मंदिर की परी: एक पुजारी, एक बच्ची और इंसानियत की मिसाल
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले से लगभग पच्चीस किलोमीटर दूर एक छोटा सा कस्बा था। वहाँ हर शाम मंदिर की घंटियों की आवाज पूरे गांव को सुकून देती थी। लोग दिनभर की थकान के बाद मंदिर के आंगन में बैठकर भगवान का नाम लेते, बच्चों की हंसी गूंजती, और बुजुर्ग अपनी कहानियाँ सुनाते। लेकिन एक सर्द रात, उन घंटियों की आवाज के साथ किसी की सिसकियों की भी आवाज मिल रही थी।
सड़क किनारे बैठी एक छोटी सी आठ साल की बच्ची, पुरानी सी फ्रॉक में नंगे पैर, हाथ जोड़कर आने-जाने वाले लोगों से बस इतना कह रही थी – “माँ, भूख लगी है। कुछ दे दो ना।” कभी कोई उसे अनदेखा कर आगे बढ़ जाता, तो कोई दया दिखाकर दो रोटियाँ उसकी गोद में रख देता। लेकिन उस बच्ची की आँखों में जो डर और अकेलापन था, वह किसी भूख से बड़ा दर्द था। उसका नाम किसी को नहीं पता था, खुद उसे भी नहीं। गांव वालों ने उसे आर्या नाम दे दिया, क्योंकि वह किसी को कुछ नहीं बता पाती थी।
तीन दिनों से वह मंदिर के बाहर ही बैठी थी। ना कहीं जाती, ना किसी से ज्यादा बात करती। रात को मंदिर के बरामंडे में एक कोने में दुबक कर सो जाती थी। मंदिर के पुजारी हरिदास जी रोज पूजा के बाद दीपक बुझाकर निकलते थे। करीब साठ साल के हरिदास जी, सफेद धोती-कुर्ता, माथे पर चंदन का टीका, चेहरे पर सुकून और आवाज में मिठास। उन्होंने कई बार उस बच्ची को देखा, पर सोचा शायद कोई मजदूर की बेटी होगी, जो आसपास घूमती है।
एक रात की शुरुआत
उस रात सर्दी बहुत बढ़ चुकी थी। जब हरिदास जी ने मंदिर का दरवाजा बंद किया, उनकी नजर फिर उसी कोने में पड़ी। छोटी बच्ची अपनी बाहों में खुद को लपेटे ठंड से कांपते हुए सोने की कोशिश कर रही थी। हरिदास जी का दिल कांप उठा। वे धीमे कदमों से उसके पास गए – “बेटी, ठंड लग रही है ना?” बच्ची चौंक गई, आँखों में डर था। जब उसने हरिदास जी के चेहरे पर मुस्कुराहट देखी, उसका डर थोड़ा कम हुआ।
“आओ, अंदर चलो,” हरिदास जी बोले, “यहाँ हवा नहीं लगेगी। मैं तुम्हें रोटी भी दूंगा।” बच्ची ने पहले मना किया, फिर मजबूरी में उनके पीछे चल पड़ी। मंदिर के पीछे एक छोटा सा कमरा था, जहाँ दिया जल रहा था, भगवान की मूर्ति थी, दीवार पर टंगी कुछ पुरानी तस्वीरें।
हरिदास जी ने कंबल निकाला, “ले बेटी, पहले इसे ओढ़ लो।” बच्ची ने कांपते हाथों से कंबल पकड़ा, ओढ़ते ही उसकी आँखों में नमी तैर गई। जैसे किसी ने बरसों बाद उसे अपनापन दिया हो।
“तुम्हारा नाम क्या है?” हरिदास जी ने पूछा। बच्ची ने धीमी आवाज में कहा, “पता नहीं।” घर, माँ-पिता – कुछ याद नहीं। आंसू गिरने लगे। हरिदास जी कुछ पल उसे देखते रहे, फिर चुपचाप रसोई में गए, दो रोटियाँ और थोड़ा दाल लेकर आए। “ले बेटी, पहले खाना खा ले। फिर आराम से बात करेंगे।”
