कहानी: प्रतीक – रिश्तों का पुनर्जन्म
शाम का धुंध सीतामढ़ी की गलियों में धीरे-धीरे उतर रहा था। गंडक नदी के किनारे मंदिर की घंटियों की आवाजें हल्की-हल्की गूंज रही थीं। शहर की हलचल अब दिन के थक जाने का संकेत दे रही थी। बस स्टैंड के पास की एक टूटी बेंच पर दो बूढ़े शरीर अपनी ही परछाइयों में सिमटे बैठे थे – हरिकिशोर बाबू और उनकी पत्नी रामदुलारी देवी। उनकी आंखें थकी हुई थीं, चेहरों पर एक लंबी जिंदगी का बोझ था। पास में रखा एक पुराना झोला जिसमें दो जोड़ी कपड़े, कुछ दवाइयां और एक टूटे फ्रेम की फोटो थी। शायद कभी की पारिवारिक स्मृति उनके अतीत की कहानी कह रही थी।
कोई है जो थोड़ा खाना दे दे… हरिकिशोर बाबू की आवाज इस तेज होती सड़कों में खो गई। लोग आए-गए, पर किसी ने मुड़कर नहीं देखा। रामदुलारी का पल्लू अब आंसू पोछने का काम कर रहा था और उनका सिर हरिकिशोर बाबू के कांधे से टिक गया। “कब तक इस धूप में बैठेंगे काका जी? चलिए कहीं और चलते हैं।” रामदुलारी बोली। हरिकिशोर बाबू बोले, “अब क्या फर्क पड़ता है दुलारी, जब अपनों ने मुंह मोड़ लिया तब पराए क्या देखेंगे?”
वक्त एकदम से ऐसा नहीं हुआ था। सीतामढ़ी के पचरुखी मोहल्ले में उनका पक्का मकान था – चार कमरों वाला छोटा सा घर जिसकी नींव उन्होंने पसीने और खून से रखी थी। बाबूजी सरकारी कार्यालय में क्लर्क थे और रामदुलारी देवी एक सीधी-सादी पूजापाठ में रमी रहने वाली महिला थी। उनका इकलौता बेटा नीलू, जिसकी परवरिश में उन्होंने अपनी हर ख्वाहिश कुर्बान कर दी। नीलू पढ़ाई में तेज था। उसे पटना तक भेजा पढ़ाने के लिए उन्होंने अपनी सोने की चैन तक गिरवी रख दी थी। जब नीलू की सरकारी बैंक में नौकरी लगी तो पूरी गली में लड्डू बंटे थे।
नीलू की शादी रेखा से हुई – एक तेजतर्रार आधुनिक सोच रखने वाली लड़की। शुरुआत में सब कुछ ठीक था। रेखा बहुत मीठा बोलती थी। मां-बाबूजी के पांव छूती थी। लेकिन धीरे-धीरे उसका स्वभाव बदलने लगा। वह कहती – “नीलू जी, आप दिनभर मेहनत करते हैं और आपके मां-बाबू बस बैठे रहते हैं। कोई हिसाब-किताब नहीं इनका।” नीलू पहले चुप रहता, फिर धीरे-धीरे उसके स्वर बदलने लगे। एक दिन दोपहर में रेखा ने बातों-बातों में जहर उगला – “या तो हम रहेंगे इस घर में या ये बूढ़े।”
नीलू शाम को ऑफिस से लौटा और गुस्से में घर में घुसा। मां-बाबूजी को बुलाया और बोला – “अब बहुत हो गया। हम तुम्हारे लिए क्या कम करते हैं? हर चीज मुफ्त में चाहिए। अब या तो आप लोग यहां रहेंगे या हम।” रामदुलारी का चेहरा पीला पड़ गया। “बेटा, हमने क्या बिगाड़ा तेरा?” रेखा चीखी – “अब और नहीं सहा जाएगा। निकालो इन दोनों को बाहर।” नीलू ने उनके कपड़े फेंके, दरवाजा खोला और कहा – “निकलिए, अब आपका कोई हक नहीं इस घर पर।”
