धूप में जलती सिया, छाँव बनकर लौटा अर्नव

लखनऊ की दोपहर उस दिन कुछ ज्यादा ही तप रही थी। हवा में जैसे आग घुली हुई थी, जो हर सांस के साथ सीने में उतरकर चुभती चली जाती थी। सड़क पर खड़े लोग अपने-अपने चेहरों से पसीना पोंछते हुए बस इतना चाहते थे कि सिग्नल जल्दी हरा हो जाए, ताकि वे इस भट्टी से निकलकर कहीं छाँव की तरफ बढ़ सकें। मगर उस भीड़, उस धूप, उस तपिश के बीच एक लड़की थी जो किसी छाँव की तलाश नहीं कर रही थी। वह सुबह से लेकर शाम तक इसी धूप में जलकर अपनी जिंदगी के छोटे-छोटे टुकड़े जोड़ती थी।

उसके हाथ में प्लास्टिक की एक ट्रे थी, जिसमें दस-दस रुपए की ठंडी पानी की बोतलें रखी थीं। उसकी चप्पल का एक फीता टूटा हुआ था, जिसे वह बार-बार खींचकर ठीक करने की कोशिश करती, मगर फीता जैसे उसके हालात की तरह बार-बार उखड़ जाता। उसके चेहरे पर सादगी थी, पर उस सादगी के पीछे छुपी थकान उसकी आंखों को और गहरा बना देती थी। वह हर गाड़ी के पास जाती और धीमी, पर दिल को छू लेने वाली आवाज में कहती—“साहब… ठंडा पानी ले लीजिए… सिर्फ दस रुपए…”

उसकी आवाज में न लाचारी थी, न दया की गुहार—बस एक माँ की मजबूरी थी।
माँ, जिसका नाम था सिया वर्मा

लोग उसे रोज देखते थे—कभी दया से, कभी तिरस्कार से, कभी यूँ ही जैसे सड़क पर चलने वाले किसी आम चेहरे को देखते हैं। पर सिया के लिए यह सड़क उसकी रोज़ी थी, और हर ग्राहक उसके बेटे गोपाल के लिए एक गिलास दूध।

सिग्नल लाल था। गाड़ियाँ पंक्तिबद्ध खड़ी थीं। उसी बीच एक काली चमचमाती Mercedes धीरे-धीरे आकर उसके पास रुकी। गाड़ी की चमक धूप में इतनी तेज थी कि पल भर के लिए सिया की आंखें भी झपक गईं। मगर वह गाड़ी देखकर खुद को अलग नहीं करती थी। उसके लिए हर गाड़ी समान थी—चाहे तिपहिया हो या आलीशान कार।

गाड़ी का शीशा नीचे उतरा। अंदर से एक गहरी, लेकिन बेहद थकी हुई आवाज आई—“एक पानी देना।”

सिया ने तुरंत बोतल आगे बढ़ाई, बिना ऊपर देखे। मगर जैसे ही उसकी आंखें उठीं और सामने बैठे आदमी का चेहरा नजर आया—उसकी सांस अटक गई। उसे लगा जैसे पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई हो। उसका दिल ऐसे धड़क रहा था जैसे कोई उसे मुट्ठी में कसकर पकड़ ले।

वह चेहरा…
वह आवाज…
वह आँखें…

यह वही था।

वह बिना शब्द बोले खड़ी रह गई। बोतल उसके हाथ में ही कांप रही थी।

अंदर बैठे व्यक्ति ने चश्मा उतारा। उनकी नजरें एक-दूसरे से टकराईं—और समय वहीं थम गया।

“सिया…?” उसकी आवाज एकदम धीमी हो गई, जैसे किसी पुराने घाव पर उँगली रख दी हो।
“क्या यह सच में तुम हो?”