बच्ची ने भगवान की मूर्ति की तरफ देखा, फिर धीरे-धीरे खाना खाने लगी। हरिदास जी वहीं बैठे रहे और मन ही मन सोचने लगे – “भगवान, शायद यह बच्ची तूने ही मेरे पास भेजी है। मेरी अधूरी उम्र में नई जिम्मेदारी बनकर।”
नई शुरुआत
अगली सुबह जब मंदिर की घंटियाँ बजी, गांव के लोग आश्चर्यचकित थे। मंदिर के बरामंडे में अब वह बच्ची पूजा के फूल बाँट रही थी। “पंडित जी, यह कौन है?” लोगों ने पूछा। हरिदास जी ने मुस्कुराकर कहा, “भगवान की भेजी हुई परी है। नाम रखा है – आर्या।”
लोग हंसकर बोले, “पंडित जी, अब मंदिर में बच्ची भी पालेंगे क्या?” हरिदास जी बोले, “मंदिर में भगवान रहते हैं और भगवान की दी जिम्मेदारी से कोई भाग नहीं सकता।”
उस दिन से आर्या वही मंदिर में रहने लगी। दिन में फूल तोड़ती, पूजा की तैयारी करती, शाम को हरिदास जी उसे अक्षर सिखाते। गलती करती, हंसती, हरिदास जी कहते – “कोई बात नहीं बेटी, भगवान भी गलती करने वाले को माफ कर देते।”
धीरे-धीरे गांव में चर्चा फैल गई कि पंडित हरिदास ने एक अनजान बच्ची को अपने पास रख लिया है। किसी ने कहा, “भलाई का जमाना नहीं पंडित जी। लोग क्या कहेंगे?” किसी ने कहा, “आजकल कौन किसी पराई बच्ची को अपने घर में रखता है?”
पर हरिदास जी किसी की परवाह नहीं करते। उनके दिल में अब भक्ति के साथ एक नया रिश्ता जुड़ गया था – पिता का रिश्ता।
समाज के सवाल
शाम को जब वह दिया जलाते थे, भगवान से यही प्रार्थना करते – “हे भोलेनाथ, इस बच्ची का अतीत मैं नहीं जानता, पर इसका भविष्य उज्जवल बना देना।”
गांव के लोग समझ नहीं पा रहे थे कि पुजारी ने यह बच्ची क्यों रखी। हरिदास जी कहते – “अगर भगवान की मूर्ति को बिना जाति पूछे पूजा जा सकता है, तो एक मासूम बच्ची को बिना धर्म पूछे क्यों नहीं अपनाया जा सकता?”
गांव वाले चुप हो जाते, पर उनकी निगाहें हमेशा आर्या पर टिकी रहतीं। आर्या भी इन बातों को सुन लेती, पर हरिदास जी का चेहरा देखते ही उसका डर मिट जाता।
आर्या की उड़ान
आर्या अब 11 साल की चंचल लड़की बन चुकी थी। उसकी आँखों में अब डर की जगह विश्वास था, खिलखिलाती हंसी थी, दिल में अपनापन। गांव के लोगों को यह हंसी पसंद नहीं थी। चाय की दुकान पर बैठे बुजुर्ग कहते, “आजकल के जमाने में कौन किसी पराई बच्ची को पालता है? कल को मुसीबत आए तो क्या जवाब देगा?”
हरिदास जी हर सवाल का जवाब बस मुस्कान से देते।
एक दिन स्कूल से आर्या को सर्टिफिकेट मिला – पहली बार क्लास में अव्वल स्थान। वह दौड़ती हुई मंदिर पहुंची, “बाबा देखो, मैं पहले नंबर पर आई हूं!” हरिदास जी ने आंसू भरी आँखों से उसे गले लगा लिया – “बेटी, आज तेरा नहीं, मेरी साधना का फल मिला है।”
पर सफलता के साथ-साथ ताने भी बढ़ने लगे। लोग कहते, “पंडित जी अब बच्ची को पढ़ा रहे हैं। कल को डॉक्टर बना देंगे क्या?”
हरिदास जी सुनते रहे, जवाब नहीं दिया। “जिसे भगवान पर भरोसा है, उसे इंसानों की बातों से क्या डर?”
