नायन की घड़ी: एक टूटे परिवार की जुड़ती कहानी

भाग 1: होटल सुदर्शन इन की सुबह
नागपुर शहर के पुराने इलाके में, एक छोटी सी सड़क पर होटल सुदर्शन इन खड़ा था। यह होटल किसी आलीशान इमारत जैसा नहीं था, लेकिन उसकी दीवारों में उम्मीद की गंध थी। होटल के मालिक मोहन भालेराव, उम्र 48 वर्ष, अपनी किस्मत को हमेशा मुस्कुराकर स्वीकार करते थे। पैसे की तंगी, पुराने फर्नीचर, और ग्राहकों की घटती संख्या के बावजूद, मोहन हर सुबह होटल के दरवाजे खोलते वक्त यही सोचते—शायद आज कुछ अच्छा हो जाए।
मोहन के लिए यह होटल सिर्फ कारोबार नहीं था, बल्कि उसकी आखिरी उम्मीद थी। इसी होटल में काम करता था नायन पाटिल, उम्र सिर्फ 12 साल। नायन दुबला, शांत, और हमेशा थोड़ा सहमा हुआ सा दिखता। उसकी आंखों में एक गहरा दर्द तैरता था—जैसे उसने अपनी उम्र से कहीं पहले जिंदगी का कड़वा सच देख लिया हो।
नायन होटल में झाड़ू लगाता, टूटी कुर्सियां ठीक करता और मेहमानों के लिए पानी भरता। कोई उससे पूछता, “डरता क्यों है?” वह हल्की सी मुस्कान देकर अपना काम शुरू कर देता। मगर नायन के पास एक अद्भुत हुनर था—टूटी चीजें उसके हाथ में आते ही मानो खुद ठीक होने लगतीं। मेहमान अक्सर कहते, “यह बच्चा नहीं, मशीनों का डॉक्टर है।” लेकिन असलियत यह थी कि नायन किसी भी चीज को ठीक नहीं कर रहा था, वह उसे समझ रहा था। उसकी उंगलियां पकड़ते ही धातु, पेंच, स्प्रिंग सब जैसे अपनी कहानी उसे बताने लगते।
मोहन को यह हुनर हैरान करता, लेकिन नायन कभी घमंड नहीं करता था। बस चुप रहकर काम करता और उसकी आंखों में हमेशा एक गहरा सवाल छुपा रहता।
भाग 2: पहली मुलाकात—सुरेश गावली की घड़ी
उस दिन शाम के करीब 6:40 बजे थे। होटल के बाहर एक चमचमाती गाड़ी आकर रुकी। उसमें से उतरे सुरेश गावली, उम्र करीब 38 साल, शहर के जाने-माने बिजनेसमैन। उनके घड़ियों का कलेक्शन, महंगी लाइफस्टाइल और तेज दिमाग की चर्चा पूरे नागपुर में थी।
रिसेप्शन पर आते ही मोहन ने मुस्कुराकर स्वागत किया, “स्वागत है सर। कमरा तैयार है।” सुरेश ने सिर हिलाया, लेकिन उनकी नजरें होटल की सादगी को देखकर थोड़ी उलझी हुई थीं। मोहन ने नायन को इशारा किया, “कमरा 204 साफ है ना?” नायन बोला, “जी मालक। बस पानी रख देता हूं।”
सुरेश हल्का सा मुस्कुराए, “मेहनती लड़का है आपका।” मोहन ने गर्व से कहा, “हमारा नायन दिल से काम करता है।”
लेकिन अगले 10 सेकंड में जो हुआ, उसने माहौल को पूरी तरह बदल दिया। जब नायन कमरे की ओर जा रहा था, उसकी नजर सुरेश की कलाई पर पड़ी—एक महंगी विदेशी घड़ी। नायन कुछ सेकंड उसे देखता रहा। फिर बिना हिचक, बिना डर, बिल्कुल धीमी पर साफ आवाज में बोला, “सर, आपकी घड़ी असली नहीं है।”
पूरा रिसेप्शन एकदम खामोश। मोहन का चेहरा सफेद। सुरेश वहीं रुक गए—शॉक्ड, गुस्से और हैरानी के बीच अटके हुए। “क्या कहा तुमने?” सुरेश की आवाज भारी थी।
नायन ने नीचे देखा, फिर धीरे से कहा, “सर, यह घड़ी आप जितनी कीमत बता रहे हैं, उतनी नहीं है।” मोहन ने तुरंत डांटा, “नायन, यह क्या बेहूदगी है? माफ कीजिए सर, यह बच्चा…”
सुरेश ने हाथ उठाकर मोहन को रोक दिया, “नहीं, मैं सुनना चाहता हूं। बच्चा क्यों सोचता है कि मेरी घड़ी नकली है?”
