मां और बेटे की मुलाक़ात – एक सच्ची और भावुक कहानी

जयपुर की गलियों में एक ठंडी सुबह थी। सड़कों पर भीड़ थी, लोग अपने-अपने काम पर निकल रहे थे। ट्रैफिक सिग्नल पर गाड़ियों की लंबी कतार लगी थी। उन्हीं में से एक सफेद कार में अरविंद और उसकी पत्नी काव्या बैठे थे। दोनों रोज की तरह ऑफिस जा रहे थे। हर दिन की तरह, जब भी कार किसी लाल सिग्नल पर रुकती, कुछ छोटे बच्चे कार के पास दौड़कर आते — कोई फूल बेचता, कोई पेन, कोई गुब्बारे। कुछ पैसे मांगते, कुछ छोटी चीज़ें बेचकर अपना पेट भरने की कोशिश करते।

उन बच्चों में एक लड़का था — दस–ग्यारह साल का। उसके चेहरे पर धूल थी, लेकिन आंखों में मासूमियत की चमक। वह मुस्कुराकर बोला, “आंटी, गुब्बारा लीजिए ना।”
काव्या हंस पड़ी, “गुब्बारा मैं क्या करूंगी?”
लड़का भोलेपन से बोला, “अपने प्यारे बेटे को दे देना।”
काव्या ने पेट पर हाथ रखते हुए मुस्कुराकर कहा, “अभी तो मेरा बेटा दुनिया में आया ही नहीं है। जब आएगा, तब तक तो यह गुब्बारा फट जाएगा।”
लड़का बोला, “अगर आप इसे छोड़ेंगी नहीं, तो ये कभी नहीं फटेगा।”

काव्या उसकी बात सुनकर हंसी और बोली, “तुम बहुत प्यारे बच्चे हो।” उसने दो गुब्बारे ले लिए और कार आगे बढ़ गई। लेकिन उस बच्चे की मासूमियत काव्या के दिल में उतर गई। वह बार-बार उसके बारे में सोचती रही। अगले कुछ दिनों में जब भी कार वहीं सिग्नल पर रुकती, वही लड़का वहां होता — कभी पेन बेचता, कभी फूल। वह हर बार नई चीज़ बेचता और हर बार उसकी बातें काव्या के चेहरे पर मुस्कान ला देतीं। धीरे-धीरे दोनों के बीच एक अनकहा रिश्ता बन गया। काव्या उसे देखकर खुश हो जाती और हमेशा कुछ न कुछ खरीद लेती — और साथ में कुछ रुपये चुपके से उसके हाथ में थमा देती।

समय बीतता गया, और एक दिन काव्या ने देखा कि सिग्नल पर वो लड़का नहीं था। उसने चारों ओर देखा, लेकिन वह कहीं नहीं मिला। कार आगे बढ़ गई, लेकिन उसका दिल बेचैन हो उठा। अगले दिन जब कार फिर उसी सिग्नल पर रुकी, वह लड़का तब भी नहीं था। तभी दो छोटे लड़के पास आए। उन्होंने कहा, “मैडम, आप आरव को ढूंढ रही हैं ना? उसका एक्सीडेंट हो गया।”

काव्या का दिल धक् से रह गया। “क्या? कैसे?” उसने कांपते हुए पूछा।
“एक कार ने टक्कर मारी और भाग गई,” उनमें से एक बोला, “वो झलाना डूंगरी की झुग्गियों में रहता था।”
काव्या की आंखों से आंसू निकल पड़े। उसने अरविंद से कहा, “मुझे यहीं उतार दो, मैं उस बच्चे को देखना चाहती हूं।”
अरविंद ने घड़ी देखी, “काव्या, दुकान खुलने का समय हो गया है, तुम बाद में—”
“नहीं,” उसने दृढ़ स्वर में कहा, “मुझे जाना है।”