सपनों की राह
आर्या अब 14 साल की हो चुकी थी। उसकी आँखों में सपना था – डॉक्टर बनने का। वह गांव के स्कूल में पढ़ती, रास्ते में बीमार जानवरों की सेवा करती।
हरिदास जी पूछते, “बेटी, तुझे इन सब में डर नहीं लगता?” वह कहती, “बाबा, डर तब लगता है जब कोई साथ ना हो। आप हैं ना, तो भगवान भी मेरे साथ है।”
हरिदास जी की आँखें भर आतीं, जानते थे कि यह बच्ची अब उनके जीवन की सबसे बड़ी पूजा बन चुकी है।
समाज की परीक्षा
एक दिन गांव के मुखिया ने पुजारी को बुलाया – “पंडित जी, लोग बातें बना रहे हैं। कह रहे हैं, आप इस बच्ची को क्यों रखे हुए हैं? क्या उसकी जाति पूछी? धर्म पूछा?”
हरिदास जी बोले, “मुखिया जी, जब मैंने सांस ली थी, किसी ने मेरा धर्म नहीं पूछा था। फिर मैं क्यों पूछूं उसकी जाति? यह बच्ची मेरे लिए भगवान का प्रसाद है, और मैं प्रसाद को ठुकरा नहीं सकता।”
मुखिया चुप हो गया, पर गांव में चर्चा फैल गई। हरिदास जी को अब फर्क नहीं पड़ता था कि लोग क्या सोचते हैं, क्योंकि उनके लिए आर्या अब बेटी नहीं, आस्था थी।
शहर की ओर
गांव का मास्टर कहता, “पंडित जी, यह लड़की बहुत तेज है। इसे आगे भेजिए, शहर में पढ़ने दीजिए।”
हरिदास जी ने तय किया कि वह आर्या को शहर भेजेंगे, चाहे इसके लिए अपनी जमा पूंजी ही क्यों ना लगानी पड़े।
जब उन्होंने आर्या को बताया, वह बोली, “बाबा, मैं कहां जाऊंगी आपसे दूर? आप ही तो मेरा घर हैं।”
हरिदास जी बोले, “बिटिया, घर वह नहीं होता जहां हम रहते हैं। घर वह होता है, जहां से हमारे सपनों की शुरुआत होती है।”
त्याग और संघर्ष
परीक्षा के फॉर्म की फीस देखकर आर्या परेशान हो गई। हरिदास जी ने अपनी पुजारी कुटिया बेच दी, सिर्फ इसलिए कि उसकी बेटी के सपने अधूरे ना रह जाएं।
आर्या ने परीक्षा दी, मेडिकल कॉलेज में सिलेक्ट हो गई। गांव में ढोल बजने लगे। हरिदास जी ने आर्या का माथा चूमकर कहा, “बेटी, आज मैंने भगवान को नहीं देखा, पर तुझ में जरूर महसूस किया है।”
आर्या शहर चली गई, बाबा ने उसके लिए कुछ पैसे पोटली में बांध कर दिए।
बेटी की कामयाबी
शहर पहुंचकर आर्या ने अपनी नई जिंदगी शुरू की। कॉलेज में दाखिला हुआ, मेहनत करती, किताबों में डूब जाती। हर रात बाबा की दी पोटली सीने से लगाकर भगवान से प्रार्थना करती – “हे भोलेनाथ, मेरे बाबा को स्वस्थ रखना।”
धीरे-धीरे आर्या मेडिकल की पढ़ाई में बहुत आगे बढ़ चुकी थी। सेवा की भावना उसके भीतर बाबा ने जगाई थी।
अंतिम मिलन
गांव में हरिदास जी अब बूढ़े हो चुके थे। एक दिन आर्या डॉक्टर बनकर लौटी। बाबा बीमार थे, पुराने बरामंडे में लेटे थे। आर्या उनके पैरों पर गिर पड़ी – “बाबा, देखो मैं डॉक्टर बन गई!”
