छोटे से जज़्बे की बड़ी जीत: सागर की कहानी

वाराणसी की भीड़भाड़ वाली गलियों में एक 8 साल का चंचल और प्यारा लड़का रहता था – सागर। उसका छोटा-सा परिवार, मम्मी-पापा का गहरा प्यार, अच्छे स्कूल में पढ़ाई, दोस्तों के संग मस्ती, हर दिन नई-नई ख्वाहिशें और सपनों से भरी आंखें… सब कुछ सागर की जिंदगी में था। उसके माता-पिता ने दिन-रात मेहनत कर उसे वो सबकुछ देने की कोशिश की थी, जो उससे बेहतर बन सके, बड़ा होकर कुछ हासिल कर सके। लेकिन वक्त की चाल को कौन जानता है?

एक शाम सड़क हादसे में सागर ने अपने माता-पिता दोनों को खो दिया। वह पूरी तरह टूट गया। उसके आगे पीछे अब सिर्फ एक इंसान बचा, उसका चाचा – जो नशे और खुदगर्जी में डूबा रहता था। सागर की तक़दीर ने उस मासूम को उस इंसान के हवाले कर दिया, जिसे सिर्फ संपत्ति, पैसे और ज़मीन से मतलब था।

चाचा के दो बेटे थे। वे अच्छे स्कूल में पढ़ते, महंगे कपड़े पहनते, स्वादिष्ट खाना खाते और चाचा का लाड़-प्यार पाते। वहीँ सागर से घर के बाकी काम करवाए जाते, उसे सरकारी स्कूल में डाल दिया गया। स्कूल से लौटते ही उसे पास की एक चाय दुकान में भेज दिया जाता—जहां वह दिन भर कप धोता, मेजें साफ करता, ग्राहकों को चाय परोसता। उस पर मिलने वाले पैसे भी चाचा शराब पीने में उड़ा देता। सागर सिर्फ रूखा-सूखा खाना पाता। अकेलापन, तिरस्कार और दुख… यह उसकी नई दुनिया थी।

पर सागर के भीतर हिम्मत अब भी बाकी थी। मम्मी-पापा की बातें कहानियों-सी यादें, कभी भी उसका साथ छोड़ती नहीं थी। उसने खुद को उस नए जीवन के हिसाब से ढाल लिया। सरकारी स्कूल में ठीक-ठाक पढ़ता, दुकान पर भी काम करता, पार्क में जाकर बच्चों की हंसी देख अपना मन बहला लेता।

चाय की दुकान के मालिक पासी चाचा सागर से दयालु थे। वे उसकी कहानी जानते थे, उन्होंने सागर पर ज्यादा काम का बोझ नहीं डाला। स्कूल के बाद जितना बन पाता, सागर कर देता। कई बार वही उसे चोरी-छिपे मिठाई खिला देते, कहीं कोई किताब थमा देते। इसी दुकान के ठीक पास एक पार्क था, जहां सागर अक्सर बैठा रहता था।

एक दिन वहां पार्क में व्हील चेयर पर एक लड़की आई – नाशा। उसकी उम्र सागर के बराबर थी; दोनों पैरों में प्लास्टर था। उसकी मां धीरज से उसे घुमा रही थी। सागर की मासूमियत जागी, उसने निवेदन किया – “आंटी, क्या मैं दीदी को थोड़ा घुमा सकता हूं?” मां ने मुस्कुराकर इजाजत दी। सागर ने व्हीलचेयर लेकर नाशा को पार्क में इधर उधर घुमाया। पुश्तैनी रिश्तों से दूर, दो अनजान बच्चों के बीच दोस्ती जन्म ले रही थी।

धीरे-धीरे यह रोज़ का नियम बन गया। सागर स्कूल और दुकान के बाद पार्क जाता, नाशा आती, दोनों खेलते, हँसते, बातें करते। नाशा ने सागर को कभी पैसों, कपड़ों या स्कूल की वजह से कमतर नहीं समझा। दोस्ती के इस रिश्ते में सागर का अकेलापन घुल गया था। नाशा की मां दूर बैठकर यह देखती और खुश होती थीं।