हरिकिशोर बाबू और रामदुलारी देवी उस घर से बाहर आ गए जिसे उन्होंने जिंदगी भर पूजा था। रात को दोनों जलेश्वरनाथ मंदिर के पास के आंगन में बैठे – ठंडी हवा और भूख की मार। दोनों की पीड़ा आंखों से बह निकली। “क्या हम इतने बुरे थे?” रामदुलारी बोली। हरिकिशोर बाबू चुप थे, सिर्फ आकाश की ओर देखते हुए बोले – “शायद हमने अपने बेटे को बहुत प्यार दे दिया।”
तीन दिन बाद वही चौराहा, वही बेंच, वही बुढ़ापा। तभी एक सफेद गाड़ी रुकती है। उससे एक नौजवान उतरता है – उजला कुर्ता, चेहरे पर घबराहट, आंखों में आंसू। वो दौड़ कर उनके पास आता है, झुक कर दोनों के पैर पकड़ लेता है – “मां, बाबूजी!” हरिकिशोर बाबू चौकते हैं – “तू… तू कौन बेटा?” उसने कांपती आवाज में कहा – “मैं प्रतीक हूं, वही प्रतीक जिसे आपने कभी घर से निकाल दिया था।”
हरिकिशोर बाबू और रामदुलारी देवी की आंखें फटी रह गईं। प्रतीक – वही प्रतीक जिसके सिर पर हाथ रखकर उन्होंने उसका बचपन देखा था। प्रतीक की आंखों से आंसू गिर रहे थे – “हां बाबूजी, मैं वही हूं जिसे आपने चोर समझकर घर से निकाल दिया था।”
उनकी यादें वापस लौट आईं – 22 साल पहले की एक सुबह। हरिकिशोर बाबू के बचपन के मित्र श्यामबाबू सीतामढ़ी के रेलवे स्टेशन में गार्ड थे। एक रेल हादसे में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी पत्नी सुचित्रा भी एक साल बाद कैंसर से चल बसी। छोटा सा बच्चा प्रतीक बिल्कुल अकेला रह गया। हरिकिशोर बाबू उसे घर ले आए – “दुलारी, यह श्याम का बेटा है। हमारा भी कोई बेटा नहीं था तब तक। इसे अपनाते हैं।” रामदुलारी ने उसे अपने आंचल में भर लिया – “अब यह मेरा बेटा है।”
कुछ सालों तक प्रतीक वही बच्चा था जो उनके घर की हंसी बन गया। फिर हुआ चमत्कार – रामदुलारी गर्भवती हुई, नीलू जन्मा। तब से सब कुछ धीरे-धीरे बदलने लगा। प्रतीक को कम दुलार मिलने लगा। नीलू की हर बात पर ताली बजाई जाती। रामदुलारी कहती – “प्रतीक, थोड़ा दूर बैठा कर। नीलू के पास मत सोया कर।” धीरे-धीरे प्रतीक समझने लगा – मां अब बस एक शब्द है, उसका अर्थ खोता जा रहा है।
एक दिन मोहल्ले के एक लड़के ने झूठी अफवाह फैलाई – “प्रतीक ने गुल्लक से पैसे चुराए हैं।” हरिकिशोर बाबू आगबोला हो गए – “चोर! इतने साल पाल-पोस के यही सीखा? निकल जा हमारे घर से।” रामदुलारी कुछ बोल ना सकी। प्रतीक एक थैले में कपड़े डालकर बाहर चला गया – उम्र महज 14 साल। सीतामढ़ी स्टेशन पर रातें गुजारी, ढाबे पर बर्तन धोए, दुकानों में सामान उठाया, पर एक चीज नहीं छोड़ी – पढ़ाई। दिन में काम, रात में किताबें। बाढ़ में बहती कागज की नावों की तरह उसने अपने सपनों को किसी तरह किनारे पहुंचाया।
मैट्रिक में जिला टॉपर बना। फिर छात्रवृत्ति पाकर पटना गया। कॉलेज के दिनों में वह ट्यूशन देता, कॉपी बेचता, साइबर कैफे में रातें काटता और पढ़ता रहा। कुछ सालों में उसने बिहार लोक सेवा आयोग, बीपीएससी की परीक्षा दी और एक राजस्व अधिकारी बन गया। पर एक दर्द हमेशा बाकी रहा – मेरे माम बाबूजी मुझसे नाराज क्यों थे?