नायन ने घड़ी की ओर देखा। उसकी आवाज कांप रही थी, पर शब्द बिल्कुल साफ, “क्योंकि इसकी बैक की आवाज असली मशीन जैसी नहीं है सर। इसमें अंदर वह कंपन नहीं है जो होती है और सेकंड की टिक भी थोड़ी अटकी हुई है। असली वाले में ऐसा नहीं होता।”
सुरेश ठहाका मारने वाले थे, लेकिन रुक गए। वे धीरे-धीरे अपनी घड़ी उतारते हुए बोले, “इसे पकड़ो।” नायन ने कांपते हाथों से घड़ी पकड़ी। दो सेकंड सुना और बोला, “सर, यह घड़ी किसी और के हाथ में थी और इसे जल्दबाजी में खोला गया है। इसकी एक स्क्रू नहीं है, बाकी पुरानी।”
सुरेश का चेहरा पहली बार बदला—जैसे किसी ने दबा हुआ राज छू लिया हो। मोहन घबरा गया, “बेटा, छोड़ दे घड़ी। सर, माफ कीजिए। इसे घड़ी के बारे में क्या पता?”
सुरेश फुसफुसाए, “इसे पता है, शायद इसे बहुत कुछ पता है।”
भाग 3: नायन का राज
पूरे होटल में एक अजीब सी चुप्पी छा गई। सुरेश ने बेहद धीमी आवाज में कहा, “यह घड़ी मेरे एक बहुत करीबी इंसान ने दी थी। और हां, इसे हाल ही में किसी ने रिपेयर किया था। लेकिन बात यह नहीं है। सवाल यह है कि तुम्हें इतनी गहराई कैसे पता लगी?”
नायन चुप रहा। उसकी उंगलियां घड़ी को पकड़ते हुए थोड़ा कांप रही थीं, जैसे कोई पुरानी याद उसके मन में दर्द बनकर उठ रही हो। सुरेश की निगाहें तेज हो गईं, “बोलो बच्चा, यह हुनर कहां से आया?”
मोहन बेचैन, “सर छोड़िए ना…”
“नहीं मोहन,” सुरेश ने कहा, “इस बच्चे की आंखों में कुछ ऐसा है जो वह हमसे छुपा रहा है।”
होटल का माहौल अचानक भारी हो उठा। नायन ने घड़ी वापस करते हुए बस इतना कहा, “मैंने एक बार ऐसी ही घड़ी खोली थी और…” उसकी आवाज टूट गई।
मोहन ने पहली बार गौर किया—नायन की आंखों में नमी थी। जैसे यह घड़ी किसी पुराने जख्म को छू गई हो। सुरेश धीरे बोले, “किसकी घड़ी थी वो?”
