🌿 कहानी: सादगी की ताक़त
दिल्ली की ठंडी सुबह थी। घड़ी में ठीक ग्यारह बजे थे। कनॉट प्लेस के बीचोंबीच एक आलीशान रेस्टोरेंट था — एम्पायर ब्लेंड्स। बाहर से ही उसकी चमक-दमक देख कोई भी समझ सकता था कि यह जगह सिर्फ़ अमीरों के लिए बनी है। अंदर हर टेबल पर चांदी के चम्मच, क्रिस्टल के ग्लास और ऊँची-ऊँची बातें चल रही थीं। हवा में कॉफी की महक घुली थी, पर उसमें इंसानियत की खुशबू नदारद थी।
रेस्टोरेंट के बीचोंबीच बैठा था विवेक कपूर — 26 साल का नौजवान, करोड़पति बाप का इकलौता बेटा। सफ़ेद महंगी शर्ट, सुनहरी घड़ी और चेहरे पर वही आत्मविश्वास भरी मुस्कान जो घमंड की सीमा पार कर चुकी थी। उसके चार दोस्त उसके साथ थे, जो उसकी हर बात पर ऐसे हँस रहे थे जैसे दरबार में जोकर राजा की हर बात पर ठहाके लगाते हों। विवेक टेबल पर कॉफी का कप ज़ोर से रखते हुए बोला,
“अब वक्त बदल गया है दोस्तों, मैं कोई छोटा-मोटा बिज़नेसमैन नहीं हूं। अगले महीने मेरा ऐप केन कनेक्ट करोड़ों की फंडिंग लेने वाला है। बड़े-बड़े इन्वेस्टर्स लाइन में हैं। अब तो बस गेम मेरा है।”
उसकी ऊँची आवाज़ रेस्टोरेंट के हर कोने तक पहुँच रही थी। वेटर्स तक उसके घमंड की गर्मी महसूस कर सकते थे। तभी दरवाज़ा धीरे से खुला, और एक बुजुर्ग अंदर आए — हरी नारायण मेहता।
खादी का सादा कुर्ता-पायजामा, पैरों में पुराने जूते, हाथ में कपड़ा का झोला। चेहरे पर थकान थी, लेकिन आँखों में एक गहरी शांति थी, जैसी सिर्फ़ उन लोगों में होती है जिन्होंने जीवन के हर मौसम को देखा हो।
वो धीरे-धीरे काउंटर की तरफ़ बढ़े और बोले,
“बेटा, एक ब्लैक कॉफी मिल जाएगी क्या?”
काउंटर के पीछे खड़ा नौजवान बिना ऊपर देखे बोला, “अंकल, यहाँ ऑनलाइन ऑर्डर देना होता है, ये लाइन वीआईपी रिज़र्व है।”
हरी नारायण कुछ नहीं बोले, बस किनारे जाकर खड़े हो गए। बीस मिनट तक कोई उनकी तरफ़ देखता भी नहीं। वो बस शांत खड़े सबको देख रहे थे — कोई मोबाइल में डूबा, कोई लैपटॉप में व्यस्त।
तभी विवेक की नज़र उन पर पड़ी। उसने अपने दोस्तों से कहा,
“अरे देखो, लगता है कोई सरकारी बाबू गलती से यहाँ आ गया है। काका जी, यहाँ दस रुपए की चाय नहीं मिलती। चाहो तो मैं चाय पत्ती गिफ्ट कर दूँ।”
टेबल ठहाकों से गूंज उठा। पूरे रेस्टोरेंट में हँसी फैल गई।
लेकिन हरी नारायण के चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। बस एक हल्की मुस्कान थी — वो मुस्कान जो सच्चे अनुभव से आती है, अहंकार से नहीं।
काउंटर के पास खड़ी वेट्रेस कविता शर्मा ये सब देख रही थी। वो पिछले छह महीने से इस रेस्टोरेंट में काम कर रही थी। घर चलाने के लिए पढ़ाई के साथ ये नौकरी ज़रूरी थी, पर उसने कभी किसी से अपनी मजबूरी नहीं जताई। वो आगे बढ़ी और बोली, “सर, अगर आप कहें तो मैं कॉफी सर्व कर दूं।” बरिस्ता ने सिर हिला दिया।
वो बुज़ुर्ग के पास पहुँची — “सर, क्या मैं आपकी मदद कर सकती हूं?”