जब प्रतीक ने उन्हें चौराहे पर बैठे देखा – उनके फटे कपड़े, थरथराते हाथ, डबडबाई आंखें – “मेरे भगवान, यह मेरे वही माम बाबूजी हैं!” उसने दौड़कर उनके पैर छुए – “अब चलिए मेरे साथ। जो घर छूट गया था, वही फिर से बनाएंगे।”
प्रतीक की पत्नी बिया खुद एक अनाथालय में पली-बढ़ी थी। जब प्रतीक माम बाबूजी को लेकर घर आया, बिया ने उन्हें देखकर कहा – “अब मेरी मां के चरण भी हैं इस घर में और बाबूजी का आशीर्वाद भी।” उस रात प्रतीक ने अपने हाथों से मां के पैर दबाए, बाबूजी को गर्म दूध दिया। रामदुलारी रात को रोती रही – जिसे हमने बिना सोचे निकाल दिया था, वही आज हमारा सहारा बन गया। हरिकिशोर बाबू ने प्रतीक का माथा चूमा – “बेटा, तू केवल बेटा नहीं, इस घर की रीड है।”
रामदुलारी ने तुलसी चौरे में दीप जलाया। घर में हंसी गूंजी। चारपाई पर बाबूजी, उनके पास बैठा प्रतीक और किचन से आती बिया की आवाज – “मां, आज मटर पनीर बना रही हूं। दाल में घी डाल दूं क्या?” रामदुलारी हंस पड़ी – “बहू, अब इस घर में सिर्फ स्वाद नहीं, अपनापन भी घुल रहा है।”
कई महीनों बाद प्रतीक अपने माता-पिता को अपनी बनती हुई नवीन कोठी दिखाने ले गया। गंडक नदी के पार एक खुला इलाका, जहां मजदूरों की भीड़ ईंटें ढो रही थी। तभी दूर से आता एक थका हुआ चेहरा – पसीने से लथपथ, पैरों में फटी चप्पल, बाल बिखरे हुए। नीलू… रामदुलारी चीख पड़ी। हरिकिशोर बाबू – “सन, वो नीलू था। उनका वही बेटा जिसने एक दिन उन्हें दरवाजे से धक्का दिया था, अब वो मजदूरी कर रहा था।”
नीलू सीढ़ियों से उतरता है, हाथ जोड़े आता है और पिता के पैरों में गिर जाता है – “बाबूजी, मां, मुझे माफ कर दो। मैंने बहुत बड़ा पाप किया है।” खिसकते हुए वह कहता है – “रेखा सब कुछ अपने नाम करवा के चली गई, बच्चों को मेरे पास छोड़ गई। अब मजदूरी करता हूं ताकि बच्चों को रोटी दे सकूं। जब बेटे ने पहली बार कहा – पापा, बहुत भूख लगी है – तब मुझे एहसास हुआ कि आपने क्या खोया था।”
सन्नाटा छा गया। मां की आंखें नम थीं, लेकिन दिल पत्थर बना हुआ था – “तेरे एक फैसले ने हमें दर-दर की ठोकरें दीं।” बेटा… रामदुलारी बोली। हरिकिशोर बाबू ने सिर्फ इतना कहा – “अब जो तुझसे बिछड़ गया है, क्या वह वापस आएगा?” प्रतीक ने मां का हाथ थामा – “मां, उसे माफ कर दो, क्योंकि मुझे भी तुमने कभी माफी नहीं दी थी, फिर भी मैंने तुमसे प्यार नहीं छोड़ा।”
रामदुलारी की आंखें भर आईं – “बेटा, तू प्रतीक नहीं, तू तो मेरा पुनर्जन्म है।” प्रतीक, नीलू और माम बाबूजी अब एक ही छत के नीचे थे। नीलू रसोई में मां का हाथ बटाता, प्रतीक दफ्तर से लौटकर बच्चों को होमवर्क कराता। बिया नीलू के बच्चों को मां जैसा स्नेह देती, क्योंकि वह खुद मां नहीं बन सकती थी। अब इस घर में कोई कमी नहीं थी। रामदुलारी हर शाम तुलसी के आगे दीप जलाकर बोलती – “हे ठाकुर, हर घर में एक प्रतीक भेजना, जो मां-बाप को नजरअंदाज नहीं करे, जो रिश्तों को जोड़ता रहे, जो अपने हिस्से का प्यार बांटकर दूसरों का जीवन रोशन करे।”