हरिदास जी मुस्कुराए – “मुझे पता था बिटिया, तू आएगी। भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली। अब तू वही कर जो तेरा धर्म है – सेवा, गरीबों का इलाज करना, और कभी किसी का दिल मत तोड़ना।”
आर्या ने हाथ जोड़कर वचन दिया – “बाबा, अब मैं आपकी सेवा करूंगी।”
नई मिसाल
अगले दिन, आर्या बाबा को शहर ले गई। वहाँ उसका छोटा सा अस्पताल था, जिसमें पहला कमरा सिर्फ बाबा के लिए।
अस्पताल में दीवारों पर लिखा था – “यहाँ इलाज धर्म नहीं, इंसान देखकर किया जाता है।”
धीरे-धीरे आर्या का अस्पताल मशहूर होने लगा। हर धर्म, हर जाति के लोग वहाँ इलाज कराने आने लगे। वह गरीबों का इलाज मुफ्त करती, हर अनाथ बच्चे को किताबें दिलाती, हर बुजुर्ग को दवा देती। लोग उसे “डॉक्टर बिटिया” कहकर पुकारते।
आखिरी इच्छा
कुछ महीनों बाद जब हरिदास जी की तबीयत और बिगड़ गई, बाबा बोले – “बिटिया, जब मैं ना रहूं, तो इस अस्पताल में मेरा नाम मत लिखना। बस मंदिर के बाहर उस जगह एक दिया जला देना, जहाँ तू पहली बार ठिठुरते हुए बैठी थी।”
आर्या ने वादा किया – “वह दिया कभी नहीं बुझेगा।”
अंतिम संदेश
हरिदास जी की सांसें शांत हो गईं। आर्या ने उनके माथे पर हाथ रखा – “बाबा, आपने सिखाया था कि भगवान हर जगह है। आज मैं आपको अपने हर मरीज के चेहरे में देखूंगी।”
उस दिन से अस्पताल के बाहर और गांव के मंदिर के पास एक दीपक हमेशा जलने लगा – “हरिदास दीप”। लोग कहते हैं, वह दिया कभी नहीं बुझता।
आर्या ने अपनी जिंदगी सेवा में समर्पित कर दी। जब कोई पूछता, “आप ऐसा क्यों करती हैं?” वह मुस्कुरा कर कहती – “एक पुजारी ने मुझे सिखाया था कि भक्ति भगवान के लिए नहीं, इंसान के लिए होनी चाहिए।”
दोस्तों, यही थी उस भटकी बच्ची की कहानी जिसे मंदिर के पुजारी ने सिर्फ पनाह नहीं दी, बल्कि उसे वह पहचान दी जिसने इंसानियत को भगवान से भी ऊपर साबित कर दिया। क्या आप भी किसी अनजान बच्ची को अपनाने की हिम्मत करेंगे? कमेंट में जरूर लिखिए, क्योंकि यही जवाब बताएगा आज भी इंसानियत जिंदा है या नहीं।
News
“भरोसे की नींव – गोविंद नारायण वर्मा की विरासत”
“भरोसे की नींव – गोविंद नारायण वर्मा की विरासत” यह कहानी “गोविंद नारायण वर्मा” केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि…
✈️ “सम्मान की उड़ान – विमला देवी की कहानी” ✈️
✈️ “सम्मान की उड़ान – विमला देवी की कहानी” ✈️ मुंबई की ठंडी सर्दियों की सुबह थी। एयरपोर्ट यात्रियों से…
🌹 मां — एक अधूरी पुकार की पूर्णता
🌹 मां — एक अधूरी पुकार की पूर्णता सर्दी की वह सुबह जब सूरज बादलों में कहीं खो गया था।…
शीर्षक: अच्छाई की कीमत
शीर्षक: अच्छाई की कीमत दिल्ली की दोपहर। धूप इतनी तेज़ कि जैसे सड़कों से भाप उठ रही हो।ट्रैफिक का शोर,…
शीर्षक: अच्छाई की कीमत
शीर्षक: अच्छाई की कीमत दिल्ली की दोपहर। धूप इतनी तेज़ कि जैसे सड़कों से भाप उठ रही हो।ट्रैफिक का शोर,…
एआई दीदी – मेहनत से मिशन तक
एआई दीदी – मेहनत से मिशन तक कहते हैं, अगर मेहनत सच्ची हो तो ठेला भी तरक्की का पहिया बन…
End of content
No more pages to load