नायन ने होठ भी लिए, कुछ कहना चाहता था, पर जैसे शब्द अटक गए हों। मोहन ने उसके कंधे पर हाथ रखा, “बेटा, बोलने का मन ना हो तो मत बोल।”
सुरेश ने गहरी सांस ली, “मोहन, मैं कल दोपहर फिर आऊंगा। इस बच्चे से दो मिनट अकेले बात करनी है। मुझे इसके भीतर छिपा सच जानना है।”
सुरेश चले गए। पर उनके जाने के बाद भी हवा भारी थी। जैसे कमरा कुछ पूछ रहा हो। मोहन ने नायन को देखा, “बेटा, तू ठीक है?” नायन ने बस सिर हिलाया। लेकिन मोहन समझ गया—यह सिर्फ हुनर नहीं, यह दर्द है और शायद एक ऐसा राज है जिसे नायन किसी से बांटना नहीं चाहता।
भाग 4: रात की तन्हाई
रात जब होटल की लाइटें बंद हुईं, नायन अकेले कोने में बैठा था। उसकी उंगलियां अभी भी उसी घड़ी की कंपट महसूस कर रही थीं और उसकी आंखों में वही पुरानी याद चमक रही थी। एक ऐसी याद जो उसके जीवन को हमेशा के लिए बदल चुकी थी और शायद सुरेश का आना कोई संयोग नहीं था।
रात भर मोहन की नींद नहीं आई। वह करवटें बदलता रहा। मन में बस एक ही सवाल घूमता रहा—आखिर नायन ने एक महंगे बिजनेसमैन की घड़ी को देखते ही कैसे पहचान लिया? और उसकी आंखों में जो डर, जो पुराना दर्द तैर गया था, वह किस बात का था?
भाग 5: अगली सुबह—सुरेश की वापसी
सुबह होटल हमेशा की तरह जल्दी खुल गया। नायन चुपचाप पोछा लगा रहा था, लेकिन उसकी उंगलियां पहले जितनी स्थिर नहीं थीं। पानी की बाल्टी उठाते समय वह कुछ पलों के लिए रुक जाता, जैसे यादें उसके हाथ रोक लेती हों। मोहन दूर से उसे देख रहा था और पहली बार उसे एहसास हुआ—यह बच्चा अपनी उम्र से कहीं भारी बोझ उठा रहा है।
सुबह 10:00 बजे के करीब होटल में हलचल बढ़ी। दो लोग कमरे 204 की चाबी मांग रहे थे। किचन में गरमागरम पराठों की खुशबू फैल रही थी और रिसेप्शन बेल की टन टन होटल में जैसे जान डाल रही थी। पर इन सबके बीच नायन किसी और ही दुनिया में खोया था। उसे मालूम था—आज सुरेश फिर आने वाले हैं और उसके मन में जितना वह इस बात से डर रहा था, उतना ही उसका मन चाहता था कि शायद आज वह बोल सके। शायद उसके भीतर छुपा सच आखिर किसी के सामने आ जाए।
करीब 2:00 बजे एक काली गाड़ी होटल के सामने आकर धीरे से रुकी। मोहन ने खिड़की से देखा—सुरेश काले चश्मे में, साफ-सुथरी शर्ट में, उसी गंभीर चेहरे के साथ नीचे उतर रहे थे। उनके हाथ में वही घड़ी थी। लेकिन आज वे उसे पहनकर नहीं, पकड़ कर आए थे। जैसे उस घड़ी में छुपी कहानी अब उनकी भी नींद चुरा चुकी थी।
रिसेप्शन पर आते ही उन्होंने सबसे पहला सवाल पूछा, “नायन कहां है?”
मोहन ने गहरी सांस ली, “सर, वह पीछे स्टोर में है। लेकिन कृपया उससे कुछ ज्यादा मत पूछिएगा। वह बच्चा डर जाता है।”
सुरेश ने शांत लेकिन तीखे स्वर में कहा, “मोहन, मैं उसे डराने नहीं आया। मैं सिर्फ समझना चाहता हूं कि उसके भीतर ऐसा क्या है जो दुनिया नहीं देख पा रही।”
मोहन मन ही मन गुस्सा दबाते हुए बोला, “वह बच्चा टूटी चीज ठीक कर लेता है सर। इसका मतलब यह नहीं कि वह कोई जादूगर है।”
सुरेश ने बीच में कहा, “लेकिन उसकी आंखों में एक कहानी है। और मैं वह कहानी सुनना चाहता हूं।”
भाग 6: सच का सामना
सुरेश धीरे-धीरे स्टोर रूम की ओर चले, जहां नायन पुराने टूलबॉक्स को साफ कर रहा था। कमरे में पुरानी तारों, टूटे बल्बों और बांसी लकड़ी की गंध फैली थी—जैसे किसी भूली याद की चुप्पी।
सुरेश कुछ पल दरवाजे पर खड़े रहे, फिर बोले, “नायन।”
बच्चा चौंक कर मुड़ा, “जी सर।”
“डर मत,” सुरेश ने नरम आवाज में कहा, “बस दो बात पूछूंगा।”
नायन ने सिर हिलाया, पर उसकी आंखें फिर वहीं डर दिखाने लगीं—गहरी, छिपी और घावों से भरी।
सुरेश आगे बढ़े और मेज पर अपनी घड़ी रख दी, “यह घड़ी कल तुमने कहा था कि असली नहीं है। तुमने यह कैसे जाना?”
