बरसात की रात का आसरा
बरसात की वह काली रात थी। आसमान से लगातार मूसलाधार बारिश गिर रही थी। गाँव कृष्णपुर की गलियों में पानी भर चुका था, बिजली भी चली गई थी। हर कोई अपने-अपने घरों में दुबका बैठा था, लेकिन उसी अंधेरे और सन्नाटे में एक औरत अपने छोटे बेटे को गोद में लिए गलियों में भटक रही थी। उसका नाम था राधा। उम्र मुश्किल से पच्चीस-छब्बीस साल। चेहरे पर थकान और आँखों में डर। कपड़े भीग चुके थे, बाल बिखर गए थे और ठंड से कांपती हुई वह बस अपने बेटे आरव को सीने से लगाए चल रही थी।
आरव की छोटी आँखों में भूख और डर दोनों थे। वह बार-बार अपनी माँ से लिपट जाता, “माँ, मुझे बहुत भूख लगी है। कुछ खाने को दो।” राधा के पास देने को कुछ नहीं था। जेब में एक भी रुपया नहीं, पेट में रोटी नहीं और सिर पर छत नहीं। वह बस अपने बच्चे को बचाने के लिए आगे बढ़ती रही। उसके आँसू बारिश में मिलकर बहते जा रहे थे। पर हार मानना उसके बस में नहीं था। उसे पता था, अगर वह टूट गई तो उसका बेटा इस रात को पार नहीं कर पाएगा।
भटकते-भटकते राधा गाँव के बीचोंबीच एक पुरानी हवेली के सामने आ पहुँची। हवेली कई सालों से वीरान पड़ी थी। उसके दिल में डर था—क्या दरवाजा खुलेगा? क्या कोई मदद करेगा? या फिर उसे और उसके बेटे को बाहर ही छोड़ दिया जाएगा?
मजबूरी इंसान को हर डर से पार करा देती है। राधा ने कांपते हाथों से हवेली का भारी लकड़ी का दरवाजा खटखटाया। बहुत धीमी आवाज में बोली, “साहब, हमें अंदर आने दीजिए। मेरे बच्चे को बचा लीजिए। बस एक रात की पनाह चाहिए।” उसकी आवाज इतनी कमजोर थी कि बारिश के शोर में मुश्किल से सुनाई दे रही थी।
कुछ पल तक सन्नाटा रहा। राधा का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। फिर धीरे-धीरे कदमों की आहट सुनाई दी। दरवाजा चरमराता हुआ खुला और सामने खड़ा था एक लंबा चौड़ा आदमी—विजय सिंह। उम्र करीब चालीस साल। चेहरे पर गहरी रेखाएं, आँखों में थकान। विजय ने राधा और उसके बेटे को ऊपर से नीचे तक देखा। उसके चेहरे पर दया और संवेदना झलक रही थी। उसने दरवाजा पूरा खोल दिया, “अंदर आ जाओ, बाहर ठंड लग जाएगी।”
राधा की आँखों से राहत के आँसू बह निकले। उसने बेटे को सीने से लगाकर हवेली के अंदर कदम रखा। अंदर चारों ओर वीरानी थी। दीवारों पर धूल, सामान बिखरा पड़ा था। लेकिन कम से कम अब बारिश और ठंड से तो छुटकारा मिल गया था।
विजय ने कहा, “तुम लोग यहाँ बैठो। मैं कुछ लेकर आता हूँ।” वह रसोई में चला गया। राधा और आरव एक पुराने सोफे पर बैठ गए। बच्चा अभी भी कांप रहा था। राधा उसे अपनी साड़ी से ढकने लगी। उसके मन में सवाल घूम रहे थे—क्या यह आदमी सच में मदद करेगा या कोई शर्त रखेगा?
