कावेरी का घाट और नाव चलाने वाला पिता

कर्नाटक के मैसूर ज़िले में कावेरी नदी के किनारे एक छोटा-सा गाँव था — शांत, हरा-भरा और नदी की कलकल ध्वनि से भरा। वहीं एक व्यक्ति रहता था — दीनाना, जो रोज़ अपनी लकड़ी की नाव से लोगों को नदी पार कराता था। यही उसका और उसके परिवार का पेट पालने का साधन था।
उसके घर में उसकी पत्नी और दो बेटियाँ थीं — बड़ी संगीता और छोटी सुमन। संगीता सत्रह-अठारह साल की थी — मासूम, सरल और मेहनती। हर दिन वह सुबह पिता के लिए भोजन लेकर घाट तक जाती। जब पिता खाना खाते, वह नाव सँभाल लेती, और अगर कोई ग्राहक आता, तो उसे पार उतार देती।
उसे नाव चलाना बहुत अच्छा लगता था — पानी की लहरें, हवा का झोंका और पतवार की आवाज़ जैसे उसके जीवन का संगीत बन चुके थे।
पहली मुलाक़ात — अनजानी मुस्कान
एक दिन जब सूरज सिर पर था और हवा में नमी तैर रही थी, तब एक युवक वहाँ आया — नाम शिवम। उम्र लगभग तेईस-चौबीस साल। चेहरे पर आत्मविश्वास और आँखों में जिज्ञासा। वह बाइक लेकर आया और बोला — “मुझे उस पार जाना है।”
दीनाना उस समय खाना खा रहे थे, तो उन्होंने कहा — “बेटा, यह मेरी बेटी संगीता है। यह तुम्हें उस पार पहुँचा देगी।”
पहले तो शिवम थोड़ा झिझका — “अरे नहीं, अंकल, लड़की नाव चलाएगी? मुझे डर लगेगा।”
दीनाना हँस पड़े — “डरने की ज़रूरत नहीं। यह नाव मुझसे भी अच्छा चलाती है।”
संगीता ने पतवार संभाली, दुपट्टा कमर पर बाँधा और नाव को पानी में उतार दिया। शिवम बस उसे देखता रह गया — लहरों पर तैरती वह साधारण सी लड़की, जिसकी आँखों में न जाने कैसी चमक थी।
नाव किनारे पहुँची, उसने पूछा — “कितना हुआ?”
“बीस रुपये,” संगीता बोली।
शिवम ने पचास का नोट बढ़ाया।
“छुट्टा दूँ?”
“नहीं, रख लो,” उसने कहा।
संगीता ने मुस्कुराकर जवाब दिया — “नहीं, ईमानदारी से जो मेहनत मिली है वही ठीक है।”
यहीं से दोनों के बीच एक अजीब-सा रिश्ता शुरू हुआ — न नाम का, न वादे का, बस एक मौन समझ का।
धीरे-धीरे दिल का रिश्ता
अगले ही दिन शिवम फिर घाट पर आया।
“अरे, फिर आ गए?” संगीता ने मुस्कुराते हुए पूछा।
“हाँ,” उसने कहा, “तुमसे नाव चलाना सीखना है।”
संगीता हँसी — “पहले तैरना सीखो, फिर नाव चलाना। कभी पतवार छूट जाए तो?”
शिवम बोला — “तो तुम सिखा दो।”
“मैं लड़की हूँ, मैं लड़कों को तैरना नहीं सिखाती।”
दोनों हँस पड़े। फिर जैसे रोज़ का सिलसिला बन गया। शिवम हर दूसरे दिन आता। कभी बहाने से, कभी सच में नदी पार करने के लिए। नाव पर बातें होतीं — छोटे-छोटे मज़ाक, मासूम मुस्कानें।
धीरे-धीरे यह मासूम रिश्ता गहराने लगा। शिवम को अब रातों में नींद नहीं आती थी। आँखें बंद करता, तो बस संगीता की सूरत दिखती।
इज़हार-ए-मोहब्बत
एक दिन उसने हिम्मत जुटाई —
“संगीता, अगर मैं कहूँ कि मुझे तुम्हारी याद आती है तो बुरा मानोगी?”
संगीता झेंप गई।
“क्यों?”
“क्योंकि शायद… मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ।”
संगीता चुप रही। उसकी आँखें झुक गईं। उसने धीरे से कहा —
“प्यार क्या होता है, मुझे नहीं पता… पर जब तुम नहीं आते, तो घाट सुनसान लगता है।”
दोनों के बीच सन्नाटा था — मगर उस सन्नाटे में प्रेम की पहली धड़कन गूँज रही थी।
पिता से सामना
कुछ दिन बाद शिवम ने हिम्मत करके दीनाना से कहा —
“अंकल, मैं आपकी बेटी संगीता से शादी करना चाहता हूँ।”
दीनाना स्तब्ध रह गए।
“बेटा, तुम अच्छे हो, लेकिन हम गरीब हैं। नाव चलाने वाले की बेटी का रिश्ता अमीर घर में नहीं होता। दुनिया हँसेगी।”
शिवम बोला — “अंकल, मैं अमीर नहीं, इंसान हूँ। मैं उसे खुश रख सकता हूँ।”
संगीता सब सुन रही थी। उसकी आँखें भीग गईं। पिता ने देखा, और आखिर बोले —
“ठीक है बेटा, अगर तू मेरी बेटी को अपना सके, तो मेरी दुआ तेरे साथ है।”
शादी और समाज का ताना
शादी सादगी से मंदिर में हुई। लेकिन समाज ने दोनों को चैन से जीने नहीं दिया।
शिवम के घरवाले शुरुआत से ही नाराज़ थे — “नाव चलाने वाले की बेटी से शादी! हमारी क्या इज़्ज़त रह जाएगी?”
