कहानी: “खाकी के खिलाफ”

मेजर विक्रम चौधरी भारतीय सेना में चार साल की लंबी ड्यूटी के बाद पहली बार अपने गांव लौटा था। उसकी आंखों में अपने घर, मां और छोटे भाई आरव से मिलने की बेचैनी थी। लेकिन जैसे-जैसे वह गांव के रास्तों से अपने घर की ओर बढ़ा, उसके मन में अजीब सी बेचैनी भी थी। जीप घर के बाहर ही रोककर वह धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ा, जहां उसकी मां दरवाजे पर खड़ी उसका इंतजार कर रही थी।

आंगन में पैर रखते ही विक्रम ने पूछा, “मां, आरव कहां है?” मां का चेहरा खुशी से तो चमक उठा, मगर उसमें कहीं कोई कड़वाहट और गहरा दुख भी था। उसने सिर झुका लिया, आंखें भीगी थीं। तभी पुराने पड़ोसी का बूढ़ा हाथ कांपता हुआ विक्रम के कंधे पर पड़ा, “बेटा, आरव अब नहीं रहा…”

विक्रम सन्न रह गया। उसकी सांसें उखड़ गईं। “कैसे?” उसने कांपती आवाज में पूछा। मां कुछ न बोलीं। पड़ोसी ने धीरे से कहा, “पुलिस एनकाउंटर में मारा गया… पुलिस कह रही है वो अपराधी था, हथियार तस्करी करता था…” विक्रम के मन में सवालों का तूफान छिड़ गया।

वह चुपचाप उठा और थाने जा पहुंचा। थाने में नाम की पट्टी पर एक ही नाम चमक रहा था – एसपी अजय राणा। वही अफसर जिसने एनकाउंटर का नेतृत्व किया था। रिसेप्शन पर बात रखी, तो थोड़ी देर बाद भीतर बुला लिया गया।

कमरे में प्रवेश करते ही सामने थे – रौबदार मूछें, पैनी नजर, आत्मविश्वासी व्यक्तित्व। एसपी अजय राणा ने पूछा, “आप मेजर विक्रम हैं?” “हां… और मुझे अपने भाई की मौत का सच जानना है,” विक्रम ने रूखे स्वर में कहा।

एसपी राणा कुर्सी को टिकाते हुए बोला, “आपका भाई अपराधी था; हमारे पास सबूत थे। गिरोह में शामिल था। मुठभेड़ में मारा गया। फाइल में सब दर्ज है।” “कोई एफआईआर? कोई वीडियो या चश्मदीद?” राणा मुस्कुरा उठा, “कानून हमें उतना ही दिखाता है जितना ज़रूरी हो…” विक्रम बाहर निकल आया, लेकिन उसके भीतर लावा सा खौल रहा था।

गांव पहुंचकर विक्रम ने आरव की मौत से जुड़े सारे सूत्रों को जोड़ना शुरू किया। मोहल्लेवालों से पूछा, उस जगह गया जहां एनकाउंटर हुआ था। वहां एक बूढ़ी महिला मिली – “बेटा, आरव खाली हाथ खेत से लौट रहा था, पुलिस ने जीप में डालकर ले गए… अगले दिन लाश मिली।”

विक्रम ने फैसले की ठान ली। अगले कई हफ्तों में उसने आरटीआई दायर की, पोस्टमार्टम रिपोर्ट निकलवाई, कॉल रिकॉर्ड्स जांचे। सबूत जुड़ने लगे – आरव के अंतिम कॉल भाई साहब को की गई थी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट: तीन गोलियां सामने से लगी थीं, पलटवार का कोई सबूत नहीं; पुलिस को भी कोई चोट नहीं लगी थी।

थाना न्यायालय और प्रशासन के चक्कर काटा, मगर सबने हाथ खड़े कर दिए। पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठाना अवैध ठहराया गया। तब विक्रम राज्य मानवाधिकार आयोग गया, जहां एक सीनियर वकील से बात हुई। वकील ने कहा, “केस मजबूत है, लेकिन आसान नहीं। पुलिस और उसका राजनीतिक नेटवर्क बहुत ताकतवर है।” मेजर ने सीधा जवाब दिया – “जब सरहद पर दुश्मन नहीं डरे, तो अपनों के बीच छिपे गद्दारों से क्या डरूं?”

मामला मीडिया की सुर्खियों में आया, दो खेमे बने – एक विक्रम के समर्थन में, दूसरा पुलिस के साथ। राज्य डीजीपी ने भी मैटर को दबाने को कहा, “आपकी सेवा का सम्मान है, मगर पुलिस की कार्रवाई पर सवाल मत उठाइए…” विक्रम ने दृढ़ता से कहा, “मेरी वर्दी का मान चाहते हैं, तो मेरे भाई के खून का जवाब भी दें।”

दी गई ‘आंतरिक जांच’ की पेशकश ठुकराकर कोर्ट जाने की ठानी। तब एसपी राणा ने विक्रम पर ही पुलिस कार्य में बाधा डालने, अफसरों को धमकाने जैसे झूठे केस लाद दिए। गांव में पुलिस आकर घरवालों को परेशान करने लगी, मां की तबीयत बिगड़ गई।

गांव के वृद्ध शिक्षक ने विक्रम को कहा, “अब यह लड़ाई हर उस गरीब के लिए है, जो ‘फेक एनकाउंटर’ का शिकार हुआ, जिनका कोई वकील भी नहीं बना।” विक्रम ने आरव का नाम सीने पर बैज की तरह चिपका लिया। खुद कोर्ट की हर तारीख पर पहुंचा; धीरे-धीरे कई पत्रकार, वकील, और आम लोग इस जंग में उसके साथ जुड़ गए।

अदालत की सुनवाई में पुलिस ने कहा आरव गुप्त डोजियर में ‘संदिग्ध’ था, हथियार बरामद हुआ। वकील ने फोटो-रिपोर्ट्स कोर्ट में दीं – घटनास्थल पर कहीं कोई हथियार नहीं; बरामद कट्टे पर आरव के फिंगरप्रिंट नहीं। जब गवाह बुलाए गए, उनमें से दो पलट गए – दबाव में बयान लिया गया था।

जैसे-जैसे मीडिया का दबाव बढ़ा, झूठ के परतें खुलती गईं। अंततः एक युवक की ली गई वीडियो कोर्ट में पेश हुई जिसमें आरव को पुलिस बिना हथियार खेत से उठाकर ले जाती दिखा। अब राज्य सरकार ने केस सीबीआई को सौंपना पड़ा, एसपी राणा सस्पेंड हुआ। जांच में खुला, आरव सरकारी जमीन घोटाले में गवाह बनने जा रहा था, जिससे डरकर राणा ने फर्जी एनकाउंटर किया।

अदालत ने फैसले में कहा, “यह एनकाउंटर नहीं, योजना बनाकर की गई हत्या थी।” एसपी राणा को उम्रकैद की सजा हुई। गाँव में आज ये मिसाल दी जाती है—मेजर विक्रम ने अकेले पूरा प्रशासन हिला दिया।

कई युवाओं ने उसके संघर्ष से प्रेरणा ली—किसी ने कानून पढ़ना शुरू किया, किसी ने प्रशासनिक सेवा का सपना देखा। गांव के बाहर अब भी एक छोटा पत्थर लगा है: “यहां एक सपने को गोली मारी गई थी, मगर उसके भाई ने उसे जिंदा रखा।”

और मेजर विक्रम हर महीने एक बार वहीं बैठकर आसमान की तरफ देखता था—जहां से शायद आज आरव मुस्कुरा रहा होता।

समाप्त।