“भरोसे की नींव – गोविंद नारायण वर्मा की विरासत”

यह कहानी “गोविंद नारायण वर्मा” केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस मानवीय मूल्य की गाथा है जो तकनीक और आधुनिकता के शोर में कहीं खोती जा रही है।
सुबह के लगभग दस बजे थे। शहर के बीचोंबीच स्थित नेशनल पीपल्स बैंक की शाखा में रोज़ की तरह भीड़ लगी हुई थी। धूप की हल्की तपीश और बैंक के बाहर लगी लंबी कतार के बीच एक सत्तर वर्षीय बुजुर्ग व्यक्ति धीरे-धीरे चलता हुआ अंदर आया। उसकी चाल में थकान थी, पर आंखों में एक गहरी शांति। सफेद बाल, हल्के झुर्रीदार चेहरे पर सदा मुस्कुराहट, और हाथ में एक पुराना फाइल-बैग। कपड़े सादे थे—सफेद कमीज़, हल्की भूरी पतलून और पुराने चमड़े के जूते—लेकिन उनमें एक अजीब गरिमा झलकती थी। उसका नाम था गोविंद नारायण वर्मा, और बीस साल पहले वह इसी बैंक में शाखा-प्रबंधक हुआ करता था। आज इतने वर्षों बाद वह लौटे थे—एक उम्मीद, एक सम्मान की तलाश में।
अंदर प्रवेश करते ही उन्हें कई नए चेहरे दिखाई दिए। कंप्यूटरों पर झुके हुए युवा कर्मचारी अपने-अपने काम में व्यस्त थे। कोई कैश काउंटर पर नोट गिन रहा था, कोई ग्राहक से बहस कर रहा था। गोविंद जी ने धीमे से कहा, “बेटा, मैनेजर साहब से मुलाकात हो सकती है?” रिसेप्शन पर बैठी एक नई लड़की ने बिना देखे जवाब दिया, “किस काम से आए हैं अंकल?” गोविंद जी मुस्कुराए, “पहले यही काम करता था, एक पुरानी बात से जुड़ा कागज़ जमा करना है।” लड़की ने ऊपर देखा, फिर ठंडी निगाह से तौलते हुए बोली, “आप यहां काम करते थे? कब के?” “बहुत साल पहले, जब यह शाखा बनी ही थी,” उन्होंने विनम्रता से कहा। लड़की हंस पड़ी, “अब सब कुछ ऑनलाइन हो गया है अंकल, पुराने लोग तो शायद सिस्टम ही नहीं समझ पाते।” पास बैठे युवक ने व्यंग्य में कहा, “कहीं फर्जी कागज़ तो नहीं लाए?” चारों ओर हल्की हंसी गूंज गई। गोविंद जी बस मुस्कुरा दिए—“कागज़ असली है बेटा, पर शायद अब नजरिया नकली हो गया है।”
तभी दरवाज़े से एक तेज़ आवाज आई—“कौन है वहां? इतनी भीड़ में किसे रोके बैठे हो?” यह थे वर्तमान शाखा-प्रबंधक अजय राणा, उम्र लगभग पैंतीस। गले में टाई, चेहरे पर अहंकार की मोटी परत और तेज़ बोलने की आदत। रिसेप्शनिस्ट ने कहा, “सर, ये अंकल कह रहे हैं कि पहले यहां काम करते थे।” अजय ने हंसते हुए पलट कर देखा, “अच्छा, अब क्या चाहते हैं?” गोविंद जी ने फाइल खोली। उसमें पुराना जॉइनिंग लेटर, सर्विस रिकॉर्ड्स और बैंक के पुराने चेयरमैन की हस्ताक्षरित चिट्ठी थी। “बेटा, मेरे पेंशन खाते से जुड़ी एक प्रक्रिया अटकी है। पुराना रिकॉर्ड है, बस एक प्रमाणपत्र चाहिए।” अजय ने फाइल झपट ली, कागज़ पलटे, फिर बोला, “सरकारी कागज़ लाकर हमें सिखाने आए हैं कि बैंक कैसे चलता है?” गोविंद जी शांत स्वर में बोले, “नहीं बेटा, सिखाने नहीं—समझाने आया हूं कि गलती कहां हुई थी।” अजय ठहाका लगाकर बोला, “जानते हो मैं कौन हूं? मैं इस शाखा का हेड हूं। आप जैसे रिटायर लोग अब सिस्टम में फिट नहीं होते। ये कागज़ अब किसी काम के नहीं।” उसने बेपरवाही से गोविंद जी का जॉइनिंग लेटर उठाया और दो टुकड़े कर दिए। पूरा कमरा सन्नाटे में डूब गया।