संगीता रोज़ ताने सुनती। शिवम दफ्तर चला जाता, और पीछे उसकी माँ और बहनें उसे जली-कटी सुनातीं।
“हमारे बेटे को फँसाया है!”
“घाट की लड़की होकर घर में बहू बनी है!”
संगीता हर बात चुपचाप सहती। शाम को शिवम लौटता, तो मुस्कुराकर कहती — “आज दिन अच्छा था।”
वह नहीं चाहती थी कि पति दुखी हो।
पहला तूफ़ान — बाढ़ का दिन
छह महीने बाद उसकी छोटी बहन की शादी थी। पूरा परिवार मायके गया। सब खुश थे।
शादी के अगले दिन दीनाना ने कहा — “चलो, अपनी पुरानी नाव दिखाता हूँ।”
सभी नाव में बैठे — शिवम, संगीता, शिवम के माता-पिता और बहनें।
कावेरी उस दिन उफान पर थी।
नाव जैसे-तैसे आगे बढ़ी ही थी कि शिवम की माँ ने ताना मारना शुरू कर दिया —
“हमारा बेटा बर्बाद कर दिया तुम्हारी बेटी ने। ऐसे घर की लड़की से शादी कर ली!”
दीनाना का चेहरा पीला पड़ गया।
शिवम ने कहा — “माँ, बस करिए।”
लेकिन शब्द और तल्ख़ होते गए।
अचानक शिवम ने अपना आपा खो दिया। वह बोला — “अगर मेरे प्यार से आपको इतनी तकलीफ है, तो मैं चला जाता हूँ।”
और उसने नदी में छलांग लगा दी।
संगीता चीखी — “शिवम!”
और बिना एक पल सोचे, वह भी कूद गई।
लहरों से जंग
नदी भयंकर थी, धार तेज़ थी।
संगीता ने शिवम को पकड़ा, उसे ऊपर रखने की कोशिश की।
वह चिल्लाई — “कुछ मत बोलो, मैं हूँ तुम्हारे साथ।”
शिवम कमजोर पड़ रहा था।
“संगीता… मुझे छोड़ दो। तुम गर्भवती हो। अपने बच्चे के लिए जी लो।”
संगीता बोली — “बच्चा तुम्हारा है, तो मैं तुम्हारे बिना कैसे जीऊँ?”
दोनों लहरों में बहते रहे। ऊपर नाव पर अफरा-तफरी थी।
दीनाना नाव संभालते हुए मदद के लिए चिल्ला रहे थे। दो घंटे की मशक्कत के बाद कुछ गोताखोर पहुँचे और दोनों को खींचकर किनारे लाए।
नई सुबह
दोनों बेहोश थे। अस्पताल ले जाया गया।
शिवम की साँसें लौट आईं, पर संगीता को होश आने में दो दिन लगे।
उसका गर्भ गिर चुका था। डॉक्टर ने कहा — “भगवान की दया से दोनों ज़िंदा हैं।”
जब शिवम की माँ आईं, तो रो पड़ीं।
“बहू, हमें माफ़ कर दो। हम तुम्हारी सच्चाई नहीं समझ पाए।”
संगीता ने आँसू पोछे — “माँ, अगर कोई भी औरत होती, तो शायद वही करती जो आपने किया।”
उस दिन से घर का माहौल बदल गया। जो घर कभी तानों से भरा था, अब प्यार से गूंजने लगा।
आज की संगीता
साल बीत गए। अब शिवम और संगीता के दो बच्चे हैं।
कावेरी पर अब पुल बन गया है, नाव की ज़रूरत नहीं। लेकिन हर साल वे दोनों वहाँ जाते हैं।
नदी किनारे बैठकर लहरों को देखते हैं और चुपचाप मुस्कुराते हैं।
संगीता कहती है —
“याद है, जब पहली बार तुमने मुझे देखा था?”
शिवम हँसता है — “हाँ, और तुमने बीस रुपये से ज़्यादा नहीं लिए थे।”
फिर दोनों हाथ पकड़ लेते हैं। नदी की हवा में पुरानी हँसी लौट आती है।
कहानी का संदेश
संगीता और शिवम की कहानी बताती है —
प्यार की नाव अगर सच्चाई और भरोसे की पतवार से चलाई जाए, तो कोई भी तूफ़ान उसे डुबो नहीं सकता।
जो लोग समाज की सीमाएँ खींचते हैं, वही एक दिन उन सीमाओं को तोड़ने वालों की मिसाल सुनाते हैं।
अगर यह कहानी आपके दिल को छू गई हो,
तो अपने माता-पिता को गले लगाइए,
और याद रखिए —
“सच्चा प्यार कभी आसान नहीं होता, पर वही इंसान को सबसे खूबसूरत बना देता है।”
जय हिंद, जय भारत।
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