वह एक ऑटो लेकर झलाना डूंगरी पहुंची। वहां की झोपड़ियों में उसने एक बूढ़ी औरत को बैठे देखा। और जैसे ही उस औरत ने सिर उठाया, काव्या सन्न रह गई। वह चेहरा उसे जाना-पहचाना लगा — उसकी पुरानी सास। बूढ़ी औरत की आंखों से आंसू बहने लगे, “मैं तेरे बच्चे को बचा नहीं पाई, काव्या…”
काव्या चीख उठी, “क्या कह रही हो मां! कौन बच्चा?”
“वो आरव… तेरा बेटा।”

काव्या वहीं जमीन पर गिर पड़ी। आठ साल की दूरी, आठ साल की मजबूरी — सब एक पल में सामने आ गए। वो रोते हुए बोली, “मेरा बेटा… जो मैंने जन्म दिया था… वो इसी हालत में?”

पास बैठी औरतों ने पूछा, “यह कौन है?”
बूढ़ी महिला ने कहा, “यह उसकी मां है।”
सन्नाटा छा गया। किसी को विश्वास नहीं हुआ। लेकिन सच यही था — वह मासूम लड़का, जो हर दिन लाल सिग्नल पर गुब्बारे बेचता था, दरअसल उसी मां का बेटा था जिसने उसे मजबूरी में छोड़ दिया था।

कहानी यहां से पीछे लौटती है — जब काव्या अठारह साल की थी। नागपुर में रहती थी। उसने विक्रांत नाम के लड़के से प्रेम विवाह किया था, अपने परिवार के विरोध के बावजूद। विक्रांत आकर्षक था, लेकिन उसका अतीत अंधकारमय था। वह गलत लोगों के साथ जुड़ा हुआ था। शादी के एक साल बाद उनके घर बेटा हुआ — आरव। पर कुछ ही समय बाद विक्रांत अपराध की दुनिया में और फंस गया। दुश्मनों ने उसे मार डाला।

विधवा काव्या ने सोचा कि अब वह अपने बेटे के साथ रहेगी। लेकिन समाज और परिवार ने उसे घेर लिया। माता-पिता बोले, “तुम जवान हो, हम तुम्हारी दूसरी शादी कराएंगे, लेकिन बच्चे को भूलना होगा।”
काव्या ने मना किया, “मैं अपने बेटे को नहीं छोड़ सकती।”
उन्होंने कहा, “अगर यह बच्चा रहेगा तो कोई तुमसे शादी नहीं करेगा।”

कई दिनों तक वह संघर्ष करती रही। अंत में उसके ससुराल वालों ने कहा, “यह बच्चा हमारा खून है, हम इसका ध्यान रखेंगे।” काव्या रोती रही, लेकिन परिस्थितियों ने उसे झुकने पर मजबूर कर दिया। उसने बेटे को छोड़ दिया। जाते समय उसने बच्चे को चूमा और कहा, “मां लौटेगी बेटा… ज़रूर लौटेगी।”

वह अपने माता-पिता के साथ जयपुर आ गई। कुछ वर्षों बाद उसकी शादी अरविंद से हुई — एक अच्छा, सच्चा आदमी। सब कुछ ठीक चलने लगा। उसे लगा कि अब जिंदगी संभल गई है, लेकिन वह अपने अतीत को कभी नहीं भूल पाई।

उधर, आरव अपनी दादी के साथ झलाना डूंगरी की झुग्गियों में बड़ा हो रहा था। गरीबी थी, भूख थी, लेकिन दादी का प्यार था। जब वह आठ साल का हुआ, उसने देखा कि बाकी बच्चे सड़कों पर जाकर चीजें बेचते हैं। उसने भी ठान लिया — वो भीख नहीं मांगेगा, मेहनत करेगा। उसने कुछ गुब्बारे खरीदे और ट्रैफिक सिग्नल पर बेचना शुरू किया।

वह नहीं जानता था कि जिसे वह “आंटी” कहकर गुब्बारे बेचता है, वो उसकी मां ही है। किस्मत ने मां-बेटे को मिलाया, लेकिन पहचान नहीं होने दी।