नायन ने सांस खींची, कुछ पल खामोश रहा। फिर बोला, “सर, चीजें आवाज से खुद बता देती हैं। इस घड़ी के अंदर वाला रिंग बहुत हल्का है। यह असली वाली घड़ी के जैसी गूंज नहीं देता।”
सुरेश ने देखा—नायन बात करते वक्त घड़ी को नहीं, जमीन को घूर रहा था, जैसे असली वजह कुछ और हो।
“और वो स्क्रू?” सुरेश ने पूछा।
नायन की उंगलियां कांप गईं, उसकी आवाज धीमी पड़ गई, “वो… वो इसलिए कि ऐसा स्क्रू मैंने पहले भी देखा है।”
“कहां?” सुरेश की आवाज अब बेहद धीमी थी, जैसे उन्हें कुछ भारी बात की आहट हो।
नायन ने पहली बार सीधे उनकी तरफ देखा—आंखें भर आई थीं, पर वह बोल रहा था, “एक आदमी था सर, जो हर चीज जोड़ता, ठीक करता, पर अपनी जिंदगी नहीं जोड़ पाया। उसके पास भी ऐसी ही घड़ी थी। मैं… मैं उसकी घड़ी खोलता रहता था। वही स्क्रू, वही आवाज, वही हल्की सी दरार।”
सुरेश आगे झुके, “वह आदमी कौन था नायन?”
और यहीं नायन की सांस अटक गई। गला भारी हो गया, इतना भारी कि शब्द निकलना मुश्किल हो गया। फिर भी उसने बोला, “वो मेरे बाबा थे।”
मोहन जो पीछे खड़ा सुन रहा था, उसका दिल जैसे धक से रुक गया। नायन बेटा तूने कभी…
लेकिन बच्चा अब बोल रहा था और उसकी आवाज में सालों का दबा दर्द था, “मेरे बाबा घड़ी रिपेयर करते थे सर, छोटी-छोटी चीजें जोड़ते, बनाते, और मैं उनके पास बैठकर सब देखता। उन्होंने कहा था, ‘नायन, चीजें टूटती हैं, पर अगर ध्यान से सुनो तो बता देती हैं कि उन्हें ठीक कैसे होना है।’”
सुरेश का चेहरा नरम पड़ने लगा, “फिर क्या हुआ?”
नायन की आवाज एकदम धीमी, टूटी हुई, “एक रात बहुत बड़ा झगड़ा हुआ था घर में। मैं सोया हुआ था। बाबा कहीं जाने लगे और जाते हुए वह घड़ी मेरे पास रख गए। सुबह मोहल्ले वाले आए और बोले कि बाबा नहीं रहे।”
हवा जैसे कमरे में भारी हो गई। मोहन की आंखें भर आईं। उसे पहली बार समझ आया कि यह बच्चा हमेशा इतना चुप क्यों रहता था।
भाग 7: घड़ी का राज और नए संकेत
नायन आगे बोला, “उस दिन से मैं आवाज सुनकर समझ जाता हूं कि चीज टूटी है या जुड़ी है। क्योंकि मैं बाबा की दी हुई आखिरी चीज को रोज खोलकर देखता था। वही स्क्रू, वही आवाज, वही कमी इस घड़ी में भी थी। इसलिए मैंने बोल दिया।”
सुरेश कुछ पल चुप रहे। उनके चेहरे पर गुस्सा, दुख, हैरानी सब कुछ मिलकर एक अजीब सी गंभीरता बना रहे थे। फिर उन्होंने कुछ कहा ऐसा, जो मोहन और नायन दोनों को हिला गया।
“नायन, जिस आदमी ने मेरी घड़ी ठीक की थी, उसका नाम भी पाटिल था।”
कमरा जैसे जम गया। नायन की सांसे तेज हो गईं, “कौन… कौन पाटिल?”