कुछ देर बाद विजय लौटा। उसके हाथ में एक साधारण थाली थी—दो रोटियाँ और थोड़ा सा सब्जी। उसने वो थाली बच्चे के सामने रखते हुए कहा, “बेटा, खा लो। माँ को भी दे दो।” आरव ने पहले माँ की ओर देखा, फिर जल्दी-जल्दी खाना खाने लगा। हर निवाले के साथ वह रो भी रहा था, जैसे कई दिनों की भूख अब टूट रही हो।
राधा की आँखों से आँसू थम नहीं रहे थे। उसने भर्राए गले से कहा, “साहब, आपने हमारे बच्चे की जान बचा ली। बाहर मौत घूम रही थी, आपके दरवाजे ने हमें जीवन दिया है।” विजय बस खामोशी से खड़ा रहा। उसकी आँखों में पुराने दर्द उभर आए थे। उसकी पत्नी कई साल पहले गुजर चुकी थी और उसके बाद से वह अकेला ही जी रहा था।
विजय ने कहा, “तुम लोग इस कमरे में सो जाओ। दरवाजा अंदर से बंद कर लेना। डरने की जरूरत नहीं है।” उस रात हवेली की दीवारों ने बहुत दिनों बाद किसी इंसान की सिसकियाँ सुनी। बाहर बारिश अब भी बरस रही थी, लेकिन अंदर इंसानियत और दर्द मिलकर एक नई कहानी बुन रहे थे।
सुबह की पहली किरण खिड़की से झांक कर कमरे में आई। रात भर की बारिश अब थम चुकी थी। हवेली में कुछ ताजगी थी। विजय रोज की तरह उठा, लेकिन आँगन में बिखरी सूखी पत्तियाँ और कचरा सब साफ था। टूटा सामान एक कोने में रखा था। दरवाजों और खिड़कियों पर जमी धूल साफ हो चुकी थी। विजय हैरान था—यह सब रात में कैसे हुआ?
तभी उसने देखा, रसोई में राधा झुकी हुई थी, पुराने बर्तन धो रही थी। पास ही आरव एक पुरानी खिलौना गाड़ी से खेल रहा था। विजय धीरे-धीरे उसके पास गया, “तुम यह सब क्यों कर रही हो? तुम्हें आराम करना चाहिए था।”
राधा ने सिर झुकाकर धीमी आवाज में कहा, “साहब, आपने हमें रात को आसरा दिया, हमारे बच्चे को भूख से बचाया। इसलिए मेरे दिल ने चाहा कि बदले में मैं आपके घर की सफाई कर दूँ। गंदगी कहीं भी अच्छी नहीं लगती और यह घर इतना बड़ा है लेकिन इतना अकेला लगता है। शायद मेरी छोटी सी मदद से इसमें थोड़ी सी जिंदगी आ जाए।”
विजय के दिल में यह शब्द तीर की तरह लगे। उसकी पत्नी भी यही बातें करती थी। एक पल के लिए विजय की आँखों के सामने उसका पुराना अतीत तैर गया।
कुछ देर बाद राधा ने बर्तन सलीके से रख दिए। आरव को गोद में उठाया और चुपचाप एक कोने में बैठ गई। “साहब, आपने हमारे लिए जितना किया वह बहुत बड़ा है। लेकिन अब हम आपको और परेशान नहीं करेंगे। आज ही हम आगे निकल जाएंगे।”
विजय का दिल जोर से धड़कने लगा। उसे लगा, अगर राधा और बच्चा चले गए तो फिर से हवेली वीरान हो जाएगी। उसने संकोच के साथ कहा, “जाने से पहले एक बात पूछ सकता हूँ? तुम कौन हो, किस हाल में यहाँ तक पहुँची?”
राधा की आँखों में आँसू भर आए। उसने अपनी कहानी सुनाई—पति की बीमारी, मौत, मायके वालों की बेरुखी, ससुराल से निकाला जाना। “उस दिन से मैं और मेरा आरव सड़कों पर भटक रहे हैं। छोटे-मोटे काम करके गुजारा करती हूँ। लोग मदद करने की बजाय ताने मारते हैं। कल पूरे दिन हमने कुछ नहीं खाया था। इसी वजह से आपके दरवाजे पर दस्तक दी।”
विजय की आँखों में भी नमी आ गई। उसने गहरी सांस ली, “अगर मैं कहूँ कि तुम और तुम्हारा बेटा इस घर में रह सकते हो? मैं पैसे नहीं दे पाऊँगा, लेकिन घर के काम संभाल सकती हो। बदले में तुम्हें और आरव को छत और भोजन मिलेगा। इस हवेली को इंसानियत और जीवन की जरूरत है।”
राधा कुछ देर तक हैरानी से देखती रही। “साहब, क्या यह सही होगा? गाँव वाले क्या कहेंगे?” विजय ने दृढ़ता से कहा, “लोग तो हर हाल में बातें बनाते हैं। लेकिन सच यह है कि अगर मैं तुम्हें और तुम्हारे बेटे को इस हाल में छोड़ दूँ तो इंसानियत मर जाएगी।”