और फिर वह दिन आया जब हादसा हुआ। काव्या जब झलाना पहुंची तो उसकी सास ने बताया, “आरव को एसएमएस अस्पताल ले गए हैं।”
काव्या भागती हुई अस्पताल पहुंची। वहां आरव की बुआ और कुछ औरतें थीं। डॉक्टर बोले, “बचने की उम्मीद बहुत कम है।”
काव्या घुटनों पर गिर पड़ी, “भगवान, मेरे बच्चे को बचा लो।”

कई घंटे बीत गए। डॉक्टर बार-बार अंदर जा रहे थे। अरविंद लगातार फोन कर रहा था, लेकिन काव्या ने फोन नहीं उठाया। आखिर तीसरे दिन डॉक्टर बाहर आए और बोले, “बच्चे को होश आ गया है।”

काव्या दौड़ती हुई अंदर गई। आरव ने आंखें खोलीं। वह बोला, “आंटी, आप आ गईं…”
काव्या की आंखों से आंसू बह निकले। उसने उसके माथे को चूमा, “मैं आंटी नहीं हूं, मैं तेरी मां हूं बेटा…”
डॉक्टर ने कहा, “ज़्यादा बात मत कीजिए, बच्चा कमजोर है।”

तीन दिन बाद हालत सुधरने लगी। काव्या उसके सिरहाने बैठी रही, रात-दिन। उसने अपनी जिंदगी में पहली बार सुकून महसूस किया।

जब अरविंद को सच्चाई पता चली तो वह टूट गया। उसने कहा, “तुमने मुझसे यह बात क्यों छुपाई?”
काव्या कुछ न बोली। बस इतना कहा, “अगर बताती तो तुम मुझसे शादी नहीं करते।”
अरविंद वहां से चला गया। लेकिन कुछ दिनों बाद उसका दिल पिघल गया। वह अपनी मां और बहन के साथ अस्पताल पहुंचा। वहां काव्या अपने बेटे को गोद में लिए बैठी थी। उसके चेहरे पर मातृत्व की शांति थी। अरविंद पास आया और बोला, “चलो घर चलते हैं। अब सब ठीक है।”

उस दिन काव्या की आंखों से जो आंसू बहे, वे खुशी के थे।
आरव ठीक होकर घर आया। दादी, काव्या, अरविंद — सब साथ रहने लगे। वक्त बीतता गया। काव्या फिर से मां बनी। अब घर में हंसी, बच्चों की खिलखिलाहट और सुकून था।

छह साल बीत गए। आरव अब पढ़ाई में अच्छा था। वह हमेशा कहता, “मां, मैं बड़ा होकर उन बच्चों की मदद करूंगा जो सिग्नल पर बेचते हैं।”
काव्या मुस्कुराती और कहती, “बस बेटा, कभी किसी का दिल मत तोड़ना।”

दोस्तों, इस कहानी में ना कोई खलनायक है, ना कोई नायक। यहां बस जिंदगी है — जो कभी किसी को मौका देती है, तो कभी सजा। लेकिन अगर इंसान का दिल सच्चा हो, तो वक्त उसे उसकी खोई हुई चीज़ लौटा देता है।

मां और बेटे के बीच का रिश्ता खून से नहीं, दिल से होता है। उसे कोई दूरी, कोई मजबूरी तोड़ नहीं सकती।

तो दोस्तों, अगर यह कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो याद रखिए — किसी बच्चे को उसकी मां से अलग मत कीजिए। हर बच्चा अपने घर, अपने स्नेह और अपने सपनों का हकदार है।

और अगर आपको यह कहानी पसंद आई हो, तो इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर कीजिए, ताकि कोई भी मां अपनी ममता से दूर न रहे।
क्योंकि सच्चा प्यार हमेशा लौट आता है — बस पहचानने में वक्त लगता है।