सुरेश ने मेज पर उंगलियां रखते हुए कहा, “मुझे पूरी तरह याद नहीं, लेकिन कारीगर का नाम वसंत पाटिल था।”
नायन की आंखें फैल गईं, चेहरा पीला पड़ गया, हाथ कांपने लगे। वह धीमे से बोला, “वो… वो मेरे बाबा का नाम है।”
मोहन के पैरों तले जमीन खिसक गई, “क्या मतलब… यह घड़ी?”
सुरेश ने सिर हिलाया, “हां मोहन, यह घड़ी उसी दुकान में ठीक करवाया गया था, जहां नायन के पिता काम करते थे।”
नायन घड़ी को डर और हैरानी के बीच देखता रहा, जैसे अचानक उसके सामने कोई छिपा दरवाजा खुल गया हो।
भाग 8: खोया हुआ पिता
सुरेश ने गहरी आवाज में कहा, “और एक बात और है नायन, यह घड़ी मुझे किसी और ने दी थी। लेकिन उसने मुझसे कहा था, इसे संभाल कर रखना, कभी काम आएगी।”
नायन ने कांपती आवाज में पूछा, “किसने दी थी सर?”
सुरेश ने सीधे नायन की आंखों में देखा, “नाम नहीं जानता, लेकिन उसने कहा था कि वह तुम्हारे बाबा को बहुत अच्छे से जानता है।”
हवा भारी हो गई। इतनी भारी कि सांस लेना मुश्किल लगे। यही जगह, यही क्षण और यही घड़ी। शायद किसी बहुत बड़े राज की शुरुआत थी।
सुरेश ने धीरे कहा, “नायन, जिस आदमी ने यह घड़ी मुझे दी थी, उसने सिर्फ इतना कहा था—अगर किसी दिन यह घड़ी किसी बच्चे को कुछ याद दिलाए, तो उसका हाथ मत छोड़ना।”
मोहन की सांसे भारी हो गईं, “सर, किसने कहा था यह? आखिर वह आदमी कौन था?”
सुरेश ने आंखें बंद की, कुछ पल यादों में डूबे, फिर बोलना शुरू किया, “तीन साल पहले मैं पुणे गया था। मेरे एक दोस्त की दुकान थी घड़ियों की। वहीं एक आदमी आया था—चुप, शांत, लेकिन आंखों में बहुत थकान। उसने मुझे यह घड़ी दी और कहा, ‘यह घड़ी आपके काम आएगी। बस इसे संभाल कर रखिए। और अगर कभी किसी बच्चे ने इसे देखकर कुछ कहा, तो समझना कि बात सिर्फ घड़ी की नहीं, उससे जुड़े सच की है।’”
सुरेश फिर रुके, “वह आदमी अपना नाम नहीं बता रहा था। बस इतना बोला कि वह नागपुर से आया है और किसी से मिलकर वापस जाना है।”
नायन की धड़कनें तेज होने लगीं, “सर, मेरे बाबा तो…”
उसकी आवाज टूट गई। मोहन आगे बढ़ा, “बेटा, तू कह रहा था कि मोहल्ले वालों ने बताया था कि तेरे बाबा नहीं रहे। क्या तूने खुद…”
नायन ने सिर हिलाया, “ना, नहीं। मुझे किसी ने दिखाया नहीं। मुझे बस कहा गया कि बाबा चले गए।”
कमरे में सन्नाटा फैल गया। सुरेश ने मेज पर उंगलियां रखी, “नायन, जो आदमी मुझसे मिला था, उसने कहा था कि वह बहुत मुश्किल में है। उसने यह भी कहा कि अगर मैं कभी नागपुर जाऊं, तो होटल सुदर्शन इन देखूं और देखूं क्या वहां कोई बच्चा है जो टूटी चीजें ठीक करता है।”
मोहन और नायन दोनों के रोंगटे खड़े हो गए। सुरेश ने घड़ी नायन के हाथ में रखी, “मुझे तब समझ नहीं आया कि वह कौन है और क्यों यह बातें कह रहा है। लेकिन आज तुम्हारी आंखें देखकर, तुम्हारी बातें सुनकर मुझे शक हो रहा है कि शायद…”
नायन ने कांपती आवाज में पूछा, “शायद क्या सर?”
