भिखारी समझकर पुलिस ने पीट दिया, असल में निकले पूर्व डीजीपी: इंसानियत का आईना

शाम का समय था। दिल्ली के भीड़-भाड़ भरे एक चौराहे के फुटपाथ पर एक बुजुर्ग चुपचाप बैठे हुए थे। कमर झुकी, कपड़े मैले, थैली फटी हुई और चेहरे पर गहरी थकान। उनके सामने अख़बार की पन्नी पर दो-चार बिस्किट पड़े थे, जिन्हें वे बड़े सलीके से खा रहे थे, मानो हर टुकड़े में कोई दबी-दबी दास्तां हो। राहगीरों में से कोई घूरता, कोई हँसता, कोई उपेक्षा से आगे बढ़ जाता। एक ने ताने में कहा, “शहर में बस ऐसे निकम्मे बूढ़े बढ़ते जा रहे हैं।” किसी को उनके हालात से कोई वास्ता नहीं था, सब अपनी दुनिया में व्यस्त थे।

तभी एक पुलिस जीप आकर तेजी से रुकती है। दरवाजा खुलते ही सब-इंस्पेक्टर पंकज, जो हाल ही में भर्ती हुआ था, बाहर निकला। उसकी आवाज़ में रौब और तेवर में घमंड था। उसने गुस्से से कहा, “यहाँ क्यों बैठा है ओ बुड्ढे? फुटपाथ को अपने बाप का घर समझ रखा है?” बुजुर्ग ने नज़रें उठाई, बोलना चाहा, लेकिन बात पूरी न कह सके। इशारे पर दो कांस्टेबल आगे आ जाते हैं। एक लाठी से डराता, दूसरा उनका सामान फेंक देता है। बुजुर्ग ज़मीन पर गिर जाते हैं, बिस्किट बिखर जाते हैं। लोग तमाशा देखते रहते हैं, कोई आगे नहीं बढ़ता। बुजुर्ग बस कहते हैं, “मुझे जाने दो बेटे…” मगर पंकज चिल्लाता है, “चुप! बहुत देखे हैं तेरे जैसे पाखंडी!” बुजुर्ग चुपचाप अपना बचा-खुचा सामान समेटते हैं और लड़खड़ाते हुए वहां से चले जाते हैं।

बीस मिनट बाद, एक और पुलिस गाड़ी आकर रुकती है। इस बार गाड़ी से उतरते हैं एक वरिष्ठ आईपीएस अफसर – सधे हुए क़दम, चेहरे पर गंभीरता और आँखों में गुस्सा। वे सीधे थाने में घुसते हैं और तेज़ आवाज़ में पूछते हैं, “किसने उस फुटपाथ पर बैठे बुजुर्ग को मारा?” सभी सकते में आ जाते हैं। अफसर मोबाइल पर वही बुजुर्ग की तस्वीर दिखाते हैं, “ये हैं अरुण प्रताप सिंह, पूर्व डीजीपी, मेरे ट्रेनिंग गुरू। जिनसे मैंने सेवाभाव सीखा और आप लोगों ने इन्हें भिखारी समझकर मार दिया!” थाने में सन्नाटा छा जाता है। पंकज के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगती हैं। अफसर बताते हैं, “वो सिविल ड्रेस में इसलिए घूम रहे थे ताकि देख सकें कि हम वर्दी के नीचे इंसानियत बची है या नहीं।” पंकज घुटनों पर आकर माफ़ी मांगता है। अफसर गंभीरता से बोलते हैं, “यही तो असली परीक्षा थी – किसी के ओहदे या कपड़ों को नहीं, उसकी इंसानियत को पहचानो।”

इसी बीच एक कांस्टेबल दौड़ता हुआ आता है, “सर, बुजुर्ग थाने के बाहर बैठे हैं, एक युवक ने उन्हें यहाँ तक पहुँचाया है।” आईपीएस अफसर दौड़ते हैं – बाहर डीजीपी साहब उसी थकान भरे चेहरे और मौन मुस्कान के साथ बैठे मिलते हैं। अफसर उनके चरण छूते हैं, “सर, जो सबक आपने सिखाया, वो किताबों में कहाँ…?” डीजीपी साहब मुस्कुराते हैं, “मैं दंड देने नहीं आया, बस यह देखने कि हमारी वर्दी के भीतर अभी भी इंसान ज़िंदा है या नहीं।” फिर पंकज से कहते हैं, “यह सिस्टम की गलती है, जिसने हमें सिखा दिया कि मैले कपड़ों में इज्जत नहीं होती। पर अब तुम्हें असली सीख मिल गई।”

कुछ ही घंटों में यह खबर हर न्यूज़ चैनल, सोशल मीडिया पर आग की तरह फैल गई – “पूर्व पद्मश्री डीजीपी साहब की पुलिस ने की पिटाई, वे थे अंडरकवर इंस्पेक्शन पर।” हर जगह चेतना और शर्म की लहर दौड़ गई। पुलिस मुख्यालय में ‘मानवता पहले’ का नया प्रोटोकॉल लागू हुआ: हर थाने में वरिष्ठ नागरिकों के लिए विशेष डेस्क, पुलिस ट्रेनिंग में इंसानियत पर ज़ोर।

कुछ दिन बाद एक समारोह में डीजीपी साहब मंच पर हैं, सामने भीड़ में एक लड़की उनके पाँव छूती है, “अंकल, मैं नेहा हूँ, आपके पुराने ड्राइवर रामप्रसाद की बेटी। आपने मेरे स्कूल के फीस भरी थी।” डीजीपी साहब की आँखें डबडबा जाती हैं। नेहा अब “मानवदीप” नाम के एनजीओ से बुजुर्गों की मदद करती है। वह कहती है, “आपकी प्रेरणा से यह अभियान देशभर में फैलाएँगे।” साहब मुस्कराते हैं, “लगता है रिटायर होने के बाद भी मेरी ड्यूटी ख़त्म नहीं हुई।”

सीख: असली ताकत हमारे दिल की मानवता में है – वर्दी, पद, कपड़ों और उम्र से बहुत ऊपर। हमें हर बुजुर्ग, हर व्यक्ति का सम्मान करना चाहिए।

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