“जब अमीर बेटी का दिल एक गरीब लड़के पर आ गया”

पहाड़ों की गोद में बसा कुमाऊँ का छोटा-सा गाँव बौराड़ी अपनी खामोश वादियों, ठंडी हवाओं और साधारण ज़िंदगी के लिए जाना जाता था। गाँव के अधिकांश लोग खेती, बकरियाँ पालने या छोटे-मोटे कामों में लगे थे। शाम होते ही पहाड़ों के पीछे सूरज छुप जाता और पूरा गाँव पीली रोशनी में डूब जाता।

यही पर रहती थी लक्ष्मी — एक बुज़ुर्ग औरत, जिसके सफ़ेद बाल, हँसती आँखें और झुर्रियों से भरा चेहरा उसके जीवन की कठिनाइयों का पूरा इतिहास था। उसके पास बस एक छोटी सी मिट्टी की झोपड़ी थी और एक ही सहारा… उसका बेटा कबीर।

कबीर गाँव में सब्जियाँ बेचता था और समय मिलते ही मजदूरी कर लेता था। शरीर दुबला, आँखें साफ़ और दिल समुद्र जितना गहरा। वो अक्सर कहता था, “अम्मा, एक दिन मैं हमारी झोपड़ी को घर बना दूँगा। वादा है।”

लक्ष्मी इस वादे पर मुस्कुराती थी।
वो जानती थी—उसका बेटा गरीब है, पर उसका दिल दौलत से बड़ा है।

दूसरी तरफ़, देहरादून शहर से मात्र तीस किलोमीटर दूर, महंगी गाड़ियों और काँच से बने घरों के बीच रहती थी आरोही मेहता। करोड़पति उद्योगपति विनीत मेहता की इकलौती बेटी। दुनिया कहती थी कि उसके पास सबकुछ है—नाम, शौहरत, पैसा, ब्रांडेड कपड़े, महंगी यात्राएँ…

लेकिन दुनिया नहीं जानती थी कि उसके पास एक चीज़ की बहुत कमी थी—सुकून
पैसों के पीछे भागते माता-पिता, अकेला कमरा, नकली दोस्त, और ऐसा जीवन जहाँ हर मुस्कान कैमरे के लिए होती थी, दिल के लिए नहीं।

आरोही अक्सर कांच की खिड़की से बाहर देखकर सोचा करती, “क्या कहीं ऐसा भी जीवन होगा जहाँ कोई मुझे सिर्फ़ मेरे होने के लिए चाहे… मेरे पैसे के लिए नहीं?”

एक दिन उसका मन अगली बार से भी ज़्यादा बेचैन हो उठा। उसने बिना बताए अपनी कार उठाई और शहर के शोर से दूर पहाड़ी रास्तों पर निकल गई। वो हवा को महसूस करना चाहती थी, खुद से मिलना चाहती थी।

रास्ता खूबसूरत था—हरे पेड़, शांत पहाड़, बादलों से बातें करती सड़कें। आरोही जितना ऊपर चढ़ती, उतना ही हल्का महसूस करती।

लेकिन किस्मत को कुछ और मंज़ूर था।

वह शाम का वक़्त था। आसमान में बादल इकट्ठा हो चुके थे। तेज़ हवाएँ चल रही थीं। तभी अचानक उसकी गाड़ी झटका खाकर बंद हो गई।

उसने दोबारा स्टार्ट किया—कुछ नहीं।
फिर कोशिश की—लेकिन गाड़ी जैसे बेहोश पड़ी थी।

हल्की बारिश शुरू हो गई।
फोन निकाला—नेटवर्क गायब।
चमचमाते कपड़े अब भीगने लगे।
दिल में डर की लकीरें खिंच गईं।

उसी समय दूर से कोई आता हुआ दिखाई दिया।

एक लड़का… हाथ में टोकरी लिए, कंधे पर गमछा डाले, बारिश में भीगा हुआ…
कबीर था वो।

उसने एक नज़र में समझ लिया कि लड़की शहर से आई है और मुश्किल में है।

आरोही ने हिचकिचाकर कहा,
“मेरी कार बंद हो गई है… मुझे समझ नहीं आ रहा क्या करूँ… यहाँ नेटवर्क भी नहीं है…”