एक दिन प्रतीक ने नीलू से पूछा – “भाई, क्या तुझे कभी लगता है कि तूने माम-बाबूजी को खो दिया?” नीलू रोते हुए बोला – “भाई, उस दिन जब मैं खुद बच्चों के सामने हाथ फैलाने लगा तो समझ गया – बूढ़े मां-बाप की छाया दुनिया की सबसे बड़ी संपत्ति होती है।” प्रतीक ने उसे गले से लगा लिया – “अब यह छाया हमेशा तेरे साथ है।”
वक्त गुजरता गया। घर में अब ना कोई झगड़ा था, ना कोई शिकायत। हरिकिशोर बाबू फिर से सीतामढ़ी क्लब रोड के अपने पुराने दोस्तों से मिलने लगे। रामदुलारी और बिया सुबह मंदिर जातीं। नीलू प्रतीक के साथ मिलकर घर की जिम्मेदारियां बांटता।
लेकिन उम्र और बीमारी आखिर कितने दिन साथ निभाते? एक रात हरिकिशोर बाबू को सीने में तेज दर्द हुआ। प्रतीक उन्हें अस्पताल ले गया। डॉक्टर बोले – “हृदय बहुत कमजोर है, अब ज्यादा समय नहीं बचा है।” अगली सुबह हरिकिशोर बाबू ने अपने दोनों बेटों को बुलाया। बिस्तर पर लेटे कांपती आवाज में बोले – “बेटा प्रतीक, जब तुझे निकाला था तो मेरा गुस्सा मेरी आंखों से बड़ा था, पर तू बड़ा निकला। फिर उन्होंने नीलू की तरफ देखा – बेटा, जब तूने मुझे छोड़ा, तब दिल से टूटा, लेकिन जब तू वापस आया तो पिता फिर से जी उठा।”
उन्होंने दोनों बेटों के हाथ आपस में मिलवाए – “कभी इस हाथ को मत छोड़ना। रिश्ता खून से नहीं, कर्म और प्रेम से बनता है। प्रतीक, तू इस घर की आत्मा है। नीलू, तू इस घर की छाया है।” रामदुलारी उनके पास बैठी थी। हरिकिशोर बाबू ने उसका हाथ पकड़ा – “अब जाने दो मुझे। मुझे चैन मिलेगा कि मेरा घर फिर से एक हुआ।” और उनकी सांसे धीरे-धीरे थम गईं।
शमशान घाट पर अग्नि देते वक्त प्रतीक ने पिता की तस्वीर को देखा और कहा – “बाबूजी, अब यह घर एक मंदिर होगा, जिसमें ना कोई छोटा होगा, ना कोई पराया।” अब उस पुराने मोहल्ले में एक नई कोठी है। दरवाजे पर नेमप्लेट लगी है – “श्रीमती रामदुलारी निवास, प्रतीक, नीलू एवं परिवार।” घर के भीतर दीवारों पर ढेर सारी तस्वीरें हैं – एक में हरिकिशोर बाबू तुलसी के पास खड़े हैं, दूसरी में रामदुलारी बच्चों को कहानी सुना रही है, और तीसरी में प्रतीक और नीलू साथ बैठकर खाना खा रहे हैं – जैसे कभी बचपन में खाते थे।
बिया एक स्वयंसेवी संस्था चला रही है – एक और प्रतीक, जहां वह बेसहारा बुजुर्गों और अनाथ बच्चों को साथ लाकर परिवार का एहसास देती है। हर रात रामदुलारी तुलसी के आगे दीप जलाकर कहती थी – “हे ठाकुर, हर घर में एक प्रतीक भेजना…” कई वर्षों बाद उनकी मृत्यु हुई – माथे पर सिंदूर था, हाथों में माला थी और चेहरे पर मुस्कान।
रिश्ते सिर्फ जन्म से नहीं बनते, कुछ लोग कर्म से बेटा बनते हैं और वही संतान कहलाने लायक होते हैं। प्रतीक ने न सिर्फ मां-बाप को सहारा दिया, बल्कि उस बेटे को भी गले लगाया जिसने उन्हें तोड़ा था। क्षमा सबसे बड़ी पूजा है और प्रेम सबसे बड़ा उत्तर।
यदि आप इस कहानी को दिल से देखे हैं तो अब खुद से एक सवाल करें – क्या मेरे जीवन में भी कोई प्रतीक है या क्या मुझे किसी के प्रतीक बनने की जरूरत है? यदि यह कहानी आपके दिल को छू गई हो, इसे अपने दोस्तों और परिवार के साथ जरूर शेयर करें।
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