छूटी हुई ट्रेन, मिला जीवन का असली अर्थ

दिल्ली की तेज़ रफ्तार और ऊँची इमारतों में पली-बढ़ी अंजलि खन्ना की दुनिया कितनी महफूज और आरामदायक थी, इसका अंदाजा उसे तब तक नहीं था, जब तक किस्मत ने उसे उसकी सीमाओं से बाहर आज़माने का फैसला नहीं किया। 22 साल की अंजलि दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ती थी और मशहूर उद्योगपति रमेश खन्ना की इकलौती बेटी थी। हर सुख-सुविधा से भरपूर, लेकिन दिल से बेहद सरल और जमीन से जुड़ी हुई।

गर्मी की छुट्टियों में वह पहली बार अपने पुश्तैनी घर लखनऊ अकेले ट्रेन से जा रही थी। माता-पिता विदेश जा रहे थे और उन्होंने बेटी के लिए पहली बार फर्स्ट क्लास एसी का टिकट बुक कराया, हिदायतें दी और विदा किया।

यात्रा की शुरुआत बढ़िया थी, लेकिन किस्मत ने उसके जीवन को नया मोड़ देने का मन बना लिया था। दोपहर की भूख में, ट्रेन के पेंट्री का खाना छोड़ अंजलि ने तय किया कि अगले स्टेशन पर उतरकर कुछ अच्छा खाना खाएगी। शताब्दी एक्सप्रेस अचानक रामगढ़ नाम के एक छोटे से अनजान स्टेशन पर रुकी।

स्टेशन पर सिर्फ अर्जुन की चाय की दुकान, अकेला चायवाला, और कुछ फेरीवाले थे। अर्जुन, जिसे जीवन ने बहुत जल्दी बड़ा बना दिया था, अपने बीमार मां और छोटी बहन राधा की ज़िम्मेदारी निभाने के लिए पढ़ाई छोड़ चाय की दुकान चला रहा था।

अंजलि ने उससे समोसे और पानी लिया, लेकिन ट्रेन का अचानक से हॉर्न बजा और वह धक्का-मुक्की में ट्रेन पकड़ नहीं पाई। उसका सारा सामान, फोन, पैसे – सब ट्रेन में छूट गया। अंजलि अकेली, डरी-सहमी प्लेटफॉर्म पर रह गई। अर्जुन ने उसकी स्थिति देखी, दुकान पर एक बच्चे को बैठाया और पास आकर मदद की पेशकश की। स्टेशन मास्टर से भी उम्मीद टूट गई – अगली ट्रेन सुबह तक नहीं थी।

अर्जुन ने उसे अपनी दुकान पर ले जाकर चाय पिलाई, दिलासा दिया और जब रात गहराने लगी, तो अपने छोटे से गाँव, मिट्टी के घर ले गया। वहां उसकी मां शारदा देवी और बहन ने अंजलि का दिल से स्वागत किया। अंजलि को छोटे घर और साधारण खाने में जो अपनापन मिला, वो उसके बड़े बंगले के किसी कोने में नहीं था।

रात में अंजलि और राधा ने सपनों की बातें कीं, मुश्किलें बाँटीं। अर्जुन की माँ ने भरोसा दिलाया – “जब तक तुम यहां हो, यह घर तुम्हारा है।” सुबह अर्जुन ने तय किया कि चाहे जैसे हो, अंजलि को उसके घर पहुँचाएगा। अपने मां की दवाइयों के लिए जुटाए पैसों से उसने बस टिकट ली, कुछ पैसे राधा से मांगे और दोनों लखनऊ के लिए निकल पड़े।

रास्ते में खाने के पैसे की कमी थी, अर्जुन ने सिर्फ चाय पी। अंजलि उसकी हालत समझ गई, दिल में उसके लिए सम्मान और बढ़ गया। लखनऊ पहुंचकर जब वो अपने आलीशान बंगले के सामने पहुँची, पूरे घर में खुशी की लहर दौड़ गई। दादी और नौकर-चाकर रो पड़े।

अर्जुन के बारे में सुनकर सबकी आंखें भर आईं। रमेश खन्ना और उनकी पत्नी विदेश से लौट आए। उन्होंने अर्जुन का धन्यवाद करना चाहा, पैसे देना चाहा, लेकिन अर्जुन ने हाथ जोड़ लिए, “साहब, मैंने कोई एहसान नहीं किया, ये मेरा इंसानियत का फर्ज था।”

रमेश खन्ना उसकी ईमानदारी देख चौक पड़े। उन्होंने कहा, “तुम्हारी शिक्षा, बहन की पढ़ाई, मां का इलाज, सब कुछ मैं देखूंगा। रामगढ़ स्टेशन पर भी तुम्हारे नाम से एक भोजनालय और जनरल स्टोर खुलेगा, उसकी आमदनी तुम्हारे गरीब गांववालों और परिवार को मिलेगी।” अर्जुन की आंखों में आंसू छलक आए, पहली बार उसने सपने सच होते देखे।

पांच साल बाद अर्जुन ने वही किया जिसका वह सपना देखता था – वह अफसर बन गया। उसकी बहन टीचर, मां स्वस्थ, गांव के कई लोग रोजगार में जुटे। और अंजलि? वह अब अपने परिवार की कंपनी में बड़ी अधिकारी और अर्जुन की आजीवन मित्र बनी रही।

यह कहानी सिर्फ छूटी हुई ट्रेन या एक किनारे छूटे दो इंसानों की नहीं, बल्कि वह मिसाल है कि छोटी-सी मदद भी किसी का जीवन बदल सकती है और इंसानियत, निस्वार्थता – ये ही हमारी असली दौलत हैं।

सीख: नेकी का सिला देर-सवेर इंसान को जरूर मिल जाता है। मदद बिना किसी स्वार्थ के की जाए, तो वह जीवन के सबसे खूबसूरत रिश्तों और बदले में नए अवसरों का रूप ले लेती है।

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