कई कर्मचारियों ने सिर झुका लिया। गोविंद जी के हाथ कांप उठे, पर उन्होंने कोई गुस्सा नहीं दिखाया। बस इतना कहा—“कागज़ फाड़ने से इतिहास नहीं मिटता बेटा। जिस कुर्सी पर तुम बैठे हो, उसकी नींव मैंने रखी थी।” अजय व्यंग्य में बोला, “वाह, अब खुद को भगवान बता रहे हैं?” फिर उसने सुरक्षा को बुलाया, “इन्हें बाहर निकालो।” गार्ड आगे बढ़े, पर गोविंद जी ने खुद झुककर अपना बैग उठाया। “जिस संस्था को अपने खून से सींचा, उसके दरवाज़े से निकाला जाना भी सौभाग्य है।” वह धीरे-धीरे बाहर निकल गए, और पीछे एक अजीब खामोशी रह गई।
बाहर पेड़ की छांव में बैठकर उन्होंने टूटा हुआ जॉइनिंग लेटर निकाला, दोनों हिस्से जोड़कर सीने से लगाया। आंखों में हल्की नमी थी। “वक्त नहीं बदला बेटा,” उन्होंने बुदबुदाया, “बस इंसान बदल गए हैं।”
अंदर बैंक में रवि, असिस्टेंट कैशियर, बोला, “सर, लगता है आपने थोड़ा ज्यादा कर दिया।” अजय झल्लाया, “तुम सिखाओगे बैंक कैसे चलता है? वो बूढ़ा आदमी अब सिस्टम नहीं जानता।” रवि चुप हो गया। तभी फोन बजा। अजय ने रिसीवर उठाया, “अजय राणा बोल रहा हूं।” उधर से आवाज आई, “मैं राजीव मेहरा, हेड ऑफिस से बोल रहा हूं। क्या वहां कोई बुजुर्ग सज्जन आए थे—गोविंद नारायण वर्मा?” अजय ने लापरवाही से कहा, “हां सर, आए थे। कुछ पुराने कागज़ लेकर। रिटायर्ड एम्प्लॉई होंगे, समझाया कि अब अप्रूव नहीं होते।” कुछ सेकंड खामोशी रही, फिर राजीव की आवाज बदली—“अजय, तुम्हें पता है वो कौन हैं? वो इस बैंक के पहले शाखा-प्रबंधक थे। इसी बिल्डिंग की नींव उन्होंने रखवाई थी। जिस कुर्सी पर तुम बैठे हो, उस पर सबसे पहले उनके नाम की नेमप्लेट लगी थी।” अजय का चेहरा सफेद पड़ गया। “उन्होंने इस बैंक का ट्रस्ट फाउंडेशन बनाया था, और आज उन्हें मुख्यालय में सम्मान समारोह में बुलाया गया था। जाने से पहले उन्होंने सोचा कि अपनी शाखा देखकर जाएं। अगर वे अपमानित होकर लौट गए हैं तो समझ लो तुमने बैंक की आत्मा दुखाई है।”
अजय के हाथ से रिसीवर गिरते-गिरते बचा। उसे पहली बार अपने व्यवहार पर ग्लानि हुई। राजीव बोले, “मैं तुरंत वहां पहुंच रहा हूं।” बैंक का माहौल स्तब्ध था। रवि ने धीमे स्वर में कहा, “सर, मैंने कहा भी था…” अजय ने रोका, “मत बोलो रवि। आज समझ आया कि अहंकार तब सबसे खतरनाक होता है जब इंसान को लगता है कि वह सही है।”
बाहर धूप तेज़ हो चुकी थी। गोविंद जी पेड़ के नीचे बैठे थे, माथे पर पसीना था पर चेहरे पर वही शांति। तभी बैंक का गार्ड दौड़ता आया, “बाबूजी, मैनेजर साहब बुला रहे हैं।” गोविंद जी मुस्कुराए, “अब क्या ज़रूरत है बेटा? जो सम्मान भीतर नहीं, वो दफ्तर की दीवारों से नहीं मिलता।” गार्ड बोला, “इस बार बात अलग है, हेड ऑफिस से लोग आ रहे हैं।”
थोड़ी देर बाद एक सफेद कार बैंक के सामने रुकी। उससे राजीव मेहरा, सीनियर जोनल हेड, उतरे। साथ दो अधिकारी और एक गुलदस्ता। वह सीधा पेड़ के नीचे पहुंचे। गोविंद जी उठने लगे तो राजीव झुककर उनके हाथ थाम लिए, “सर, हमें माफ कर दीजिए। आपको जिस शाखा ने बनाया, आज उसी के लोगों ने आपका अपमान किया।” गोविंद जी ने शांत स्वर में कहा, “अपमान नहीं बेटा, बस देखा कि समय कैसे बदलता है। लेकिन अच्छा लगा, अब भी कुछ लोग पहचानते हैं।”
राजीव ने कहा, “सर, अब बैंक की ओर से एक कार्यक्रम रखा जाएगा। आपके नाम पर गोविंद वर्मा एक्सीलेंस अवार्ड शुरू किया जा रहा है।” पास खड़ा अजय सिर झुकाए बोला, “सर, मुझसे भूल हो गई। मुझे लगा मैं सिस्टम जानता हूं, पर इंसानियत का सिस्टम भूल गया।” गोविंद जी ने उसका कंधा थपथपाया, “बेटा, हर गलती सजा नहीं मांगती। कभी-कभी माफी ही काफी होती है। याद रखना, बैंक पैसा नहीं भरोसे से चलता है।”
