहरे को देखा। झुर्रियों में लिपटा चेहरा, पर आंखों की गहराई वही थी… वही जानी-पहचानी। उसने पूछा,
“मांजी, आपका नाम क्या है?”
महिला ने कहा, “मेरा नाम सरस्वती देवी है बेटा। पहले कानपुर में पढ़ाया करती थी। अब बुजुर्ग हो गई हूं, बस पेंशन से ही गुज़ारा चलता है।”
आरव जैसे पत्थर बन गया। उसके कानों में गूंजा—सरस्वती देवी!
यही तो वह नाम था जिसने उसकी ज़िंदगी बदल दी थी। वही टीचर, जिन्होंने उसे भूख, गरीबी और अंधेरे से उठाकर पढ़ाई की रोशनी में खड़ा किया था।
उसकी आंखें नम हो गईं। उसने जेब से बटुआ निकाला और ₹5000 उनके हाथ में रख दिए।
“मांजी, आप यह रख लीजिए। बैंक खुलेगा तो मैं खुद आपकी पेंशन से काट दूंगा।”
महिला हैरान रह गईं। बोलीं, “बेटा, तुम कौन हो जो मेरी इतनी मदद कर रहे हो?”
आरव की आवाज कांप गई,
“मांजी… मैं वही आरव हूं… आपका छात्र। जिसे आपने कभी मुफ़्त में पढ़ाया था।”
सरस्वती देवी की आंखें फटी रह गईं। उन्होंने कांपते हुए कहा, “आरव… तू?”
आरव झुक गया, उनके पैरों को छुआ—
“मां, आज जो कुछ भी हूं, आपकी वजह से हूं। अगर आप नहीं होतीं तो मैं सड़कों पर भटक रहा होता।”
पूरा बैंक स्तब्ध था। एक बैंक मैनेजर अपनी पुरानी टीचर के पैरों में सिर झुकाए खड़ा था। इंसानियत के उस दृश्य ने हर आंख को भिगो दिया।
आरव ने कहा, “मां, चलिए मैं आपको घर छोड़ देता हूं।”
वो बोलीं, “नहीं बेटा, मैं खुद चली जाऊंगी।”
आरव ने दृढ़ स्वर में कहा, “आपने मुझे इंसान बनाया था। अब मेरी बारी है।”
बाहर हल्की बारिश हो रही थी। आरव ने उन्हें सहारा दिया, गाड़ी में बैठाया। रास्ते में सरस्वती देवी चुपचाप खिड़की से बाहर देखती रहीं।
आरव के मन में सैकड़ों सवाल थे—वो कानपुर से लखनऊ कैसे पहुंचीं? उनकी ज़िंदगी इस हाल में कैसे आ गई?
गाड़ी रुकी तो उन्होंने कहा, “बेटा, बस यहीं रोक दो।”
आरव ने देखा—सड़क किनारे टूटी झुग्गियां, कीचड़, बदबू और गरीबी। उसका दिल बैठ गया। उसने झुग्गी में झांका—टूटी चारपाई, मिट्टी का चूल्हा, एक पुराना पतीला।
उसकी आंखें भर आईं। उसने कहा,
“मां, अब आप यहां नहीं रहेंगी। मेरे साथ चलिए।”
वो बोलीं, “बेटा, मैं तेरे सिर पर बोझ नहीं बनना चाहती।”
आरव ने हाथ जोड़कर कहा, “आपने मुझे सिर उठाकर चलना सिखाया था, बोझ नहीं, बरकत बनकर चलिए।”
सरस्वती देवी की आंखों से आंसू बह निकले। वह बोलीं, “चल बेटा, शायद ऊपर वाले ने हमें फिर से मिलाया है।”
आरव ने उनके कांपते हाथ थामे—“अब आप कभी अकेली नहीं होंगी।”
गाड़ी उनके घर पहुंची। उसने कहा, “मां, अब यह घर आपका है।”
सरस्वती देवी ने दीवारों को छुआ, जैसे बरसों बाद किसी सुकूनभरी जगह को महसूस कर रही हों। आरव ने नौकरानी से कहा,
“अब से मां के सारे काम तुम देखना—खाना, दवा, सब।”
वो मुस्कुराई, “बेटा, मुझे मां क्यों कह रहे हो?”