हरी नारायण मुस्कुराए, “हाँ बेटी, एक ब्लैक कॉफी मिल जाए तो अच्छा लगेगा।”
कविता मुस्कुराई, “ज़रूर सर।”
लेकिन तभी विवेक की ऊँची आवाज़ आई — “पहले मेरा ऑर्डर लाओ। इन फ्री वालों को बाद में देना। यह कोई धर्मशाला नहीं है।”
कविता का चेहरा लाल हो गया, पर उसने जवाब नहीं दिया। उसने बुज़ुर्ग के लिए कॉफी बनाई, उनके सामने रखी और बोली, “सर, आपकी कॉफी।”
हरी नारायण ने मुस्कुराकर पूछा, “बेटी, तुम्हारा नाम क्या है?”
“कविता शर्मा, सर।”
“बहुत अच्छा नाम है,” उन्होंने कहा, “कविता सिर्फ किताबों में नहीं, ज़िंदगी में भी मिलती है, और आज मुझे वो मिल गई।”
उसी समय विवेक का फोन बजा।
“हाँ मिस्टर अग्रवाल, मैं एम्पायर ब्लेंड्स में हूं। आज फंडिंग फाइनल करनी है।”
वो घमंड से मुस्कुरा रहा था। पर भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था।
ठीक 12 बजे, दरवाज़ा फिर खुला। अंदर आए दो सूट-बूट पहने सज्जन — मिस्टर अग्रवाल और मिस्टर सूद।
विवेक उछल पड़ा, “लो दोस्तों, अब देखो असली शो।”
वो तुरंत उठा और आगे बढ़ा, “गुड टू सी यू सर!”
पर दोनों ने उसकी तरफ़ देखा भी नहीं। उनकी नज़र सीधी उस कोने पर गई जहाँ हरी नारायण कॉफी पी रहे थे।
वे दोनों उनके पास पहुँचे, हल्के झुके और बोले,
“सर, अगर आप इजाज़त दें तो हम बैठ जाएं?”
पूरा रेस्टोरेंट सन्न रह गया।
विवेक हैरान था।
अग्रवाल बोले, “सर, आपने तो कहा था आज आराम करेंगे।”
हरी नारायण मुस्कुराए, “हाँ बेटा, आराम ही तो कर रहा हूं… कॉफी के साथ।”
मिस्टर सूद बोले, “सर, आपके बताए प्रोजेक्ट कम्युनिटी होटल की लॉन्चिंग अगले हफ्ते है। आपकी सलाह के बिना ये संभव नहीं था।”
विवेक के होश उड़ गए।
“आप इन्हें जानते हैं सर?” उसने काँपती आवाज़ में पूछा।
अग्रवाल मुस्कुराए, “जानते हैं? बेटा, हम तो इनके मार्गदर्शन में कारोबार करते हैं। तुम्हारे जैसे सौ फाउंडर रोज़ आते हैं, पर हरी नारायण मेहता जैसे लोग सदी में एक बार मिलते हैं।”
विवेक का सारा घमंड पिघल गया। जिस बुजुर्ग को उसने सबके सामने “काका” कहकर हँसाया था, वही असल में देश के सबसे सम्मानित बिज़नेस मेंटर निकले।
हरी नारायण ने कहा, “तुम्हारे पिता रमेश कपूर को मैं जानता हूं। मेहनती इंसान हैं। उन्होंने नाम कमाया अपनी ईमानदारी से। और आज उनका बेटा… बस वही नाम बेच रहा है।”
विवेक की आँखें झुक गईं।
“सर, मैं तो मज़ाक…”
“बेटा,” हरी नारायण बोले, “जब मज़ाक किसी की गरिमा पर हो, तो वो मज़ाक नहीं, तुम्हारे चरित्र की पहचान बन जाता है।”
रेस्टोरेंट में सन्नाटा छा गया।
मिस्टर अग्रवाल ने कहा, “विवेक, हमें खेद है, पर अब हमारे निवेश का कोई मतलब नहीं। हम उन लोगों के साथ काम करना चाहते हैं जो ज़मीन से जुड़े हैं, अहंकार से नहीं।”
हरी नारायण खड़े हुए और बोले, “बेटा, मैं तुम्हें गिराना नहीं चाहता। बस इतना चाहता हूं कि अगली बार किसी से बात करते समय पहले उसे इंसान समझना।”
वो झोला उठाकर चले गए।
अगली सुबह कविता शर्मा बेचैन थी। उसने Hari Narayan Mehta नाम सर्च किया — और स्क्रीन पर सामने आया “Founder – Sage Invest Group, Business Thinker of the Year.”
वही सादा चेहरा, वही मुस्कान।
“हे भगवान, ये वही हैं!” उसने फुसफुसाया।
वो तैयार हुई और उनके घर पहुँची — शांति निवास।
हरी नारायण खुद दरवाज़ा खोलते हैं, मुस्कुराकर कहते हैं, “आ गई बेटी?”