राजीव ने घोषणा की, “आज से आपका नाम इस शाखा की नींव पर फिर से लिखा जाएगा।” बैंक के भीतर और बाहर भीड़ थी। हर कर्मचारी सिर झुकाए उस बुजुर्ग को देख रहा था, जिसे कल तक पुराना कहकर बाहर निकाल दिया गया था।
अगले दिन सुबह शाखा के बाहर बैनर लगा था—
“स्वागत है श्री गोविंद नारायण वर्मा का – हमारे पहले शाखा प्रबंधक, हमारे गौरव।”
फूलों से सजी मेज़ें, मुस्कुराते कर्मचारी, और वही गेट जहाँ से कल उन्हें अपमानित कर निकाला गया था—आज वहीं लाल कारपेट बिछा था। दस बजकर तीस मिनट पर एक ऑटो धीरे-धीरे रुका। उससे उतरे वही सादे कपड़ों वाले गोविंद नारायण वर्मा। हाथ में पुराना फाइल-बैग, चेहरा शांत, मुस्कान स्थायी। अजय राणा, जो कल तक अपनी कुर्सी पर अकड़ से बैठा था, आज दोनों हाथों से स्वागत कर रहा था। “सर, मैंने आपको पहचाना नहीं, मुझसे बहुत बड़ी गलती हुई।” गोविंद जी ने सिर पर हाथ रखकर कहा, “गलती पहचानना ही सुधार की पहली सीढ़ी होती है।”
अंदर पहुंचे तो पूरा स्टाफ खड़ा होकर तालियां बजाने लगा। मंच से राजीव मेहरा बोले, “आज हम उस व्यक्ति का सम्मान कर रहे हैं, जिसकी ईमानदारी और परिश्रम से यह बैंक खड़ा हुआ। उन्होंने केवल एक संस्था नहीं, एक संस्कृति बनाई है।” स्क्रीन पर उनकी पुरानी ब्लैक-एंड-व्हाइट तस्वीरें चल रही थीं—युवावस्था में वही व्यक्ति, उसी शाखा के बाहर मुस्कुराते हुए, और पीछे बोर्ड पर लिखा था: ‘शाखा उद्घाटन – 1922’।
राजीव ने आगे कहा, “सर, आपने इस बैंक की आत्मा रची। आपकी ईमानदारी आज भी हमारे सिस्टम की रीढ़ है।” उन्होंने एक फ्रेम सौंपा जिस पर अंकित था—
‘गोविंद नारायण वर्मा एक्सीलेंस अवार्ड – उन कर्मचारियों के लिए जो सेवा को कर्तव्य से ऊपर रखते हैं।’
तालियों से हॉल गूंज उठा। कई कर्मचारियों की आंखें नम थीं। अजय मंच पर आया, पर शब्द गले में अटक गए। आखिर बोला, “सर, कल मैंने आपकी उम्र देखी, आपका वजूद नहीं। सोचा आप बस एक बुजुर्ग हैं जो पुराने कागज़ों में उलझे हैं। पर आज समझ आया—इतिहास कभी पुराना नहीं होता। अगर मैं यहां हूं तो आपकी वजह से हूं।” पूरा हॉल खड़ा हो गया। रवि समेत कई स्टाफ सदस्य रो पड़े।
गोविंद जी ने मुस्कुरा कर कहा, “बेटा, मैं हमेशा कहता था—बैंक पैसा नहीं, भरोसे से चलता है। और भरोसा मशीन से नहीं, इंसान के दिल से बनता है।” राजीव ने घोषणा की, “अब से हर साल 5 जून, जिस दिन आपने पहली बार इस शाखा में कदम रखा था, इंटीग्रिटी डे के रूप में मनाया जाएगा। उस दिन बैंक का सबसे ईमानदार कर्मचारी आपके नाम का पुरस्कार प्राप्त करेगा।”
तालियों की गूंज के बीच वह दिन इतिहास बन गया। एक दिन पहले तक जिसे “पुराना” कहकर नकार दिया गया था, आज वही व्यक्ति पूरी संस्था की प्रेरणा बन चुका था। यह केवल एक बुजुर्ग का सम्मान नहीं था—यह उस भरोसे का पुनर्जन्म था जिस पर हर संस्था की नींव टिकी होती है।
कार्यक्रम के बाद अजय ने संकोच-भरे स्वर में कहा, “सर, एक कप चाय मेरे साथ?” गोविंद जी मुस्कुराए, “क्यों नहीं बेटा? आखिर यहीं से तो सब शुरू हुआ था।” और उस दिन, नेशनल पीपल्स बैंक की वह शाखा पहली बार अपने असली अर्थ में “मानवता की शाखा” बन गई—जहां अनुभव, सम्मान और भरोसा फिर से सबसे ऊंची मुद्रा बन चुके थे।
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