एक पाव रोटी की कहानी: इंसानियत का इम्तिहान

उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के एक कोने में सुबह के धुंधलके में एक पुरानी-सी चाय और ब्रेड पकौड़े की दुकान है। आज वहाँ कुछ अलग था—एक आठ वर्षीय बच्चा, झोली-झोली आंखों में जाने कितने सवाल और फटे-पुराने कपड़ों में एक मासूमियत छुपाए बैठा था। वह उदास नजरों से ब्रेड पकौड़ों की ओर देख रहा था, मानो उसमें ही उसका कल, आज और भविष्य छुपा हो।

दुकानदार बाहर गया था और तभी वहाँ एक चमचमाती सफेद कार आकर रुकी। कार से उतरे आनंद कश्यप—साफ सुथरा, सलीकेदार और चेहरे पर एक अजीब-सी शांति। ऐसा लगता था जैसे वो बड़ा अफसर या अमीर व्यापारी हो। लेकिन उसके अंदाज में वाहवाही नहीं, अपनापन था। आनंद को सड़क किनारे स्टॉल से खाना पसंद था, वो मानता था—हम जब छोटे दुकानदार से कुछ खरीदते हैं, तो उनका हौसला भी खरीदते हैं।

आनंद ने धीरे से पूछा, “भैया हैं?” बच्चा थोड़ी हिचक के बाद बोला, “साहब, सामान लेने गए हैं, चाहें तो बैठिए।” आनंद मुस्कुराया और बोला, “बिल्कुल, मुझे तो बहुत भूख लगी है, ब्रेड पकौड़े मिल सकते हैं?” बच्चा कुछ पल खामोश रहा, फिर बोला, “साहब, ये पकोड़े आपके लिए नहीं हैं।” आनंद हैरान रह गया —“क्यों? क्या इनमें कुछ गड़बड़ है?” बच्चा चुप रहा, उसकी आंखें भीग गईं। बड़ी मासूमियत से बोला, “साहब, अगर आपने ये खा लिए तो आज मैं और मेरी छोटी बहन शायद भूखे रह जाएंगे।”

आनंद का दिल जैसे कांप उठा। “यह दुकान तुम्हारे पापा की है?” बच्चा सिसकते हुए बोला, “नहीं साहब, यह अशोक अंकल की है। रोज़ शाम जो बचता है, वो हमें दे देते हैं। पापा अब काम नहीं करते, मम्मी एक साल पहले गुजर गईं। पापा शराब में डूब गए, कई दिन घर नहीं आते, स्कूल भी छूट गया…बहन को बहुत भूख लगती है, छोटी है ना…”

आनंद की आंखें भर आईं, उसने जेब से रुमाल निकाला, आंखें पोंछी और बोला, “सबसे पहले, ये ब्रेड पकौड़े तुम और तुम्हारी बहन खाओ। दुकानदार आएगा तो मैं पैसे दे दूंगा।”

बच्चा मना करता रहा, “आप क्यों खर्च करेंगे?” आनंद बोला, “भगवान ने मुझे इसी दिन के लिए थोड़ा ज्यादा दिया है।”

इतने में एक दुबली-पतली बच्ची सृष्टि, टूटे चप्पल, गले में पुरानी माला पहने आई। रोहन ने उसे ब्रेड पकौड़ा थमाया—जैसे खजाना मिला हो। थोड़ी देर में अशोक अंकल लौटे, आनंद ने उन्हें हालात बताए, और एक हज़ार रुपये टेबल पर रख दिए, “यह सिर्फ इन बच्चों के नहीं, सब भूखे बच्चों के लिए।” अन्य ग्राहक भी भावुक हो गए।

आनंद अशोक अंकल से बच्चों के घर ले चलने की विनती करता है। सभी एक संकरी गली में झोपड़ी के सामने पहुंचते हैं—टीन की चादर की छत, मिट्टी की दीवारें, अंदर टूटी बोरी पर बिस्तर, कोने में कुछ किताबें। आनंद का दिल तड़प उठा।

उसी वक्त बगल की झोपड़ी से एक बूढ़ी अम्मा बाहर आई, झुकी कमर, आंखों में ममता की गहराई। वो बोली, “इनकी मां मेरी बहन जैसी थी, उनके जाने के बाद ये अनाथ-से हो गए। बाप नशे में खो गया है।”

आनंद ने अम्मा का हाथ पकड़ कहा, “क्या आप इन बच्चों का ध्यान रख लेंगी? मैं हर जरूरी मदद करूंगा।” अम्मा की आंखों से आंसू बह चले, बोलीं, “बेटा, बच्चों को रिश्ते से नहीं, ममता से पाला जाता है। मैं पोता-पोती समझ adopt कर लूंगी।”