कबीर ने गाड़ी को देखा, फिर बारिश को, फिर उसके काँपते हाथों को।

“यहाँ बारिश में कोई मैकेनिक नहीं मिलेगा। मेरा घर पास में है। वहाँ चलिए। बारिश रुक जाए तो ऊपर पहाड़ पर नेटवर्क मिल जाएगा।”

आरोही के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था। वो कबीर के हल्के-फुल्के इशारे पर गाड़ी में बैठ गई। कबीर ने पूरी ताकत से गाड़ी को धक्का देना शुरू किया। बारिश अब तेज़ हो चुकी थी।

पानी, कीचड़, पत्थर…
लेकिन कबीर हिम्मत नहीं हारा।
कुछ समय बाद वे लक्ष्मी की झोपड़ी के सामने पहुंचे।

लक्ष्मी चूल्हे पर रोटी सेंक रही थी।
भीगी हुई आरोही को देखकर चौंक गई।

“अरे बिटिया, आओ-आओ… भीग जाओगी, बीमार पड़ जाओगी। अंदर आ जाओ।”

आरोही ने झोपड़ी के अंदर देखा—मिट्टी की दीवारें, मिट्टी का चूल्हा, एक खटिया, एक लालटेन और एक बहुत पुराना रेडियो।

उसने जिंदगी में इतना सादा घर कभी नहीं देखा था।
लेकिन अजीब बात ये थी… उसे अंदर कदम रखते ही सुकून मिला।

लक्ष्मी ने उसे तौलिया दिया, चूल्हे के पास बिठाया और ऐसे बात की जैसे बरसों से जानती हो।

आरोही का दिल पिघल गया।
शायद उसने पहली बार किसी माँ वाली आवाज़ सुनी थी।

कबीर ने चाय बनाई।
आरोही ने एक घूँट लिया और मुस्कुराई—
“इतनी अच्छी चाय मैंने कभी नहीं पी।”

कबीर ने शरमा कर कहा, “पहली बार बनाई है आपके लिए।”

तीनों बातें करते रहे।
बारिश बढ़ती गई।
रात होने लगी।

लक्ष्मी बोली,
“बेटी, बाहर तूफ़ान है। आज रात यहीं रुक जाओ। सुबह पहाड़ पर जाकर फोन कर लेना।”

आरोही ने मना करने की कोशिश की,
लेकिन उसके दिल को ऐसा लग रहा था जैसे उसने घर पा लिया हो।

वो रुकी।
कबीर दूसरी खटिया पर लेट गया।
लक्ष्मी बीच में थी।

रात भर बातें होती रहीं।
आरोही ने पहली बार महसूस किया कि सादगी में भी गहरी ख़ुशी हो सकती है।

सुबह पहाड़ पर जाकर उसने पिता को फोन किया।
उनकी आवाज़ काँप रही थी,
“आरोही! कहाँ थी तुम? रात भर ढूँढा! घर आ जाओ, बेटा।”

कुछ समय बाद मेहता परिवार की गाड़ियाँ आईं और आरोही को ले गईं।
रुकते-रुकते उसने बस इतना कहा—

“आप दोनों का धन्यवाद… आपसे मिलकर अच्छा लगा… बहुत अच्छा।”

कबीर मुस्कुराया लेकिन उसके दिल में एक अजीब-सी कसक थी।

आरोही घर लौट आई,
लेकिन मन…
मन वहीं छूट गया था।

दिन भर वो कबीर का चेहरा याद करती।
रात को लक्ष्मी की माँ वाली बातें।
वार्तालाप की वो सादगी…
खाने का वो स्वाद…
और सबसे ज्यादा वो सुकून…
जो उसे अपने करोड़ों के बंगले में कभी नहीं मिला।

आख़िर वो एक दिन खुद को रोक नहीं पाई।
दुपट्टा लिया और बिना बताए पहाड़ की ओर निकल पड़ी।

लक्ष्मी झोपड़ी के बाहर बर्तन धो रही थी।
आरोही को देखकर वो चौंक गई।

“अरे बिटिया! फिर आ गई? सब ठीक है न?”

