कहानी: “डीएम की ठेली”

शहर की सुबह थी। हल्की धूप सड़क को सुनहरा बना रही थी। आये दिन की तरह आज भी उसी सड़क किनारे एक पुरानी, जर्जर सी ठेली खड़ी थी—पानी पूरी की ठेली। उस पर, उम्र के साठ पार का एक आदमी अपने झुके कंधे और थके चेहरे के साथ बड़ी तल्लीनता से नन्हीं-नन्हीं पूरियों में मसाला और चटनी भर रहा था। उसके मैले कपड़े, फटी चप्पलें, और झुर्रियों से भरा चेहरा देखकर शायद ही कोई अंदाजा लगा सकता था कि कभी इस आदमी ने सैकड़ों अफसरों को अपनी एक आवाज़ पर लाइन में खड़ा कर दिया था।

वही थे आदित्य प्रताप सिंह—जिले के डीएम। लेकिन आज, ये डीएम साहब, अपनी असली पहचान छुपाए हुए, ठेलीवाले के भेष में थे। उनकी आंखें बार-बार उस सड़क की तरफ उठतीं, जहां सफेद पुलिस की जीप अक्सर आकर रुकती थी। उनके मन में एक बेचैनी थी—तकलीफ भी थी—कि क्या वाकई वर्दी में बैठा आदमी खुद को कानून समझ बैठा है? क्या सच में गरीब और ईमानदार की इस शहर में कोई जगह नहीं बची?

तभी तीन छोटे-छोटे बच्चे, फटी पुरानी स्कूल की वर्दी में, दौड़ते हुए ठेली पर आए। “चाचा, चार पानी पूरी देना, लेकिन बहन को मिर्च लगती है, मसाला कम डालना,” सबसे छोटे बच्चे ने मासूमियत से कहा। डीएम साहब मुस्कुरा दिए। उन्होंने जोड़-घटा कर, प्यारे बच्चों के लिए पानी पूरी निकाल ही रहे थे कि अचानक सामने सफेद जीप आकर रुकी।

दरवाजा खुला, पुलिस की वर्दी में दरोगा हरिराम चौधरी निकला—उस इलाके का चर्चित दरोगा, जिसकी रौबदार मूंछे और कठोर आवाज़ से बड़े-बड़े कांपते थे। जैसे ही लोगों ने देखा कि दरोगा आया, वे खिसककर किनारे खड़े हो गए। बच्चों ने भी डर के मारे एक-दूसरे का हाथ पकड़ लिया।

दरोगा गरजा, “कौन है तू? नया धंधा खोल लिया इस सड़क पर! यहां हर ठेले का हफ्ता मेरे पास आता है, समझा?” आदित्य ने अपनी आंखें झुका लीं, “साहब, बस रोजी-रोटी के लिए आया हूं, कल ही शुरू किया है, देने के लिए कुछ नहीं है।”

दरोगा ठहाका मारकर हंसा, फिर ठेली के पास झुककर बोला, “पैसे नहीं हैं, फिर भी दुकान खोली है बे! ये सड़क मेरी है, यहां धंधा करेगा तो 20,000 महीने का देना ही पड़ेगा वरना आज ही उठवा दूंगा, थाने ले जाकर ऐसा सबक सिखाऊंगा कि जिंदगी भर याद रहेगा!”

पूरा माहौल सनाका बन गया। किसी की हिम्मत नहीं कि कुछ बोले। बस डीएम साहब सिर झुकाए—मौन में—जैसे कतरा-कतरा अपमान पी रहे हों। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा, “साहब, गरीब का पेट मत काटिए, बस अपने परिवार के लिए काम करता हूं, किसी का हक नहीं छीना।”

दरोगा ने अपना गुस्सा ठेली पर रखी बोरी पर निकालते हुए कहा, “बहुत जुबान चलाने लगा है तू!” तभी एक नौजवान बोला, “अरे भैया, गरीब आदमी कुछ गलत नहीं कर रहा…” दरोगा ने आंख तरेर कर उत्तर दिया, “मैं कानून हूं! बीच में आएगा तो तुझे भी अंदर कर दूंगा।”

दरोगा ने जेब से रसीद बुक निकाली, “ये देख, तुझ पर 500 का जुर्माना और या तो हर महीने 20,000 हफ्ता दे!” आदित्य विनम्र लेकिन थके स्वर में बोला, “साहब, एक आदमी आने वाला है, आपको वही दे देगा।”

दरोगा हंसा। “ठीक है, बुला ले मालिक को!”

कुछ ही मिनटों में पांच गाड़ियों का काफिला आकर सड़क पर रुका। एक-एक करके एसडीएम, तहसीलदार और पुलिस के वरिष्ठ अफसर उतरे। दरोगा हक्काबक्का, माथे पर पसीना! तभी आदित्य ने नीला कार्ड निकाला—“देखिए साहब, मेरा पहचान पत्र।” दरोगा के हाथ कांप गए—डीएम आदित्य प्रताप सिंह!

भीड़ में सन्नाटा और दरोगा की सांसें अब ऊपर-नीचे हो रही थीं। आदित्य की आंखों में अब वही पुराना तेज दिखा, जो किसी भी अनुचित को स्वीकार नहीं करता। “कितनों को धमकाया? कितनों का पेट काटा? कितनों के बच्चों का मुंह सूखा छोड़ा?”

दरोगा घुटनों के बल गिर पड़ा, “साहब, मुझसे गलती हो गई… मैं पहचान नहीं पाया…” आदित्य गरजे, “गलती नहीं, यह तुम्हारी आदत है! कानून से बड़ा कोई नहीं! आज से तुम सस्पेंड हो, जांच टीम घर तक जाएगी।.”

फिर उन्होंने वहां मौजूद ठेलीवालों की ओर मुड़कर गहरी आवाज़ में कहा, “आज से इस इलाके में कोई गरीब, कोई ईमानदार इंसान हफ्ता नहीं देगा, यह मेरी गारंटी है!” लोगों ने ज़ोरदार तालियां बजाईं। बच्चों ने खुशी से उछल कर “जय हो डीएम साहब” का नारा लगा दिया।

सिर्फ न्याय का दिन नहीं था, यह उम्मीद का-पल था; उन सभी के लिए, जो बरसों से व्यवस्था के दमघोंटू जाल में फंसे बस जीने के लिए संघर्ष कर रहे थे।

बाद में जब भी उस सड़क-किनारे ठेले पर कोई नया हाथ आया, लोग बताते—“यही है हमारे डीएम साहब की ठेली। अब यहां कोई गरीब हफ्ता नहीं देता, सब चैन से रोटी खाते हैं।” दरोगा हरिराम की जगह अब शहर की गलियों में ईमानदार अफसर का किस्सा सुनाया जाता था।

डीएम साहब की पहचान केवल उनकी कुर्सी नहीं थी। उनकी असली पहचान थी—गरीबों का संबल, ईमानदारी का उदाहरण, और पार्टी में मशरूफ अफसरों के बीच सबसे अलग, समाज के बीच जीनेवाले इंसान होने की!

इस कहानी से सीखें: पद, वर्दी, पैसा सब तब बेमानी हो जाता है जब इंसाफ और इंसानियत से समझौता होता है। असली बहादुरी ज़िम्मेदारी के साथ किया गया वह फैसला है, जिससे किसी अनजान की आँखों में उम्मीद की किरण लौट आए।

यदि इस कहानी ने आपके भीतर न्याय-पसंदी और संवेदना का दीप जलाया हो, तो इसे फैलाएं—शायद किसी भ्रष्ट अफसर के पांव भी ठिठक जाएं।