सिया ने किसी तरह खुद को संभाला। उसकी आंखों में नमी थी, पर स्वर में मजबूती—“हाँ अर्नव… मैं ही हूँ… बस हालात बदल गए हैं।”

अर्नव चौधरी, वही लड़का जो कॉलेज में उसके साथ हंसता था, जिसके साथ वह कभी बारिश में भीगती गलियों में घूमी थी, जो कहा करता था—“एक दिन मैं बड़ा आदमी बनूंगा, और तुझे हमेशा अपने साथ रखूँगा।”
आज वही अर्नव करोड़ों का मालिक था—और अंदर से टूटा हुआ भी।

दो साल पहले उसकी पत्नी रिया का एक्सीडेंट हुआ था। उस हादसे ने जैसे उसकी हंसी, उसकी रोशनी, उसकी मुस्कुराहट—सब कुछ छीन लिया था। लोग कहते थे—“अर्नव पत्थर बन गया है।”
मगर आज उस पत्थर में एक दरार दिख रही थी।

“तुम… पानी बेच रही हो…?”
यह सवाल पूछते वक्त उसकी आवाज काँप रही थी।

सिया ने हल्की-सी मुस्कान दी—ऐसी मुस्कान, जिसे देख कोई भी समझ जाए कि यह मुस्कान खुशी की नहीं, मजबूरी की आदत है।
“हाँ अर्नव… किसी को तो बेचना ही है। मेहनत में शर्म नहीं होती।”

इस एक वाक्य ने जैसे अर्नव के भीतर कुछ तोड़ दिया।

वह कुछ पल चुप रहा, फिर जेब से पैसे निकालकर बोला—“सारी बोतलें दे दो मुझे।”

सिया चौंक गई।
“इतनी सारी बोतलें क्या करोगे?”

अर्नव ने पहली बार थोड़ा-सा मुस्कुराया।
“प्यास बुझाने के लिए पानी कभी ज़्यादा नहीं होता। किसी रिक्शेवाले को दे दूँगा, किसी मजदूर को… शायद किसी को सच में जरूरत हो आज।”

सिया उसे बस देखती रह गई।
यह वही अर्नव था—संवेदनशील, नरमदिल, और अनकही बातें आंखों में छुपाए हुए।

अर्नव ने सारी बोतलें लीं और वहीं खड़े होकर बांटनी शुरू कर दीं।
लोगों ने आश्चर्य से देखा—
एक करोड़पति आदमी सड़क पर खड़ा होकर राहगीरों को पानी बांट रहा था।
लखनऊ ने शायद ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा था।

कुछ देर बाद सिया पास आई और धीमे स्वर में बोली—
“यह सब करने की क्या वजह है अर्नव?”

वह बोला—“जरूरत नहीं थी। बस दिल ने कहा।”

सिया उस एक वाक्य पर चुप हो गई।
दिल की सुनकर ही तो लोग टूट जाते हैं—उसने मन ही मन सोचा।

जब सिया चली गई, तो अर्नव देर तक वहीं खड़ा उसे जाता हुआ देखता रहा।
धूप में चलती हुई वह लड़की जिसे जिंदगी ने कई बार तोड़ने की कोशिश की थी—मगर वह हर बार फिर उठ खड़ी हुई थी।

उस रात अर्नव को नींद नहीं आई।
जब भी आंखें बंद करता—सिया का चेहरा सामने आ जाता।
उसकी थकान, उसका साहस, उसका टूटा हुआ फीता, उसकी दस रुपए की बोतल…
सब कुछ उसके दिल को कचोट रहा था।

वह सोचता रहा—
जिस लड़की ने इतने दर्द को मुस्कुराकर ढक लिया…
मैं उसके लिए क्या कर सकता हूं?

सुबह उसने एक फैसला लिया—
वह सिया की मदद करेगा।
पर इस तरह कि सिया के आत्मसम्मान को कभी चोट न पहुँचे।

वह फिर उसी सिग्नल पर पहुंचा।
सिया वही थी—वही धूप, वही पसीना, वही आवाज—“साहब… ठंडा पानी…”

उसने फिर बोतलें खरीद लीं।
सिया ने फिर पूछा—“इतना पानी लोग पी नहीं सकते।”
अर्नव बोला—“मैं नहीं पीऊँगा। किसी और को दे दूँगा। किसी की प्यास लगी होगी।”

उसकी हर बात में एक सच्चाई थी, एक आहट थी—जैसे वह किसी गलती को सुधारना चाहता हो जो उसने कभी की ही नहीं।

कुछ दिनों बाद एक एनजीओ की महिलाएँ सिया के पास आईं।
उन्होंने कहा—“हमें बताया गया है कि आप मेहनती हैं। हम चाहते हैं कि आप बच्चों को पढ़ाएँ। तनख्वाह भी मिलेगी।”