राधा की आँखों से आँसू छलक पड़े। “आपने हमें जीने की एक नई वजह दी है। मैं इस घर की देखभाल करूंगी।”
दिन बीतने लगे। राधा हर सुबह सबसे पहले उठती, घर की सफाई करती, रसोई संभालती, सब्जियाँ काटती, रोटियाँ बनाती। हवेली की वीरानी धीरे-धीरे मिटने लगी। दीवारें चमकने लगीं, खिड़कियाँ खुलने लगीं, बरामदे में हंसी की गूंज सुनाई देने लगी। आरव की किलकारियाँ हवेली को जीवन देने लगीं।
विजय जो बरसों से अकेलेपन में डूबा था, अब खेतों से लौटते ही देखता कि दरवाजे पर एक मासूम बच्चा उसकी राह देख रहा है। आरव दौड़कर उसके पैरों से लिपट जाता, “बाबा, चलो खेलते हैं!” पहले तो विजय चौक गया था जब आरव ने उसे बाबा कहा, लेकिन धीरे-धीरे वह भी आरव से जुड़ गया।
गाँव की गलियों में फुसफुसाहटें शुरू हो गईं—“विजय सिंह ने एक जवान औरत को अपने घर में रख लिया है और उसके साथ एक बच्चा भी है।” राधा इन बातों को सुनती तो उसकी आँखें नम हो जातीं। उसे लगता, शायद उसकी मौजूदगी विजय के लिए बोझ बन जाएगी।
एक शाम राधा ने विजय से कहा, “साहब, गाँव वाले सही कह रहे हैं। मेरी वजह से आपकी बदनामी हो रही है। मुझे और आरव को अब यहाँ से जाना चाहिए।” विजय का चेहरा तमतमा उठा। “बस चुप रहो राधा। तुम्हारी कोई गलती नहीं है। तुम मेरे लिए अब परिवार जैसी हो।”
राधा ने पहली बार विजय की आँखों में सच्चाई देखी। मन थोड़ा शांत हुआ, लेकिन समाज की बातें अब भी उसे भीतर से काट रही थीं।
एक सुबह गाँव के कुछ बुजुर्ग विजय के दरवाजे पर आ धमके। “विजय, यह सब ठीक नहीं है। जवान औरत को अपने घर में रखना गाँव की मर्यादा के खिलाफ है। या तो इसे घर से निकालो वरना तुम्हें गाँव से निकाल दिया जाएगा।”
राधा दरवाजे के पीछे खड़ी कांपने लगी। विजय कुछ पल तक चुप रहा, फिर पूजा घर से सिंदूर की डिब्बी उठा लाया। सबके सामने राधा की मांग में सिंदूर भर दिया। “अब यह मेरी पत्नी है। अगर किसी को आपत्ति है तो सामने आकर कहे।”
पूरा गाँव सन रह गया। विजय की आँखों में वह आग थी जो सबको डरा रही थी। धीरे-धीरे सब चुपचाप चले गए। राधा स्तब्ध खड़ी थी। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। विजय ने कहा, “अब कोई तुम्हारे बारे में उंगली नहीं उठाएगा। तुम अब मेरी जिम्मेदारी हो।”
समय बीतता गया। हवेली में अब हंसी खुशी और अपनापन था। राधा हर सुबह आँगन में दीपक जलाती, रसोई से चूल्हे की महक फैलती। आरव की खिलखिलाहट से पूरा घर गूंज उठता। विजय दरवाजे पर बेटे को दौड़कर अपनी गोद में आते देखता। उसे लगता, जिंदगी ने जितना छीना था अब उतना ही लौटा दिया है।
राधा के माथे पर सिंदूर की लाल रेखा और चेहरे पर संतोष की मुस्कान थी। गाँव वाले अब कहते, “विजय ने सही किया। अगर वह राधा और उसके बेटे को ना अपनाता तो दोनों बर्बाद हो जाते। यही असली इंसानियत है।”
आरव बड़ा हुआ, पढ़ाई में अच्छा निकला। हर मौके पर विजय के गले लगकर कहता, “बाबा, अगर आप उस रात हमें घर में ना रखते तो हम आज जिंदा भी ना होते।”
राधा हर बार भगवान को धन्यवाद देती, “शायद सचमुच उस रात की दस्तक ही हमारी किस्मत थी।”
सीख:
इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है। किसी मजबूर की मदद करना, उसे आसरा देना, उसकी जिंदगी बदलना—यही असली जीवन है। समाज की बातें हमेशा चलती रहेंगी, लेकिन दिल की सच्चाई और मदद का जज्बा ही सबसे बड़ा रिश्ता है।
अगर आप विजय की जगह होते तो क्या अपने दरवाजे खोलते? अपनी राय जरूर लिखें।
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