एक दिन नाशा के पापा भी पार्क आए। बेहद अमीर, गम्भीर और सख्त मिज़ाज। नाशा ने पहले ही सागर को बताया था कि पापा को बिना पूछे कुछ पसंद नहीं। सागर डरते-डरते उनके पास गया, “साहब, मैं दीदी को थोड़ा घूमाऊं?” मां ने तुरंत बात संभाली—सागर बहुत अच्छा लड़का है। पापा ने दूर से देखा, उनकी बेटी सागर के साथ हंस रही थी, खुश थी।

कुछ दिन बाद नाशा का प्लास्टर कट गया। अब बहुत दिनों तक पार्क आना बंद हो गया। नाशा उदास हो गई, उसे सागर की याद सताने लगी। उसने मां से कहा— “मेरा कोई भाई नहीं है मम्मी, सागर मेरे भाई जैसा है…” मां की आंखें भी भर आई। अगले ही दिन दोनों पार्क आ पहुंचीं। सागर नाशा को पैरों पर देख छा गया— “दीदी, अब हम साथ खेलेंगे!” दोनों खिलखिलाकर दौड़ने लगे।

फिर एक दिन, नाशा के पापा चाय की दुकान पर पहुंचे। पासी चाचा ने सागर की पूरी दास्तान खोल दी: अनाथ, चाचा के तानों-तिरस्कार के साये में बचपन और मेहनत… अमीर इंसान के दिल में दर्द की हलचल हुई। फिर सीधे सागर के चाचा के घर पहुंचे और बोला – “इतने छोटे बच्चे से तू इंतना कठोर व्यवहार करता है? इसे पढ़ा-लिखा क्यों नहीं रहा?” चाचा ने ढिठाई से कहा—“पराया है, मुझे ज़मीन विरासत चाहिए, खाना-पैसा इत्ता ही है…”

पापा का गुस्सा फूट पड़ा—“मैं पुलिस बुला लूंगा—या तो इस बच्चे को अपना हिस्सा दे या मुझे सौंप दे।” लालच में चाचा ने पैसे लिए और सागर को जाने दिया। नाशा के पापा ने सागर के स्कूल के प्रिंसिपल से बात की, सब हाल जाहिर किया। “बेटा, अब तू मेरे घर चलेगा,” नाशा के पापा ने सागर से कहा। उसकी आंखें भर आई, उसे यकीन ही नहीं हुआ–अब वह अच्छे स्कूल में पढ़ेगा, नए कपड़े पहन पाएगा, भरपेट खाना खा पाएगा, और सबसे बढ़कर–अब उसे अपना परिवार मिलेगा!

सागर नये जीवन की ओर बढ़ा–सभी सुख, शिक्षा, प्यार और सम्मान मिला, जो हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार है। नया स्कूल, नए दोस्त, किताबें, खेल और सबसे बड़ा सहारा–सगी बहन जैसी नाशा। पापा और मम्मी ने उसे अपनाया, बेटा बुलाया। धीरे-धीरे कारोबार में हाथ बँटाया, अपनी मेहनत और ईमानदारी से माता-पिता का दिल जीता।

वक्त बीता… वर्षों बाद, एक दिन कम्पनी में नौकरी के आवेदन आए। सागर ने अपने पुराने चाचा के बेटे प्रवीण का नाम देखा। प्रवीण ने कहा, “भैया हम परिश्रम करेंगे, सिर्फ कोई रास्ता चाहिए…” सागर का दिल दर्द में भर गया। घर जाकर सब बताया, पापा ने कहा–“बेटा, बाबा माफ़ कर देना ही जीत है। उसने तुम्हारे साथ बुरा किया, लेकिन तुम बड़प्पन दिखाओ…”

सागर ने प्रवीण को अच्छी पोस्ट दी, चाचा-चाची का भी इलाज करवाया। आज भी जब सागर और नाशा बैठकर बचपन की बातें करते हैं, वो मानते हैं–”इंसान के पास पैसे भले कम हों, दिल बड़ा होना चाहिए। हिम्मत, अच्छाई और माफ़ी सबसे बड़ी दौलत है।”

सीख: हर हालात में अच्छाई, मेहनत और माफ़ करना ही जिंदगी का असली राज है। अपना मन छोटा मत करो, भगवान हर सच्ची कोशिश की कदर करता है।

अगर कहानी दिल छू गई तो शेयर करें, कमेंट करें–क्योंकि अच्छाई का फल मिलता जरूर है! जय हिंद!