सिया हैरान रह गई।
“लेकिन मेरी पढ़ाई तो अधूरी है…”

महिला मुस्कुराई—
“हमें किताबों वाले ज्ञान से ज़्यादा जिंदगी का अनुभव चाहिए। और वह आपके पास है।”

सिया समझ नहीं पाई कि यह सब कैसे हुआ।
दिल के एक कोने में उसे लगा—
इसके पीछे अर्नव का हाथ होगा।
पर उसने कुछ कहा नहीं।

जब शाम को अर्नव आया, सिया ने उसे रोककर पूछा—
“सच बताओ… एनजीओ वालों को मेरे पास किसने भेजा?”

अर्नव मुस्कुराया—
“अगर कह दूँ कि मैं था, तो तुम नाराज़ हो जाओगी। और अगर कह दूँ कि किस्मत थी, तो तुम मानोगी नहीं।”

सिया की आंखें भर आईं—
“अर्नव, मुझे दया नहीं चाहिए। मैं नहीं जीना चाहती किसी के रहम पर।”

अर्नव शांत स्वर में बोला—
“मैं दया नहीं कर रहा सिया… मैं तुझे हक दे रहा हूँ।
जिस इंसान ने जिंदगी से इतनी लड़ाइयाँ लड़ी हों, उसे थोड़ा सुकून मिलना चाहिए।”

कुछ लोग वहां खड़े यह सब सुन रहे थे।
वे धीमे-धीमे फुसफुसाए—
“यही करोड़पति है ना? यही उस विधवा को काम दिलवाता है।”
“अब समझ में आया सब…”

यह सुनकर सिया का चेहरा पीला पड़ गया।
वह तुरंत मुड़कर चली गई—
अर्नव वहीं खड़ा रह गया।
उसके चेहरे पर एक ऐसी चुप्पी थी जिसमें दर्द भी था और एक अनकही हार भी।

उस रात सिया रोती रही।
खुद से पूछती रही—
क्यों आया वह मेरी जिंदगी में दोबारा?
मैंने सब संभाल लिया था, फिर क्यों किसी का सहारा चाहिए?

दूसरी तरफ अर्नव भी बेचैन था।
उसने रिया की तस्वीर उठाई और बोला—
“रिया… काश तुम होती।
मैं किसी पर तरस नहीं कर रहा।
मैं सिर्फ किसी का टूटा हुआ आत्मविश्वास जोड़ रहा हूं…
जैसे कभी किसी ने मेरा जोड़ा था।”

कुछ दिनों तक सिया एनजीओ नहीं गई।
अर्नव बेचैन हो गया।
वह उसके मोहल्ले तक गया।
लोगों की तिरछी नजरें, फुसफुसाते लहजे, हिचकती मुस्कानें—
सब वह अनसुना करता हुआ उसके दरवाजे तक पहुंचा।

सिया ने दरवाजा खोला।
आंखें सूजी हुई थीं।
चेहरा बुझा-बुझा था।
“क्या चाहिए तुम्हें?” उसने कठोर स्वर में पूछा।

अर्नव ने सिर्फ इतना कहा—
“तुम्हारी खैरियत पूछने आया हूं।”

सिया बोली—
“मेरी वजह से लोग मेरा मज़ाक उड़ा रहे हैं।
अब सब कहते हैं कि मैं एक करोड़पति की दया पर ज़िंदा हूं।
तुम्हें पता है, यह सुनकर एक औरत को कैसा लगता है?”

अर्नव का चेहरा गिर गया।
वह कुछ पल चुप रहा, फिर बोला—
“ठीक है सिया।
मैं चला जाऊंगा।
लेकिन याद रखना—
जो मैंने किया वह दया नहीं थी…
वह इंसानियत थी।”

वह चला गया।
और पहली बार, सिया को उसके कदमों की आवाज में उदासी सुनाई दी।

समय बीतता गया।
दोनों एक-दूसरे से दूर होते गए, पर एक-दूसरे की सोच से दूर नहीं हुए।

फिर एक दिन, शाम के वक्त, उसी सिग्नल पर एक भयानक हादसा हुआ।
एक ट्रक के ब्रेक फेल हो गए—और उसने कई गाड़ियों को टक्कर मार दी।
हंगामा मच गया।
खून, चीखें, दौड़ते लोग—हर तरफ अफरातफरी।

