ममता का दिया: एक बेटी, दो मां और समाज की सोच

1. गांव की परछाईं

हरियाणा के एक समृद्ध गांव में चौधरी हरपाल सिंह का परिवार रहता था। बाहर से यह परिवार जितना रौबदार और सम्पन्न दिखता था, भीतर से उतना ही रूढ़िवादी। बेटा पैदा हो तो घर में ढोल-नगाड़े बजते, बेटी हो तो सन्नाटा पसर जाता।
हरपाल सिंह के दो बेटे थे—बड़ा विक्रम और छोटा सूरज। विक्रम के दो बेटे थे, जिससे घर में खूब रौनक रहती। सूरज पढ़ा-लिखा, संवेदनशील और अपने पिता से बिल्कुल अलग सोच का लड़का था। उसने परिवार की मर्जी के खिलाफ गांव की ही साधारण लड़की पूजा से प्रेम विवाह किया। यह बात हरपाल और उनकी पत्नी राजेश्वरी देवी को कभी हजम नहीं हुई।

शादी के एक साल बाद सूरज को दुबई में नौकरी मिल गई। वह अपनी गर्भवती पत्नी पूजा को छोड़कर, घर की हालत सुधारने के सपने के साथ विदेश चला गया। पूजा अब अकेली थी, सास के तानों और डर के साये में जी रही थी। सास की एक ही जिद थी—पोता चाहिए, पोती नहीं।

2. जन्म, मातम और डर

समय बीता, पूजा को प्रसव पीड़ा हुई। उसे शहर के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। ऑपरेशन के बाद नर्स बाहर आई, “मुबारक हो, बेटी हुई है।”
राजेश्वरी देवी का चेहरा गुस्से से तमतमा गया, “मनहूस! खानदान का नाम डुबो दिया।”
वह तूफान की तरह अंदर पहुंचीं। पूजा बेहोश थी, बगल में नन्हीं सी परी सो रही थी। राजेश्वरी देवी ने नर्स को पैसे देकर कहा, “इस बच्ची को आज ही खत्म कर दो, किसी को पता नहीं चलना चाहिए। बाहर जाकर सबको बता दो कि बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ।”

नर्स कांप गई, “नहीं मैडम, यह पाप मैं नहीं कर सकती।”
राजेश्वरी देवी ने धमकी दी, “अगर यह जिंदा रही, तो इसकी मां जिंदा नहीं रहेगी। सोच लो।”

पूजा को जब होश आया, नर्स ने सब सच बता दिया। पूजा डर और ममता के बीच फंसी थी। आखिर डर जीत गया। उसने पत्थर दिल बनकर कहा, “सबको बता दो कि मेरी बेटी मर गई है।”
उसने अपनी बच्ची का चेहरा तक नहीं देखा, डर था कि ममता कहीं उसका फैसला बदल न दे। गांव में खबर फैला दी गई कि बहू ने मरी हुई लड़की को जन्म दिया। सूरज को भी यही झूठी खबर दी गई। वह टूट गया, पूजा भी अंदर से बिखर गई।

3. सिस्टर ग्रेस का ममत्व

अस्पताल में पीडियाट्रिक वार्ड की नर्स, सिस्टर ग्रेस, 35 साल की अविवाहित महिला थी। उसका कोई अपना नहीं था, लेकिन हर बच्चे में वह अपना अक्स देखती थी। जब पूजा की बच्ची को लावारिस घोषित करके अनाथालय भेजने की तैयारी होने लगी, ग्रेस का दिल पसीज गया। उसने बच्ची को गोद में उठाया, बच्ची ने उसकी उंगली पकड़ ली।
ग्रेस ने सुपरिटेंडेंट से कहा, “सर, यह बच्ची बहुत कमजोर है, अगर इसे अनाथालय भेजा गया तो बच नहीं पाएगी। कृपया इसे मेरी निगरानी में रहने दीजिए।”

सुपरिटेंडेंट ने इजाजत दे दी।
ग्रेस ने बच्ची का नाम रखा—एंजेल।

अब ग्रेस उसकी मां बन गई। अपनी तनख्वाह से दूध, कपड़े, खिलौने लाती। रात-रात भर जागकर उसे सुलाती। पहली मुस्कान, पहली पलटी—इन सबका गवाह अस्पताल का स्टाफ था। ग्रेस के लिए एंजेल ही उसकी दुनिया थी।