कमरा किताबों और तस्वीरों से भरा था। दीवार पर एक फ़ोटो — जिसमें वो बच्चों को खाना बाँट रहे थे।
वो बोले, “कल जो हुआ, उसने मुझे तुम्हारी ईमानदारी की याद दिला दी। तुम जैसी लोग ही इस देश की असली पूँजी हैं।”
कविता बोली, “सर, मैंने तो बस अपना काम किया था।”
“नहीं बेटी,” उन्होंने कहा, “आजकल काम करने वाले बहुत हैं, लेकिन काम में इंसानियत रखने वाले बहुत कम।”
फिर उन्होंने मेज़ से एक फाइल उठाई।
“तुम कल कह रही थी न कि ‘माँ की रसोई’ खोलना चाहती हो? तो चलो, उसे हक़ीक़त बनाते हैं।”
कविता हैरान रह गई।
“मतलब सर?”
“मतलब, हम तुम्हारे साथ हैं। जगह देख ली है, इन्वेस्टर्स तैयार हैं। तुम बस ईमानदारी से काम करना।”
कविता की आँखें भर आईं। “सर, मुझे तो बिज़नेस की समझ भी नहीं।”
हरी नारायण मुस्कुराए, “समझ तो कल ही दे चुकी हो बेटी, जब तुमने बिना किसी स्वार्थ के सम्मान दिया था। वही असली बिज़नेस है।”
छह महीने बाद, लाजपत नगर की सड़क पर एक नया बोर्ड चमक रहा था —
“माँ की रसोई — प्यार से परोसा हर निवाला।”
अंदर से पूरियों की खुशबू आ रही थी, बच्चों की हँसी गूँज रही थी।
कविता शर्मा मुस्कुराते हुए दीपक जलाती है — “माँ, अब तुम्हारा नाम हर थाली में रहेगा।”
हरी नारायण अंदर आते हैं, वही झोला लिए हुए।
“बेटी, मैंने सिर्फ़ दरवाज़ा दिखाया था, चलना तुम्हें आया।”
कविता बोली, “सर, यहाँ हर रात बचा खाना अनाथालय जाता है और हर रविवार हम उन बुज़ुर्गों को खिलाते हैं जिनके बच्चे उन्हें भूल चुके हैं।”
हरी नारायण की आँखें भर आईं, “यही तो असली बिज़नेस है बेटी, जहाँ इंसानियत घाटे में नहीं जाती।”
तभी बाहर एक कार रुकी।
उतरा विवेक कपूर। चेहरा थका हुआ, आँखों के नीचे काले घेरे, पर अब अहंकार नहीं था।
वो अंदर आया, “कविता जी, एक कॉफी मिलेगी?”
कविता मुस्कुराई, “ज़रूर सर, यहाँ हर कॉफी सम्मान के साथ मिलती है।”
हरी नारायण पास आए, “कैसे हो बेटा?”
विवेक ने सिर झुकाया, “ठीक नहीं सर, सब खो दिया। कंपनी बंद हो गई, इन्वेस्टर्स चले गए। शायद मैं अपनी अकड़ में बहुत आगे निकल गया था।”
हरी नारायण ने कहा, “बेटा, इंसान तब असफल नहीं होता जब गिरता है, बल्कि तब होता है जब सीखना छोड़ देता है। अगर तुम सच्चे मन से पछता रहे हो, तो यह तुम्हारी नई शुरुआत है।”
कविता ने ब्लैक कॉफी रखी, “ठीक वैसी ही, जैसी आपने छह महीने पहले मंगाई थी।”
हरी नारायण ने कप विवेक की ओर बढ़ाया, “लो बेटा, यह वही कप है। जो कभी अपमान का था, आज अवसर का बन सकता है।”
विवेक की आँखें नम हो गईं। “सर, मैं माफ़ी चाहता हूं।”
कविता बोली, “माफ़ी मांगना भी बहादुरी है सर। ज़िंदगी हमेशा दूसरा मौका देती है — अहंकार नहीं।”
हरी नारायण मुस्कुराए, “अगर सच में बदलना चाहते हो, तो ‘माँ की रसोई’ में काम करो। यहाँ हर कोई अपनी हार से शुरुआत करता है।”
विवेक ने सिर झुका दिया, “जी सर, मैं तैयार हूं।”
सूरज की किरणें खिड़की से अंदर आ रही थीं, और तीनों के चेहरों पर पड़ रही थीं।
हरी नारायण उठे, झोला कंधे पर डाला, और जाते-जाते बोले —
“कभी किसी की सादगी को कमजोरी मत समझना। वही ताक़त है जो वक़्त आने पर दुनिया बदल देती है।”
पीछे बोर्ड चमक रहा था —
“जहाँ दिल से परोसा जाता है हर निवाला।”
और सचमुच, उस दिन दिल्ली के दिल में इंसानियत फिर से जाग उठी।
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