सिया भी उसी रास्ते से गुजर रही थी।
और तभी उसकी नजर एक घायल व्यक्ति पर पड़ी—

वह अर्नव था।

वह चीखती हुई उसके पास भागी।
उसका सिर अपनी गोद में रखा।
“अर्नव… आंखें खोलो… देखो मैं यहाँ हूँ…”

अर्नव ने आंखें खोलीं।
हल्की सी मुस्कान आई—
“तुम… आ गई…”

सिया रो पड़ी—
“तुम यहाँ क्यों थे?”

अर्नव ने टूटी सांसों में कहा—
“मैं… हर शाम यहाँ आता था…
यह देखने कि कहीं तुम फिर से वापस तो नहीं आई…”

सिया के आँसू रुक नहीं रहे थे।
“पागल आदमी… अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो?”

अर्नव की आवाज धीमी थी—
“मरना… बहुत पहले शुरू हो गया था सिया…
बस आज शरीर ने साथ छोड़ दिया…”

सिया चीख पड़ी—
“चुप रहो! कुछ नहीं होगा तुम्हें!”

अर्नव ने उसकी आंखों में देखते हुए कहा—
“सिया…
अगर मैं…
ना रहूं…
मेरे ऑफिस की दराज में एक फाइल है…
उसमें स्कूल की सारी जमीन…
एनजीओ के नाम है…
वह स्कूल… तुम्हारे नाम है…
सिया एजुकेशन ट्रस्ट…”

सिया ने सिर हिलाया—
“कुछ मत कहो… तुम्हें कुछ नहीं होगा…”

अर्नव की सांसें धीमी होती जा रही थीं।
वह फुसफुसाया—
“मैंने वो कर लिया…
जो… मुझे करना था…
अब मैं… शांति में हूँ…”

और उसकी आंखें धीरे-धीरे बंद हो गईं।

सिया चीख उठी—
“अर्नव! अर्नव!! आंखें खोलो!!”

लेकिन कोई जवाब नहीं आया।

अस्पताल में डॉक्टर ने कहा—
“हम उन्हें बचा नहीं पाए…”

सिया की दुनिया उस क्षण बिखर गई।
वह उसके ठंडे हाथ को पकड़े बैठी रही—
आंसू गिरते रहे,
पर उस बार आंसुओं में बेबसी नहीं थी…
एक अनकहा प्रेम था,
जो वह कभी कह नहीं पाई थी।

कुछ दिनों बाद शहर भर में खबरे छपीं—
“करोड़पति अर्नव चौधरी ने अपनी पूरी संपत्ति गरीब बच्चों की शिक्षा के नाम कर दी।”

सिया अब उसी स्कूल की प्रिंसिपल थी।
वह हर सुबह बच्चों के बीच खड़ी होती,
और बोर्ड पर लिखती—
“मेहनत ही असली दौलत है।”

जब बच्चे उसे दोहराते,
तो उसके होंठों पर वही मुस्कान लौट आती
जो कभी सिग्नल की धूप में खो गई थी।

स्कूल की दीवार पर अर्नव की तस्वीर लगाई गई।
सिया ने उसके पास दीया रखकर धीरे से कहा—
“तुमने सही कहा था अर्नव…
किसी को दया मत दो…
बस उसका हक लौटाओ…”

और पहली बार उसे लगा—
शायद कहीं ऊपर से,
कोई मुस्कुरा रहा है।

बच्चे प्रार्थना कर रहे थे—
“हम होंगे कामयाब…”

और सिया की आंखों से गिरते आँसू
आज मुस्कुराहट में बदल गए।

लखनऊ का वही सिग्नल,
जो कभी उसकी थकान और गरीबी का गवाह था,
अब बच्चों की हंसी और सपनों की रोशनी से जगमगा रहा था।

कहानी खत्म नहीं हुई थी—
क्योंकि अब सिया हर बच्चे में
अर्नव को देखती थी—
एक ऐसा इंसान
जिसने प्यास किसी की भी बुझाई,
मगर दिल उसी का बुझते-बुझते फिर जल उठा था
केवल उसके लिए।