4. सच्चाई की आग

छह महीने बीत गए। एंजेल अब हंसती-खेलती, गोलमटोल बच्ची बन गई थी। अस्पताल बार-बार ग्रेस से कहता कि अब बच्ची को अनाथालय भेज दो, लेकिन वह हर बार रोक लेती।
दूसरी तरफ, दुबई में सूरज अपनी बेटी को खोने के ग़म में डूबा था। पूजा से बात करता, आवाज में अपराधबोध महसूस करता।

एक दिन सूरज अचानक छुट्टी लेकर घर आ गया। पूजा उसे देखकर घबरा गई। सूरज ने पूछा, “क्या बात है पूजा?”
पूजा का सब्र टूट गया। वह रोते हुए बोली, “हमारी बेटी जिंदा है!”
पूजा ने सारी सच्चाई बता दी—सास की धमकी, अपनी मजबूरी, और अस्पताल में बच्ची को छोड़ने का दर्द।

सूरज का दिल फट गया। वह उसी रात पूजा को लेकर अस्पताल पहुंचा। नर्स से छह महीने पहले की लावारिस बच्ची के बारे में पूछा। नर्स ने सिस्टर ग्रेस का नाम बताया।

5. मिलन और माफी

सूरज और पूजा भागते हुए पीडियाट्रिक वार्ड पहुंचे। वहां सिस्टर ग्रेस कुर्सी पर सो रही थी, गोद में एंजेल थी। सूरज ने पहली बार अपनी बेटी को देखा, उसकी आंखों से आंसू बह निकले।
सिस्टर ग्रेस चौंक गई, “जी, आप लोग कौन?”
सूरज बोला, “मैं इस बच्ची का पिता हूं।”

पूरी कहानी सुनकर ग्रेस की आंखों में आंसू थे, लेकिन सुकून भी। उसने भारी मन से एंजेल को सूरज की गोद में दे दिया। पहली बार एंजेल अपने पिता की गोद में थी—उसने सूरज की उंगली पकड़ ली।

सूरज ने ग्रेस का हाथ पकड़कर कहा, “मैं आपका शुक्रिया कैसे अदा करूं?”
ग्रेस बोली, “मैंने सिर्फ एक मां का फर्ज निभाया है। एंजेल आपकी ही नहीं, मेरी भी बेटी है।”

सूरज ने अस्पताल को बड़ा दान दिया, शर्त रखी कि पीडियाट्रिक वार्ड को सिस्टर ग्रेस के नाम पर बनाया जाए।
सूरज ने ग्रेस को राखी बांधने को कहा, “आज से आप मेरी बहन और एंजेल की मौसी हैं।”
ग्रेस की आंखों से आंसू छलक पड़े। उसे वह परिवार मिल गया, जिसकी हमेशा चाह थी।

6. घर की लक्ष्मी

सूरज अपनी बेटी को लेकर घर लौटा। हरपाल सिंह और राजेश्वरी देवी हैरान रह गए। राजेश्वरी देवी चिल्लाईं, “इस मनहूस लड़की के लिए घर में कोई जगह नहीं!”
लेकिन सूरज अब बदल चुका था। उसने कहा, “यह मेरी बेटी है, अगर इसके लिए जगह नहीं है तो मेरे लिए भी नहीं है।”

हरपाल सिंह ने बेटे की आंखों में आत्मविश्वास देखा। वे बोले, “यह घर जितना तुम्हारा है, उतना ही तुम्हारी बेटी का भी है। आज से यह हमारी पोती है।”

घर का माहौल बदलने लगा। सूरज ने बेटी का नाम दिया—दिया। दिया के आने से घर में खुशहाली आ गई।
राजेश्वरी देवी, जो कभी उसे मनहूस कहती थी, अब उसके बिना एक पल नहीं रह पाती थी।
ग्रेस अब परिवार का हिस्सा थी—दिया की मौसी। हर त्योहार पर वह परिवार के साथ रहती।

7. कहानी का संदेश

सूरज और पूजा ने दिया को हमेशा बताया कि उसकी दो मां हैं—एक जिसने जन्म दिया, दूसरी जिसने जीवन दिया।
यह कहानी सिखाती है कि बेटियां बोझ नहीं, वरदान होती हैं। और कभी-कभी खून से नहीं, दिल से बने रिश्ते ज्यादा मजबूत होते हैं।
सिस्टर ग्रेस जैसी गुमनाम नायिकाओं को सलाम, जो इंसानियत का फर्ज निभाती हैं।

अगर आपको यह कहानी पसंद आई, तो इसे शेयर करें। बेटियों को बचाएं, पढ़ाएं, और उन्हें सम्मान दें। क्योंकि हर घर की असली लक्ष्मी—बेटी ही होती है।

(समाप्त)