आनंद ने पांच हज़ार रुपये अम्मा को शुरुआती मदद के तौर पर दिए, बच्चों का स्कूल में दाखिला करवाया, कपड़े, किताबें, सूखा राशन और अपने होने का वादा छोड़ गया। जाते समय सृष्टि बोली, “भैया, फरिश्ते कैसे होते हैं?” रोहन ने कहा, “शायद ऐसे ही।”

जल्दी ही बदलाव दिखा—बच्चे अब अम्मा के साथ रहते, स्कूल जाते, पढ़ाई करते—मासूम मुस्कान लौट आई थी। उसी झोपड़ी में अब उम्मीद थी, उजाला था…बिजली के नहीं, प्यार के।

एक शाम बच्चों के पिता किशन लौटा—शराबी, टूटा… उसने जब बदला घर देखा—सोलर लाइट, किताबें, स्कूल बैग, हंसते बच्चे, पढ़ाती अम्मा—उसकी आंखें भर आईं। अम्मा समझाकर बोलीं, “जितनी जिंदगी बाकी है, उतनी बहुत है, सुधरना चाहो तो अभी बहुत कुछ कर सकते हो।”

किशन ने शराब छोड़ने, मेहनत की कसम खाई। अगले ही दिन मजदूरी ढूंढ ली, हर शाम बच्चों के लिए कुछ न कुछ लाता, उनकी पढ़ाई देखता, छोटी-छोटी खुशियां देता। वह फिर से पिता बनना सीख रहा था।

पंद्रह दिन में ही बदलाव दिखने लगा—बच्चे रोज स्कूल जाते, साफ कपड़े, हाथ में टिफिन, होमवर्क, और किशन की आंखों में पिता बनने का गर्व। अब उसमें शराब की नहीं, मेहनत की चमक थी।

फिर एक दिन आनंद कश्यप लौटा—बैग में किताबें, नई वर्दी, खिलौने लेकर। लेकिन जब झोपड़ी के पास पहुंचा, देखा—किशन मिट्टीदार हाथों से खाना खा रहा, सृष्टि उससे लिपटी थी, रोहन होमवर्क कर रहा था। आनंद को देख किशन ने भावुक होकर कहा, “साहब, मैं अब इंसान बन रहा हूं। आपने मुझे बदल दिया… अगर आपने वह दिन मेरी मदद न की होती, तो शायद मेरे बच्चे…!” आनंद ने किशन को उठाकर गले लगाया, “सच्चा बदलाव आपने खुद किया, मैं तो बस ज़रिया था।”

समय बीत गया—किशन रोज पांच बजे उठकर काम पर जाता, बच्चों के सपनों की खातिर हर थकान सहता। सृष्टि स्कूल में अव्वल, रोहन अब इंटर कॉलेज में—आंखों में सपना, “बड़ा होकर उन भूखे बच्चों के लिए काम करूंगा, जो कभी बोल नहीं सकते उन्हें भूख लगी है।”

कॉलेज में फेयरवेल पार्टी थी। स्टेज पर रोहन ने अपनी कहानी सुनाई—“अगर वह अमीर आदमी मेरी बहन का खाना खा लेता, तो हम भूखे रह जाते, लेकिन उन्होंने फरिश्ता बनकर हमें इंसान बना दिया… आज मैं जिस भी जगह हूं, वह सिर्फ अपनी मेहनत नहीं, एक अनजान इंसान की संवेदना का परिणाम है।”

पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा—और पीछे, आनंद कश्यप की आंखें भीगी थीं।

क्या सच्चा फरिश्ता होता है?

गरीबी सिर्फ पैसों की नहीं—कई बार वह समाज की बेरुखी की भी होती है। अगर इस कहानी ने आपको छू लिया तो सोचिए आप आनंद की जगह होते तो क्या करते? क्या आप किसी भूखे मासूम की तकलीफ से, उसके अकेलेपन से, उसकी चुप मांग से फर्क महसूस कर पाते? क्या आप बदलाव के वो बीज बो सकते हैं जिससे किसी के जीवन में नई ‘सुबह’ आ जाए?

यदि हां, तो यही असली इंसानियत है। किसी के पास नहीं—तो खाओ मत, बांटो! यही आपके होने की वजह बन सकती है। इस कहानी को आगे बढ़ाइए, ताकि किसी की भूख एक नई सुबह बनने से न चूके।