कहानी: न्याय की पुकार

भूमिका

वाराणसी की कचहरी के बाहर सुबह का समय था। हल्की धूप सड़कों पर फैल चुकी थी। कोर्ट परिसर में चहल-पहल थी, वकील अपनी काली कोटें संभाल रहे थे, पुलिस वाले इधर-उधर दौड़ रहे थे और पत्रकार अपने कैमरों के साथ तैयार थे। इसी भीड़ से दूर, मंदिर के बाहर एक बूढ़ा भिखारी चुपचाप बैठा था। उसकी आंखों में गहरी उदासी और चेहरे पर थकान थी, पर उसकी मुद्रा में एक अजीब सा आत्मविश्वास झलकता था। कोई उसे ‘बाबा’ कहकर पुकारता, तो कोई हिकारत भरी नजरों से देखता और आगे बढ़ जाता।

बाबा की दिनचर्या

हर सुबह बाबा मंदिर के बाहर बैठ जाते। उनके पास एक फटा सा झोला, एक टिन का कटोरा और एक पुरानी छड़ी थी। लोग उन्हें देखकर अक्सर मजाक उड़ाते, “लगता है ये भी कभी जज बनने का सपना देखता था।” बाबा कुछ नहीं कहते, बस मुस्कुरा देते। उनकी आंखें कोर्ट के गेट पर टिकी रहतीं, जैसे किसी का इंतजार कर रही हों।

कोर्ट रूम में हलचल

एक दिन कोर्ट में वाराणसी के सबसे बड़े रियल एस्टेट घोटाले की सुनवाई थी। कोर्ट रूम नंबर 5 में जज अयान शंकर बैठने वाले थे, जो अपनी ईमानदारी और सख्त फैसलों के लिए मशहूर थे। जैसे ही सुनवाई शुरू हुई, बहस तेज हो गई। तभी जज साहब की नजर खिड़की से बाहर मंदिर के पास बैठे बाबा पर पड़ी। ना जाने क्यों, उनके मन में हलचल सी मच गई।

उन्होंने क्लर्क से कहा, “मंदिर के बाहर जो बूढ़ा भिखारी बैठा है, उसे कोर्ट में बुलाओ।” पूरा कोर्ट रूम चौंक गया। वकील, पुलिस, पत्रकार—सब हैरान थे कि एक भिखारी को कोर्ट में क्यों बुलाया जा रहा है।

बाबा की अदालत में एंट्री

दो कांस्टेबल बाबा के पास पहुंचे, “बाबा, जज साहब ने आपको बुलाया है।” बाबा ने अपनी छड़ी उठाई, कांपते हाथों से खड़े हुए और धीरे-धीरे कोर्ट रूम की ओर बढ़े। जब बाबा कोर्ट में दाखिल हुए, पूरा हॉल सन्न रह गया। फटी धोती, थकी आंखें, झुकी कमर—पर चेहरे पर गहरी शांति थी।

जज साहब ने सिर झुकाया और बोले, “आपका नाम?”
बाबा ने कहा, “नाम अब नाम नहीं रहा साहब।”

जज साहब कुछ पल चुप रहे, फिर अपनी कुर्सी से उठे और बोले, “आइए, आप यहां बैठिए।” बाबा कांपते हुए बेंच पर बैठ गए। वहां मौजूद वकीलों और स्टाफ की आंखों में हैरानी थी।

सच्चाई का खुलासा

जज साहब ने पूछा, “आप रोज यहां मंदिर के बाहर बैठते हैं, कोई खास वजह?”
बाबा ने आंखें बंद कीं, फिर बोले, “यह वही जगह है साहब, जहां मैंने कभी न्याय के लिए आवाज उठाई थी। मैं भी कभी वकील था।”

पूरा कोर्ट सन्न रह गया। बाबा ने अपने झोले से एक पुराना वकालतनामा, अधिवक्ता पहचान पत्र और एक अधूरी याचिका निकाली। जज साहब ने दस्तावेज पढ़े, माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं।