सुरेश का गला भारी था, “शायद तेरे बाबा जिंदा हैं।”
भाग 9: तलाश—शांतिनगर का सुराग
नायन की सांस अटक गई, घड़ी उसके हाथ से गिरते-गिरते बची। मोहन ने हाथ पकड़ लिया, “बेटा, होश में रह।”
नायन फुसफुसाया, “पर वो मुझे छोड़कर क्यों जाते? वो मुझे बताए बिना क्यों…”
उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। मोहन ने उसे सीने से लगा लिया, “बेटा, कभी-कभी बड़े लोग अपनी मजबूरियों के सामने टूट जाते हैं। हो सकता है, तेरे बाबा किसी बड़ी मुसीबत में फंस गए हों।”
सुरेश ने कहा, “और उसने तुमसे मिलने का एक ही तरीका छोड़ा—यह घड़ी। शायद वह चाहता था कि तुम इसे पहचानो। शायद वह जानता था कि तुम ही इसे खोलकर सच तक पहुंचोगे।”
नायन घड़ी को कसकर पकड़ कर बोला, “सर, वह आदमी कैसा देखता था? उसकी आवाज कैसी थी? क्या… क्या वह चलने में थोड़ा धीमे थे? क्या… क्या उनकी आंखें…”
सुरेश ने धीरे कहा, “हां, उसकी आंखों में बहुत गहराई थी और वह चल थोड़ा धीमे था, जैसे कोई पुराना दर्द हो।”
नायन के पैरों से जमीन खिसक गई, “बाबा…”
मोहन ने तुरंत कहा, “सर, हमें यह पता करना होगा कि वह आदमी अब कहां है।”
सुरेश ने सिर हिलाया, “मेरे पास उसका ठीक पता नहीं। लेकिन जिस दिन उसने मुझे घड़ी दी, मैंने देखा था कि वह रेलवे स्टेशन की तरफ गया था।”
नायन ने मोहन का हाथ कसकर पकड़ा, “मालिक, मुझे बाबा को ढूंढना है। यह घड़ी… यह सब यूं ही नहीं हो सकता।”
मोहन तुरंत बोला, “बेटा, हम तीनों साथ चलते हैं। चाहे वह कहीं भी हो, हम उसे ढूंढेंगे।”
भाग 10: नागपुर स्टेशन और शांतिनगर
उसी शाम तीनों—मोहन, सुरेश और नायन—नागपुर रेलवे स्टेशन पहुंचे। स्टेशन की भीड़, आवाजें, भागती ट्रेनें, सब कुछ एक अजीब सी बेचैनी के साथ नायन के दिल में उतर रहा था। कुछ मिनट तक वे लोग पूछताछ करते रहे। किसी को याद नहीं था, किसी ने ध्यान नहीं दिया था। वे तीनों थक कर प्लेटफार्म पर बैठ गए।
नायन घड़ी को घूर रहा था, जैसे वहीं उसके बाबा की निशानी हो। तभी अचानक उसकी नजर घड़ी की बैक कवर पर गई। एक बेहद हल्की खरोच थी, बहुत बारीक, जैसे किसी ने वहां कुछ लिखा हो और समय ने उसे लगभग मिटा दिया हो।
नायन ने धीरे से उंगली फेरी। अक्षर साफ नहीं थे, पर लगता था जैसे वहां एक शब्द था। नायन ने फुसफुसाया, “मालिक, सर, यहां कुछ लिखा है।”
सुरेश झुके, “क्या?”
नायन ने घड़ी को स्टेशन की रोशनी में आगे किया और धीरे से बोला, “यह जगह का नाम लगता है…”
मोहन ने पूछा, “कौन सा नाम?”
