नेकी का लौटता सिला: सड़क पर भीख माँगता एक बेटा और किस्मत का करिश्मा
रामलाल कभी मशहूर कारीगर हुआ करते थे, उनकी उंगलियों के जादू से लकड़ियों में जान आ जाती थी। पर अब एक लाइलाज बीमारी ने उन्हें खाट पर गिरा दिया। सरकारी अस्पतालों में दवा मुफ़्त मिले न मिले, डॉक्टर की बात दिल घुमा देती थी—“अच्छा खाना दिलाओ, महंगी दवा लाओ, वरना ये बचेंगे नहीं।” कौन समझाता डॉक्टर साहब को कि अच्छा खाना उन जैसे घर में सपना है—जहाँ कई रातें सिर्फ पानी पीकर कटती हैं।
राजू की दुनिया सिमट कर बाबूजी की खाँसी और जर्जर झोपड़ी तक रह गई थी। माँ तो उसे तब छोड़ गई थी जब वह बहुत छोटा था। अब वो सोचता, “अगर बाबूजी बच गए, तो मैं किसी चीज की चाहत नहीं करूँगा।” लेकिन पैसे कहाँ से आते?
एक फैसला, एक इम्तिहान
दिल छोटा, लेकिन ज़िद बड़ी थी। राजू ने सोचा—चाय की दुकान पर जाऊँगा, होटलों में झूठे बर्तन धो लूँगा… मगर हर जगह से भगा दिया गया, “तू अभी बच्चा है, यहाँ काम नहीं मिलेगा!” आखिरकार, जब पेट की आग और बाबूजी की खाँसी असहनीय हो गई, तो उसे मंदिर के बाहर बैठे भिखारियों की याद आई। मन में गहरी झिझक थी—“बाबूजी ने कहा था बेटा, मर जाना पर किसी के सामने हाथ मत फैलाना…”
लेकिन ज़िंदगी जब मौत की दहलीज पर ठिठक जाए, तब इंसान सबकुछ भूल जाता है। एक रात वो फुटपाथ पर खूब रोया, और तय किया—भले बाबूजी से झूठ बोलूँ, पर उनके लिए भीख तो माँगूंगा। अगली सुबह बाबूजी से कह आया, “आज सेठजी ने अपनी दुकान पर काम दे दिया बाबूजी…” रामलाल ने सिर पर हाथ फेरा और बोला, “शाबाश बेटा! मेहनत और ईमानदारी से काम करना…”
मासूमियत का इम्तिहान
राजू उस दिन से मुंबई के ट्रैफिक सिग्नल, मंदिर और भीड़भाड़ वाली जगहों पर भीख माँगने लगा। लोग तिरस्कार से देखते, कोई गुस्से से डाँटता, कोई अपनी गाड़ी में शीशा चढ़ा लेता। पर कुछ बूढ़ी अम्मा ने कभी 5 रुपये दे दिए, कोई गाड़ीवाला कभी बिस्किट फेंक जाता। जो मिलता, उससे दवा और फल खरीदता—बाकी पुरानी टिन के डिब्बे में बचाकर रखता।
राजू हर दिन बाबूजी से कहता, “सेठ क्या अच्छे हैं! बहुत ख़याल रखते हैं।” रामलाल उसकी बात पर यकीन कर के जीने की हिम्मत जुटा लेते। उधर, राजू कि सेहत गिरती जा रही थी—पर एक ज़िद थी, बाबूजी को हँसता देखूँ।
किस्मत का करिश्मा
एक बरसाती शाम, कई घंटे भींगने के बाद भी हाथ खाली थे। रोते-रोते वह बांद्रा के एक ऑफिस के नीचे खड़ा था, तभी एक महंगी कार रुकी। उसमें से निकला पचास की उम्र का, गुस्सैल चेहरा—विक्रम सिंघानिया, शहर का नामी बिजनेसमैन। उतरते हुए उनका पर्स गिर गया, उन्हें खबर भी ना हुई। राजू की नजर गई—पर्स नोटों से भरा था! दिल गवाही नहीं दे रहा था; यही मौका है! बाबूजी का इलाज, नई ज़िंदगी… मगर अगले ही पल अंदर से आवाज़ आई—“बाबूजी ने कहा था, हराम का एक पैसा मत लेना…”
पर्स उठाकर पल भर वह बैठा, फिर इंतज़ार करने लगा। बारिश थम गई, रात हो गई। तीन घंटे बाद विक्रम बाहर आये, परेशान चेहरे से। राजू उनके पास पहुंचा, “साहब, आपका बटुआ गिरा था।” विक्रम ने ज्यों ही चैक किया—सब नगद, कार्ड, आईडी सही। आँखे बड़ी हो गईं। “बेटा, इतना पैसा देखकर…”
राजू ने मुंह मोड़ लिया, “पैसे नहीं चाहिए, साहब, बस दुआ चाहिए। बाबूजी बहुत बीमार हैं…” दिल पसीज गया विक्रम का। पूछा, “क्या हुआ तुम्हारे बाबूजी को?” राजू की कहानी सुनकर, अचानक विक्रम जैसे समय में पीछे लौट गए।
बीते वक्त की गूँज
बीस साल पहले, विक्रम एक छोटे ठेकेदार थे। एक दिन एक बढ़ई ने उन्हें मरते-मरते बचा लिया—वही रामलाल! हाथ कुचल गया, मगर उसने जान बचा ली विक्रम की। विक्रम पहचान गए, “तुम रामलाल के बेटे हो?” आँसू बहते चले गए—“आज तुमने मेरी जान नहीं, इंसानियत लौटा दी…”
विक्रम ने राजू और रामलाल को फौरन अपनी गाड़ी में बिठाया। रामलाल को बड़े अस्पताल में भर्ती कराया, बड़े डॉक्टर, बढ़िया खाना, सारी दवा—कुछ भी बाकी नहीं छोड़ा। राजू को नामी स्कूल में दाखिला दिलवाया; घर के लिए शानदार फ्लैट दिया। उन्होंने राजू को गले से लगाकर कहा, “आज से तुम मेरे बेटे हो बेटा…”
पूरा होता करिश्मा
रामलाल ऑपरेशन के बाद ठीक हुए; विक्रम ने उन्हें अपनी कंपनी में कारीगरों का मुखिया बना दिया। राजू, जो कल तक भीख माँग रहा था, आज पढ़ाई में तेज और आत्मविश्वास से लबरेज़ था; उसका सपना था एक दिन अपने पापा की तरह हुनरमंद और अपने “नए पापा” की तरह दयालु बनना।
आज जब लोग राजू की कहानी सुनते, तो कहते—“नेकी का छोटा सा बीज, समय आने पर विशाल वटवृक्ष बनता है।” कभी-कभी ईमानदारी सबको चौंका जाती है, और किस्मत दो बार जीवन का हिसाब-किताब बिलकुल सही बैठाती है।
सबक और सवाल
अगर आप राजू की जगह होते तो क्या करते? क्या जरा-सी मजबूरी में भी चुपके से वह पैसा रख लेते? सोचिए, अच्छाई और ईमानदारी की चमक किस तरह इतिहास बदल सकती है।
अगर यह कहानी आपके दिल को छू गई—लाइक करें, दोस्तों के साथ शेयर करें और कमेंट करें कि आपके जीवन की सबसे बड़ी नेकी कौन सी रही।
नेकी लौटकर आती है—बस उसपर विश्वास रखना चाहिए।
जय हिंद!
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