“आप वकील थे?”
“था साहब। मगर बेटे की गलती का इल्जाम मुझ पर आया। मैं चुप रहा, सोचा बेटा बच जाए। अदालत ने मुझे दोषी ठहरा दिया, सारी संपत्ति जब्त हो गई, जेल गया। जब बाहर आया तो बेटा सब बेच चुका था।”

अदालत की संवेदना

कोर्ट में मौजूद वकील सुधांशु मिश्रा, जो पहले बाबा को पगला समझते थे, अब शर्म से सिर झुकाए खड़े थे। जज साहब उठे, बाबा का हाथ थाम लिया और बोले, “हमने न्याय को किताबों में बांध दिया, आपने उसे अपनी जिंदगी में जिया है।”

बाबा की आंखों में आंसू थे, लेकिन चेहरे पर संतोष की मुस्कान थी। जैसे उनकी बरसों की तपस्या पूरी हो गई हो।

मीडिया की हलचल

अगले दिन अखबारों की सुर्खियों में छपा, “भिखारी नहीं, पूर्व वकील—जज ने छोड़ी अपनी कुर्सी, किया स्वागत।” पूरा शहर चर्चा करने लगा, सिस्टम की चूक ने एक जिंदगी को सड़कों पर ला दिया।

वाराणसी के लोहता मोहल्ले में, जहां कभी लक्ष्मण नारायण त्रिपाठी (बाबा का असली नाम) का पुश्तैनी घर था, वहां हलचल मच गई। उनकी बचपन की पड़ोसन कमला देवी रो पड़ीं, “हमें लगा वह मर चुके हैं, मगर अब जब वह जिंदा लौटे हैं तो शहर ने उन्हें भुला दिया।”

न्याय की नई शुरुआत

सात दिन बाद कोर्ट में केस की दोबारा सुनवाई शुरू हुई। मुद्दा था 2003 का वह केस जिसमें लक्ष्मण नारायण जी को दोषी ठहराया गया था। नया वकील था प्रोफेसर त्रिवेदी, जज वही थे—अयान शंकर। गवाह थे पुराने कागजात, बिल्डर की गवाही और एक रहस्यमय बेटा राघव, जो अब कहीं नहीं था।

जज साहब ने आदेश दिया, “राघव को कोर्ट में पेश किया जाए, नहीं तो गिरफ्तारी वारंट जारी होगा।”

बेटे का सामना

आखिरकार राघव कोर्ट में पेश हुआ। महंगी गाड़ी, ब्रांडेड सूट, मगर आंखें झुकी हुईं। जज ने पूछा, “संपत्ति अपने पिता के नाम क्यों ली?”
राघव ने कबूल किया, “मेरी क्रेडिट हिस्ट्री खराब थी, मैंने उनके दस्तखत नकली किए।”

पूरा कोर्ट सन्न रह गया। जज ने आदेश सुनाया, “लक्ष्मण नारायण त्रिपाठी निर्दोष हैं। उन्हें दोबारा वकालत का लाइसेंस दिया जाए, एक लाख रुपये की मानहानि राशि दी जाए और सरकार सार्वजनिक रूप से माफी मांगे।”

सम्मान की वापसी

अगले दिन बाबा फिर कोर्ट के बाहर बैठे थे, मगर अब लोग उनके सामने झुक रहे थे। कोई उनके पैर छू रहा था, कोई खाना ला रहा था। जज अयान शंकर चुपके से उनके पास आए और बोले, “आज मैंने सिर्फ एक कर्ज चुकाया है।”

बाबा मुस्कुराए, “बेटा, आज तू सिर्फ जज नहीं, इंसान भी बना है।”

निष्कर्ष

यह कहानी सिर्फ लक्ष्मण नारायण त्रिपाठी की नहीं, हर उस इंसान की है जो सिस्टम की चूक का शिकार हुआ। यह कहानी है विश्वास की, न्याय की और उस हौसले की जो सालों की तकलीफों के बाद भी टूटता नहीं। वाराणसी की कचहरी के बाहर बाबा की कहानी आज भी गूंजती है। लोग कहते हैं, वह भिखारी नहीं, एक योद्धा था जिसने सच के लिए अपनी पूरी जिंदगी दांव पर लगा दी।

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