नायन ने आंखें चौड़ी करते हुए कहा, “शांतिनगर… यह लिखा है सर, बहुत हल्का पर लिखा हुआ है।”
मोहन तुरंत उठ खड़ा हुआ, “नागपुर में एक शांतिनगर है, स्टेशन से करीब 3 किमी दूर।”
सुरेश ने कहा, “हो सकता है वही जगह हो, जहां वह आदमी गया होगा।”
नायन की सांसे तेज हो गईं, “चलो मालिक, अभी चलो।”
तीनों तुरंत वहां से निकल पड़े। ऑटो से वे शांतिनगर पहुंचे। जगह पुरानी थी—तंग गलियां, हल्की रोशनी, पुराने मकान। नायन हर घर को ऐसे देख रहा था जैसे उसकी आंखें किसी आवाज, किसी छिपे निशान को खोज रही हों।
वे लगभग 20 मिनट घूमते रहे, पर कुछ नहीं मिला। नायन का दिल बैठता जा रहा था। तभी एक बुजुर्ग ने उन्हें रोका, “किसे ढूंढ रहे हो?”
सुरेश ने कहा, “यह बच्चा अपने पिता को ढूंढ रहा है—घड़ी रिपेयर करने वाला आदमी। शायद यहां कभी रहता था।”
बुजुर्ग ने थोड़ा सोचा, फिर बोले, “हां, कुछ महीनों पहले एक आदमी यहां आया था—शांत सा, दिन में कम निकलता था, रात को घड़ी और औजारों की आवाज आती थी उसके कमरे से। लोग उसे घड़ी वाला कहते थे।”
नायन का दिल धड़कना बंद जैसा, “वह कहां है?”
बुजुर्ग बोले, “वह आदमी कुछ दिन पहले यहां से चला गया। कहा, ‘मेरा काम पूरा हुआ, अब मुझे अपने बेटे को ढूंढना है।’”
तीनों के पैरों तले जमीन खिसक गई।
भाग 11: धारणी—मां की यादें
बुजुर्ग बोले, “उसने कहा था—अगर कभी कोई बच्चा मुझे ढूंढने आए, तो उसे बता देना कि मैं वहीं जाऊंगा, जहां उसकी मां आखिरी बार गई थी।”
नायन जैसे पत्थर बन गया, उसने धीमे से कहा, “मेरी मां मेरे 5 साल का होने पर गुजर गई थी। उनका गांव था धारणी।”
मोहन ने उसी पल कहा, “बस, हमें वहीं जाना होगा।”
सुरेश बोला, “हां।” और अगले ही दिन सुबह तीनों धारणी के लिए रवाना हुए।
रास्ता शांत था, पर नायन के भीतर तूफान चल रहा था—चाहे खुशी हो, डर हो या उम्मीद, उसे खुद नहीं पता।
गांव पहुंचकर वे सीधे नदी किनारे की तरफ गए, जहां नायन की मां का अंतिम संस्कार हुआ था। वहां एक छोटा सा पेड़ था—सूखा, लेकिन उसकी शाखों में अजीब सी गर्मी थी। और ठीक उस पेड़ के पास एक आदमी बैठा था—साधारण कपड़े, थका हुआ शरीर, और चेहरे पर वही गहराई जो नायन की आंखों में थी।
भाग 12: मिलन और माफी
नायन के कदम रुक गए। मोहन और सुरेश ने धीरे से पीछे हटकर जगह छोड़ दी। आदमी ने मुड़कर देखा और जैसे दुनिया रुक गई। उसकी आंखों में वही कंपन, वही कंपकंपी जो नायन महसूस करता था।
आदमी फुसफुसाया, “नायन…”
नायन की आंखों से आंसू फूट पड़े, “बाबा…”
आदमी उठ भी नहीं पाया, घुटनों पर ही गिर पड़ा, “मुझे माफ कर दे बेटा। मजबूरी थी। मैं तुझे लेकर भाग नहीं सकता था। मैं तुझे खतरे में नहीं डाल सकता था, इसलिए चला गया। लेकिन हर दिन, हर रात सिर्फ तू ही दिमाग में था।”
नायन भागता हुआ उसके गले लगा, “बाबा, आप क्यों गए थे?”