आरव बोला, “मां वो नहीं होती जिसने जन्म दिया, मां वो होती है जिसने गिरते को थाम लिया।”
उनकी आंखें नम थीं—“अगर तू मुझे मां मानता है, तो अब मैं तेरी मां ही हूं।”
उस रात आरव ने उनके लिए खुद रसोई में दाल, चावल और हलवा बनवाया। उन्होंने बरसों बाद तृप्ति से खाना खाया। हर निवाले के साथ उनकी आंखों से आंसू बहते रहे।
“बेटा, जब तू स्कूल में भूखा आता था, तब मैं सोचती थी काश तुझे कुछ अच्छा खिला पाऊं। आज तू मुझे खिला रहा है—भगवान ने तेरी मेहनत का फल दे दिया।”
धीरे-धीरे सरस्वती देवी की तबीयत सुधरने लगी। अब वह हर सुबह पूजा करतीं, अखबार पढ़तीं, बालकनी में बैठकर आरव का इंतजार करतीं।
जब आरव लौटता, वो दरवाजे पर थाली में दीपक लेकर खड़ी होतीं—“भगवान का नाम लेकर अंदर आ बेटा।”
घर में फिर से हंसी लौट आई थी। एक दिन उन्होंने कहा,
“बेटा, तेरे घर में अब हंसी की आवाज़ नहीं आती।”
आरव मुस्कुराया—“वो भी आ जाएगी मां।”
वो बोलीं, “अब मैं तेरी शादी की सोच रही हूं।”
आरव बोला—“आप जिसे पसंद करेंगी वही मेरी किस्मत बनेगी।”
कुछ ही महीनों में आरव की शादी तय हो गई। शादी के दिन सरस्वती देवी सबसे ज़्यादा खुश थीं। उन्होंने बहू अनन्या के माथे पर तिलक लगाया—
“बहू, अब मेरा बेटा तेरा है। इसका ध्यान रखना—यही मेरी आखिरी इच्छा है।”
शादी के बाद घर में नए रंग भर गए। अनन्या ने सास को सच्ची मां की तरह अपनाया। हर सुबह उनके पैर छूती, दवा देती।
सरस्वती देवी हर बार कहतीं, “भगवान करे हर बेटे को तेरी जैसी बहू मिले।”
लेकिन वक्त कभी स्थायी नहीं होता। एक शाम पूजा करते हुए सरस्वती देवी अचानक गिर गईं। डॉक्टर ने जांच के बाद कहा,
“दिल बहुत कमजोर है… अब ज़्यादा वक्त नहीं।”
आरव का दिल जैसे फट गया। उसने उनके हाथ थामे—“मां, आप ठीक हो जाएंगी, मैं आपको बड़े अस्पताल ले जाऊंगा।”
वो मुस्कुराईं, “नहीं बेटा, अब जाने का वक्त आ गया है। खुश हूं कि तूने मुझे मां कहा, वरना मैं अकेली रह जाती।”
उनकी सांसें धीमी हो रही थीं। उन्होंने कहा,
“बेटा, याद रख—ज़िंदगी में पैसे कमाने से बड़ा काम है इंसानियत को जिंदा रखना। मेरी दुआ तेरे साथ रहेगी।”
आरव रो पड़ा—“मां, आप मुझे छोड़कर नहीं जा सकतीं…”
वो बोलीं, “मैं तुझे छोड़कर नहीं जा रही, तेरे दिल में रहूंगी… जैसे तू मेरे दिल में रहा।”
इतना कहकर उनकी आंखें धीरे-धीरे बंद हो गईं। कमरे में सन्नाटा छा गया।
अगले दिन बैंक स्टाफ श्रद्धांजलि देने आया। किसी ने कहा, “सर, हमें लगा यह आपकी असली मां हैं।”
आरव ने कहा,
“असल मां वो नहीं होती जिसने जन्म दिया, असल मां वो होती है जिसने इंसानियत सिखाई।”
उनकी अंतिम यात्रा में आरव ने खुद कंधा दिया। उसने वही सफेद शॉल ओढ़ी थी जो कभी रेखा मैडम ने उसे ठंड में दी थी—
“बेटा, ठंड है, इसे रख ले।”
आज वही शॉल उसके आंसू सोख रही थी।
जब चिता जल रही थी, आरव ने आसमान की ओर देखा—
“मां, आपने जो बीज मेरे भीतर बोया था, वो अब इंसानियत का पेड़ बन चुका है। मैं वादा करता हूं, अब कोई सरस्वती देवी इस शहर में भूखी नहीं रहेगी।”
कुछ महीनों बाद आरव ने बैंक से अनुमति लेकर ‘सरस्वती स्मृति पेंशन सहायता योजना’ शुरू की—जिसके तहत हर महीने बुजुर्ग महिलाओं को आर्थिक मदद दी जाने लगी।
वह कहता था, “यह मेरी मां का सपना था—कि कोई भी औरत बैंक लाइन में रोती न रहे।”
लोग कहते—“आरव सर का दिल बहुत बड़ा है।”
पर जो लोग नहीं जानते थे, वो यह नहीं जानते कि उस दिल में एक मां का साया हमेशा ज़िंदा था—वो मां जिसने उसे इंसान बनाया था।
हर साल उनकी पुण्यतिथि पर आरव अपने बैंक में दीप जलाता और वही शब्द दोहराता—
“मेहनत कभी बेकार नहीं जाती बेटा, बस दिल सच्चा रखना।”
जब दीप जलता, उसे लगता जैसे हल्की हवा में सरस्वती देवी की आवाज़ गूंजती है—
“बेटा, तूने मेरा फर्ज पूरा किया… अब मैं चैन से हूं।”
आरव की आंखों से फिर आंसू बहते—पर इस बार दर्द नहीं, गर्व होता था।
कहानी वहीं खत्म होती है, जहां इंसानियत की शुरुआत होती है—
जब एक बेटा अपनी गुरु में मां को देख लेता है,
और एक मां अपने शिष्य में अपना संसार।
सीख:
मां, पिता या गुरु कभी पुराने नहीं होते। बस हम वक्त के साथ बदल जाते हैं। अगर आज आप सफल हैं, तो ज़रा पीछे मुड़कर देखिए—शायद किसी सरस्वती देवी ने आपको भी कभी गिरने से बचाया हो।
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