आरोही दौड़कर उनसे लिपट गई।
“अम्मा… मुझे यहाँ अच्छा लगता है… बहुत अच्छा।”

लक्ष्मी के दिल में भावनाओं की नदी बहने लगी।
कबीर कॉलेज से लौटा और उसे देख कर स्तब्ध रह गया।

उसके बाद ये सिलसिला ऐसा चल निकला कि हर कुछ दिन में आरोही आने लगी।
वो चूल्हे पर रोटी बनाना सीखती,
सिलबट्टे पर चटनी पीसती,
बकरियों को चारा डालती,
और शाम को कबीर के साथ घाटी तक चलती।

कबीर को ये सब सपना लगता।

कैसे लाखों की बेटी…
उसकी झोपड़ी में खड़ी मुस्कुराती थी?
उसकी माँ को “अम्मा” कहती थी?
और उसे देखते ही उसकी आँखें चमक उठती थीं?

आरोही ने कबीर में वो चीज़ देखी थी
जो उसने हर अमीर लड़के में ढूँढने की कोशिश की—
सच्चाई, मेहनत, सम्मान, और दिल से बात करने की खूबसूरती।

फिर वो दिन आया जब आरोही ने सब कुछ पिता को बता दिया।

विनीत मेहता की आँखों में क्रोध भर गया।
“एक सब्ज़ी बेचने वाले से शादी?
क्या पागल हो गई हो?”

आरोही पहली बार पिता की आँखों में बेखौफ होकर बोली—
“पैसे से घर बनता है पापा,
दिल नहीं।
कबीर ने मुझे वो दिया जो आप कभी नहीं दे पाए—
प्यार… और सुकून।”

विनीत को जैसे किसी ने थप्पड़ मार दिया हो।
उनके अंदर का अहंकार टूट गया।
आरोही के आँसू देखकर उनकी दीवारें ढह गईं।

कुछ दिनों बाद एक काफिला झोपड़ी के सामने रुका।
महंगी गाड़ियाँ, महंगे कपड़े पहने लोग…
और उनके बीच विनीत और उनकी पत्नी।

लक्ष्मी और कबीर घबरा गए।
विनीत ने आगे बढ़कर कहा—

“आपके बेटे ने मेरी बेटी की जान बचाई।
और… मेरी बेटी उसे प्यार करती है।
क्या आप इस रिश्ते को मंज़ूर करेंगी?”

लक्ष्मी की आँखें भर आईं।
वो कुछ बोल नहीं पाई।
कबीर अंदर से काँप रहा था।
लेकिन आरोही की आँखों में इतना सच था
कि वो उसकी तरफ देखता ही रह गया।

आरोही ने उसका हाथ पकड़कर कहा,
“चलो कबीर… मुझे अपने जीवन में जगह दो।”

कबीर ने धीरे से सिर झुकाकर कहा,
“अगर अम्मा को मंज़ूर है… तो मुझे भी।”

लक्ष्मी ने दोनों के हाथ पकड़ लिए।
“बेटा… तुम दोनों का साथ भगवान ने लिखा है।”

कुछ समय बाद उनकी शादी पूरे रीति-रिवाज़ से हुई।
बौराड़ी गाँव में सालों बाद ऐसा जश्न हुआ।
आरोही ने भारी गहने नहीं पहने।
बस गुलाबी साड़ी, माथे पर छोटा-सा बिंदिया,
और आँखों में पहाड़ों जितनी गहराई।

शादी के बाद आरोही ने सबसे पहला काम किया—
कबीर और लक्ष्मी की ज़िंदगी बदलने का।

उसने झोपड़ी की जगह एक खूबसूरत घर बनवाया।
बिजली, पानी, नई सड़कें…
गाँववालों की ज़िंदगी भी बदल गई।

कबीर की पढ़ाई पूरी करवाई
और उसके लिए शहर में एक दुकान खुलवाई
जिसका नाम था—
“लक्ष्मी माँ सब्ज़ी भवन”
क्योंकि वह अपने माँ का नाम सबसे ऊपर रखना चाहता था।

समय बीता।
आरोही और कबीर के दो बच्चे हुए।
लक्ष्मी दादी बनी और बच्चों को कहानियाँ सुनाती।

जब भी देहरादून के महलनुमा घर में शोर होता,
आरोही कबीर से कहती—
“चलो पहाड़ चलते हैं… वहाँ हमारा असली घर है।”

वो सारी शोहरत छोड़कर फिर बौराड़ी जाते,
जहाँ सादगी, प्यार और सुकून आज भी हवा में बहता था।

कहानी बस इतनी ही नहीं सिखाती—
प्यार अमीर–गरीब नहीं देखता।

बल्कि ये भी कि
जिस दिल में सुकून मिलता है…
वही घर बन जाता है।