वसंत पाटिल रोते हुए बोले, “क्योंकि मैं जिन लोगों के लिए घड़ियां ठीक करता था, वे मुझे धमका रहे थे। मैं तुझे बचाना चाहता था।”
सुरेश और मोहन दूर खड़े इस दृश्य को देखते रहे—किस्मत ने अपनी सबसे गहरी टूटन को आज जोड़ दिया था।
नायन ने बाबा के हाथ पकड़ कर कहा, “अब आप कहीं नहीं जाएंगे। हम साथ रहेंगे।”
बाबा ने सिर हिलाया, “हां बेटा, अब कभी नहीं।”
हवा में शांति थी। सूरज ढल रहा था और एक टूटा हुआ परिवार आखिर जुड़ गया।
भाग 13: नई शुरुआत
वसंत पाटिल ने नायन से कहा, “बेटा, तेरी मां की आखिरी इच्छा थी कि तू बड़ा होकर ईमानदारी से जीए। मैंने तुझे दूर किया, पर तुझे कभी खुद से दूर नहीं किया।”
मोहन ने मुस्कुराकर दोनों को गले लगाया, “अब तुम्हारा घर मेरे होटल में है।”
सुरेश ने घड़ी नायन को दी, “यह अब तुम्हारी है।”
नायन ने घड़ी को देखा, उसमें अब कोई दरार नहीं थी—वह पूरी हो गई थी, जैसे उसका जीवन अब जुड़ गया हो।
सीख
यह कहानी हमें सिखाती है कि कभी-कभी टूटे रिश्तों को जोड़ने में वक्त, दर्द और हिम्मत लगती है। लेकिन अगर दिल में सच्चाई और उम्मीद हो, तो हर घड़ी, हर किस्सा जुड़ सकता है।
अगर आपको यह कहानी पसंद आई हो, तो इसे जरूर साझा करें, ताकि इंसानियत, सच्चाई और उम्मीद का संदेश हर दिल तक पहुंचे।
(यह कहानी आपके मूल विचार पर आधारित है, उपन्यासिक विस्तार, भावनात्मक संवाद और सामाजिक संदेश के साथ। अगर आपको और विस्तार, या किसी पात्र की मनोस्थिति और गहराई चाहिए, तो कृपया बताएं।)
News
इंद्रेश महाराज की शादी: भक्ति, जिम्मेदारी और समाज के बदलते दृष्टिकोण का एक संदेश
इंद्रेश महाराज की शादी: भक्ति, जिम्मेदारी और समाज के बदलते दृष्टिकोण का एक संदेश परिचय धर्म और भक्ति के मंच…
नेकी का पेड़: बहादुर सिंह की कहानी
नेकी का पेड़: बहादुर सिंह की कहानी भाग 1: दिल्ली की धड़कन और बहादुर का जीवन दिल्ली, वह शहर जो…
धर्मेंद्र के निधन के बाद सोशल मीडिया पर हेमामालिनी की सेहत को लेकर अफवाहें: सच्चाई क्या है?
धर्मेंद्र के निधन के बाद सोशल मीडिया पर हेमामालिनी की सेहत को लेकर अफवाहें: सच्चाई क्या है? प्रस्तावना बॉलीवुड के…
💔 पापा, आपने मुझे सड़कों पर क्यों छोड़ा?
💔 पापा, आपने मुझे सड़कों पर क्यों छोड़ा? (एक बेटी का सवाल जिसने इंसानियत को झकझोर दिया) सुबह के सात…
“इज्जत की उड़ान” — एक सच्ची नेतृत्व की कहानी
“इज्जत की उड़ान” — एक सच्ची नेतृत्व की कहानी शाम के 6:30 बजे थे। पुणे इंटरनेशनल एयरपोर्ट की चमकती रोशनी…
न्याय की आवाज़ – आरव और इंसाफ की कहानी
न्याय की आवाज़ – आरव और इंसाफ की कहानी दोपहर का वक्त था।सूरज आग उगल रहा था।शहर की भीड़भाड़ भरी…
End of content
No more pages to load






